यूसुफ मेहर अली: जिन्होंने दिया “भारत छोड़ो” और “साइमन गो बैक” का नारा
[द्वितीय विश्वयुद्ध में कांग्रेस ने नारा दिया था – अंग्रेजों भारत छोड़ो। पढिए उनकी जीवन की प्रेरक कथा।]
द्वितीय विश्वयुद्ध और कांग्रेस
14 जुलाई 1942 को वर्धा में काँग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई। महात्मा गांधी ने यह प्रस्ताव दिया कि देश में अंग्रेजों के खिलाफ एक विशाल आंदोलन करना होगा। इस कदम के कारण स्पष्ट थे। 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ और बिना भारत के राजनैतिक नेतृत्व से सलाह-मशवरा किए देश को युद्ध में धकेल दिया गया। प्रथम विश्वयुद्ध में भी भारत ने ब्रिटेन का साथ दिया था, कई फौजी जंग में भेजे थे और ढेर सारा युद्ध का समान भी मुहैया कराया।
लेकिन युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता देने की जगह जलियाँवाला बाग मे हत्याएँ की थीं। इस बार भी ब्रिटेन वही कर रहा था। काँग्रेस का साफ कहना था कि भारत द्वितीय विश्वयुद्ध में फासीवाद के खिलाफ लड़ेगा, लेकिन एक स्वतंत्र मुल्क के तौर पर, बराबरी के साथ। यदि अंग्रेज भारत में वही नीतियाँ अपना रहे हैं जिसके लिए वे हिटलर और मुसोलिनी को कोसते हैं, तो यह युद्ध भारत के पक्ष में नहीं।
क्रिप्स मिशन
मार्च 1942 में युद्ध की नाजुक स्थिति और भारत में संतोषजनक समर्थन न पाते हुए ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल की सरकार ने सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मण्डल भारत भेजा जो सभी राजनैतिक पार्टियों से बात करेगा। काँग्रेस की ओर से स्पष्ट रूप से कहा गया कि ब्रिटेन भारत को सम्पूर्ण सत्ता हस्तांतरण की समय सीमा दे। लेकिन अंग्रेज भारत के संसाधनों को लूटना जारी रखना चाहते थे इसीलिए उन्होंने डोमिनीयन स्टेटस से ज्यादा कुछ भी देने से मना कर दिया।
वर्धा की बैठक के बाद गांधी बंबई आए जहां एक बैठक में आंदोलन के नाम को लेकर राय बनाई गई लेकिन नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी। तभी सुझाव आया “Quit India”, अर्थात “भारत छोड़ो”। गांधी को यह सुझाव बहुत पसंद आया। यह सुझाव देने वाले व्यक्ति थे तत्कालीन बंबई शहर के मेयर और काँग्रेस नेता यूसुफ मेहर अली।
यूसुफ मेहर अली का जन्म 23 सितंबर 1903 को बंबई के एक संभ्रांत परिवार में हुआ। उनके दादा ने शहर की सबसे पुरानी टेक्सटाइल मिलों में से एक शुरू की थी। अपनी किताब Biographical Encyclopedia of Indian Muslim Freedom Fighters में सय्यद उबैदुर रहमान लिखते हैं:
बहुत शुरुआती अवस्था से ही वे महात्मा गांधी और आजादी की लड़ाई में दिलचस्पी लेने लगे थे, जो उनकी उम्र बढ़ने के साथ ही परिपक्व हो रही थी। वे अद्भुत मेधा के धनी थे और इस बात पर विचार करते रहते कि भारत को कैसे उपनिवेशी ताकतों ने गुलाम बना लिया। मिडल और हाई स्कूल से ही वे न सिर्फ भारत बल्कि दुनियाभर में राजनतिक स्वतंत्रता के लिए चले आंदोलनों का अध्ययन करने लगे थे।
(पृष्ठ 348)
उनका परिवार उनकी राजनैतिक विचारधारा से सहमत नहीं था, लेकिन नौजवान यूसुफ फिर भी देश को आजाद करने के रास्ते पर प्रतिबद्ध होकर बढ़ते रहे। उनकी इस यात्रा में पहला मोड आया 1928 में जब भारत में साइमन कमिशन का आगमन हुआ।
साइमन गो बैक
1919 में अंग्रेजों ने ऐलान किया था कि दस साल बाद भारत में राजनैतिक सुधारों को लेकर एक कमिशन भेजा जाएगा जो यह तय करेगा कि भारतीयों को सत्ता में कितनी भागीदारी दी जा सकती है। लेकिन जहां सैद्धांतिक रूप से ब्रिटेन द्वारा संवैधानिक सुधारों और लोकतंत्र की बात की जाती थी, सच यह था कि भारत के आर्थिक शोषण से अंग्रेजों को बहुत फायदा था और वे नहीं चाहते थे कि भारत के लोग खुद अपना राज-काज चलायें। इसीलिए भारत में आजादी को लेकर बढ़ती मांग को भटकाने के लिए साइमन कमिशन को भारत भेजा गया।
ब्रिटेन में उस समय कंजरवेटिव पार्टी की सरकार थी जिसे डर था कि 1929 के आम चुनावों में वह लेबर पार्टी से हारेगी, अतः कमिशन को एक साल पहले ही भारत भेज दिया गया ताकि भारतीय स्वतंत्रता से ज्यादा सहानुभूति रखने वाली लेबर पार्टी कमिशन के सदस्य तय न करे। इस कमिशन का नेतृत्व लिब्रल पार्टी के सांसद सर जॉन साइमन कर रहे थे, और इसमें सात ब्रिटिश सांसद थे लेकिन एक भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं। भारत में राजनैतिक सुधारों पर फैसला लेने के लिए किसी भी भारतीय को कमिशन में शामिल नहीं किया गया।
जाहिर है देश भर में इसका विरोध हुआ।
लाला लाजपत राय ने केन्द्रीय लेजिस्लेटिव असेंबली में कमिशन के खिलाफ प्रस्ताव लाया जो सभी भारतीय सदस्यों के साहियोग से पारित हो गया। उस समय तक जिन्ना के ऊपर सांप्रदायिक राजनीति का रंग नहीं चढ़ा था और उन्होने भी साइमन कमिशन के बहिष्कार का नारा दिया। लेकिन असली विरोध शुरू करने में यूसुफ मेहर अली ने अग्रिम भूमिका निभाई। जब बंबई के बंदरगाह पर कमिशन के सदस्यों वाला जहाज आया। शुरुआत में प्लान नाव के जरिए समंदर में जाकर जहाज को काले झंडे दिखने का था लेकिन यह बात पुलिस को पता चल गई।
यूसुफ मेहर अली ने हिम्मत नहीं हारी और बंदरगाह पर सभी प्रदर्शनकारी कूली का भेष बनाकर घुसने में कामयाब रहे और काल झंडों के साथ एक बैनर भी लहरा दिया जिसपर लिखा था “Simon Go Back”, अर्थात “साइमन वापस जाओ”। पुलिस ने तीन बार लाठी चार्ज किया लेकिन कार्यकर्ता हताश नहीं हुए। इस प्रदर्शन की खबर देश में आग की तरह फैल गई और देश भर में जहां-जहां कमिशन गया वहाँ विरोध हुआ।
विरोध के कुछ चुनिंदा उदाहरणों में पटना का मगफ़ूर अहमद ऐजाजी का प्रदर्शन और लाहौर में लाला लाजपत राय का प्रदर्शन शामिल था। जब कमिशन की ट्रेन लाहौर रेलवे स्टेशन पर पहुंची तो पुलिस ने विरोध कर रही जनता को हटाने के लिए बर्बर लाठी चार्ज किया जिससे लाला लाजपत राय बहुत गंभीर रूप से घायल हुए और उनकी मौत हो गई।
लाला जी की मृत्यु से पूरे देश में इस दमन के खिलाफ रोष की लहर दौड़ गई। यूसुफ मेहर अली को इसके बाद ही पहली बार जेल में डाला गया, जो उनके जेल जाने की शृंखला की शरुआत थी। इसके बाद उन्होने दांडी मार्च में योगदान दिया जिससे ब्रिटिश सरकार इतनी घबड़ाई की उन्हें जेल ही नहीं भेजा, बल्कि उनसे वकालत करने का अधिकार भी छीन लिया गया। यह एक बहुत अतप्रत्याशित कदम था चूंकि स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले कई आंदोलनकारी वकील रहे थे लेकिन किसी को भी ऐसे वकालत करने से नहीं रोका गया।
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी
यूसुफ मेहर अली का झुकाव समाज में मजदूरों और किसानों के हितों को बढ़ावा देने की ओर हुआ। इसीलिए 1934 में जयप्रकाश नारायण, मीनू मसानी आदि के साथ उन्होंने काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की।
वे इस बीच लगातार बंबई में राष्ट्रवादी चेतना के प्रसार व शहर में गरीबों मजदूरों के हितों की लड़ाई जारी रक्खी। 1938 में यूसुफ मेहर अली न्यू यॉर्क की ‘वर्ल्ड यूथ काँग्रेस’ में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व करते हुए गए। उसके बाद अमेरिका के पड़ोसी देश मेक्सिको में एक संस्कृतक आयोजन में उन्हें समझ आया कि भारत में ज्ञान के प्रसार की आवश्यकता है। जहां पश्चिम में हर विषय पर ढेरों किताबें उपलब्ध थीं, वहीं भारत में इनका अभाव था। यूसुफ मेहर अली ने इस कमी को पूरा करने के लिए “Leaders of India” नाम से पुस्तकों की सीरीज शुरू की जिसमें वर्तमान भारत के इतिहास, वित्त, राजनीति और भूगोल पर कई जानकारियाँ दी गईं।
अंग्रेज़ों भारत छोड़ो
हमने ऊपर 1942 में महात्मा गांधी द्वारा बंबई में बुलाई गई बैठक का जिक्र किया। इस संदर्भ में के गोपालस्वमी ने अपनी किताब Gandhi and Bombay में लिखा है:
शांतिकूमर मोरारजी ने दर्ज किया है कि गांधी ने बंबई में अपने साहियोगियों से चर्चा की कि स्वतंत्रता के लिए सबसे बेहतर नारा क्या रहेगा। किसी ने कहा “Get Out” (चले जाओ) लेकिन गांधी का मानना था यह शिष्ट नहीं है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने “Retreat” एवं “Withdraw” सुझाया लेकिन यह भी जमा नहीं। तब यूसुफ मेहर अली ने गांधी को एक धनुष भेंट किया जिसपर “Quit India” गुदा हुआ था। गांधी ने कहा- “Amen” (ऐसा ही हो)।
उसके बाद का इतिहास हम जानते ही हैं।
8 अगस्त 1942 को गांधी ने “भारत छोड़ो” की घोषणा की और तत्काल पूरी काँग्रेस कार्यसमिति को जेल में ठूंस दिया गया। यूसुफ मेहर अली को भी लाहौर जेल में रखा गया लेकिन उसी समय बंबई में मेयर के चुनाव हुए। यूसुफ ने जेल से ही वह चुनाव लड़ा और जीता। वे शहर के मेयर निर्वाचित हुए और उन्होंने शहर की व्यवस्था सुधारने के लिए कई पहल कीं। उसमें सबसे महत्वपूर्ण था फाइलों को दबाने वाले अधिकारियों पर कार्यवाही। इसके साथ ही यूसुफ मेहर अली ने मेयर रहते हुए ब्रिटिश सरकार को हवाई हमलों से संबंधित पैसा देने की जगह उसका इस्तेमाल खुद किया।
Air Raid Precaution Scheme एक योजना थी जिसके अंतर्गत द्वितीय विश्वयुद्ध में हवाई हमला होने की स्थिति में आपातकालीन सेवाओं जैसे एम्बुलेंस आदि चलाने और पुलिस से इनका समन्वय बनाने के लिए बंबई की महानगर पालिका अंग्रेज सरकार को हर साल 24 लाख रुपये दे रही थी।
लेकिन अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से अवगत मेहर यूसुफ अली का तर्क था कि अंग्रेज हारने की स्थिति में बंबई छोड़ सकते हैं, जैसा उन्होंने जापानियों से बर्मा और मलाया हारने पर किया। ऐसे में हवाई हमलों की सुरक्षा से जुड़ा पैसा और जिम्मेदारी उन लोगों के पास रहे जो हर हाल में शहर में ही रहेंगे। इस तरह बंबई देश का इकलौता शहर बना जहां मेयर और महानगर पालिका को यह योजना खुद चलाने की मंजूरी मिली। इसके लिए यूसुफ मेहर अली ने एक People’s Volunteer Force भी गठित की।
भारत छोड़ो आंदोलन में दोबारा जेल जाने से पूर्व यूसुफ ने काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अपने साथियों जैसे अच्युत पटवर्धन व अरुणा आसफ अली के साथ मिलकर काँग्रेस का एक अन्डरग्राउन्ड ढांचा तैयार किया जो सबकी गिरफ़्तारी के बाद भी आंदोलन चलाता रहा।
भारत छोड़ो आंदोलन के पूरे कार्यकाल में लगभग सभी शीर्ष नेता जेल में रहे। कई जगह पर जनता ने विरोध प्रदर्शन किए व राष्ट्रीय झंडे लहराए जिसका बहुत ही क्रूर और अमानवीय दमन अंग्रेजों ने किया। महात्मा गांधी के जेल में रहते उनकी पत्नी और सचिव की मृत्यु हो गई। मातंगिनी हाज़रा जैसे कई स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों की गोलीबारी में शहीद हो गए। लेकिन मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग और विनायक दामोदर सावरकर की हिन्दू महासभा अंग्रेजों का साथ देते रहे।
यह यूसुफ मेहर अली की आठवी जेल यात्रा थी जिसमें उन्हें एक भीषण दिल का दौरा पड़ा। अंग्रेजों ने उन्हें अस्पताल शिफ्ट करना चाहा तो उन्होंने मांग की कि उनके साथ दो और स्वतंत्रता सेनानियों को भी यह सुविधा मिले। लेकिन जब मना कर दिया गया तो उन्होंने भी अस्पताल जाने से इनकार कर दिया। 1943 में छूटने तक उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो चुका था।
भारत के सबसे प्रबुद्ध और लोकप्रिय आजादी के सिपाहियों में से एक यूसुफ मेहर अली ने 1948 में बंबई शहर में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी कई तस्वीरों का, जिनमें 1857 की तस्वीरें भी शामिल थीं, एक प्रदर्शनी में अनावरण किया। खराब स्वास्थ्य के चलते 47 की उम्र में 2 जुलाई 1950 को उनका निधन हो गया। बताते हैं कि उनके निधन के बाद शहर में इतना मातम छाया कि फैक्ट्री, स्कूल-कॉलेज, यातायात से लेकर बंबई शेयर बाजार का स्टॉक एक्सचेंज भी उनके सम्मान में बंद रहा।
यूसुफ मेहर अली जैसे अविस्मरणीय लोगों ने ही कितना कुछ बलिदान कर दिलाई थी हमें आजादी।
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।