भूले-बिसरे बलिदानी : सूफ़ी अम्बाप्रसाद
[नए साल में हम शुरू कर रहे हैं एक नई सीरीज़ जिसमें याद करेंगे उपनिवेशवाद के खिलाफ़ लड़ाई के उन योद्धाओं को जिन्हें भुला दिया गया। आज़ादी का अमृत महोत्सव उन्हें फिर से याद करने के साथ उन मूल्यों को याद करने का भी अवसर है, जिसके लिए वे लड़े और शहीद हुए।]
चाँद के फाँसी अंक में सरदार भगत सिंह ने जिन शहीदों की जीवनियाँ लिखीं थीं, उनमें सूफ़ी अम्बाप्रसाद भी शामिल हैं।
भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह पंजाब में किसानों आंदोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। 1906 में कलकत्ता (अब कोलकाता) में कांग्रेस के अधिवेशन में वह अपने बड़े भाई सरदार किशन सिंह के साथ गए और वहाँ की क्रांतिकारी गतिविधियों से परिचित होकर लौटे तो पंजाब में भारतमाता समिति बनाई। यही वक़्त था जब मुरादाबाद के सूफ़ी अम्बाप्रसाद भी पंजाब पहुँचे थे।
1907 में पंजाब सरकार ने रावलपिंडी दोआब बेरी एक्ट और और कॉलोनाइजेशन एक्ट लागू कर दिया। पहले एक्ट से जहाँ लगान में भारी वृद्धि हुई वहीं दूसरे एक्ट से, जो 1893 के एक्ट का संशोधन था, किसी की मृत्यु के बाद उसके वैधानिक वारिस न होने पर सरकार को उसकी ज़मीन क़ब्ज़ा करने और किसी को भी बेच देने का अधिकार मिल गया था। विधानसभा में ज़्यादातर भारतीय सदस्य इसके खिलाफ़ थे और इनके अन्यायपूर्ण होने का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है जालियाँवाला बाग़ हत्याकांड के समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे माइकल ओ ड्वायर ने इसे कुछ मामलों में ‘अनावश्यक रूप से प्रतिबंधक’ माना है।[i]
इसके खिलाफ़ अजीत सिंह ने जब आंदोलन शुरू किया तो अम्बाप्रसाद भी जुड़ गए और फिर भारतमाता सोसायटी के अभिन्न हिस्सा हो गए।
आरम्भिक जीवन
सूफ़ी अम्बाप्रसाद का जन्म मुरादाबाद में 1858 में हुआ था। आरंभिक पढ़ाई वहीं से हुई, फिर बरेली से कॉलेज किया और जालंधर से वकालत। लेकिन देशभक्ति की लहर हिलोरें मार रही थी तो वकालत का फायदेमंद धंधा अपनाने की जगह 1890 में अपना उर्दू अखबार ‘जाम-उल-इलक़’ शुरू किया और ब्रिटिश विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता समर्थक लेखों के लिए उन्हें दो साल की सख्त क़ैद की सज़ा हुई। 1899 में रिहा होने के तुरंत बाद उन्होंने फिर उसी जोश से लिखना शुरू किया तो इस बार उनकी संपत्ति ज़ब्त करके 6 साल की सज़ा दी गई।
जेल में बेहद सख्ती थी। बीमार पड़े तो दवा देने की जगह जेलर पूछता था – सूफ़ी, अब तक ज़िन्दा हो?
प्रस्ताव मिला कि माफ़ी मांग लो, समझौता कर लो। लेकिन सूफ़ी साहब अलग मिट्टी के बने थे। मुसीबतें जिन्हें तोड़ दे वह सूफ़ी अंबाप्रसाद नहीं हुआ करते। 1906 में जेल से छूटे।
1857 से पुनर्जन्म
सूफ़ी साहब का जन्म से ही एक हाथ नहीं था। भगत सिंह बताते हैं कि वह मज़ाक में कहा करते थे कि 1857 में अंग्रेज़ों से लड़ते मेरा एक हाथ कट गया था और अब जब पुनर्जन्म हुआ तो वैसे ही रह गया।
इस एक हाथ से ही उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ कलम भी चलाई और बंदूक भी।
अजीत सिंह का साथ और किसान आंदोलन में सक्रियता
जेल से छूटने के बाद सूफ़ी साहब ने पहले ‘हिंदुस्तान’ अखबार में नौकरी की, लेकिन उनके कलम पर जो रोक लगाई गई थी, वह उन्हें मंज़ूर नहीं थी। यही वक़्त था जब उनकी मुलाक़ात सरदार अजीत सिंह और सरदार किशन सिंह से हुई और वह किसान आंदोलन से जुड़ गए।
आंदोलन पूरे पंजाब में फैल गया था। शुरुआती हिचक के बाद लाला लाजपत राय भी इससे जुड़ गए। इस आंदोलन का असर समझने के लिए विस्तार में जाने की जगह पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर डेंजिल इबेटसन का बयान देख सकते हैं।
पूरब और पश्चिम के हिस्से में नए विचार पढ़े-लिखे वर्ग में और उनके बीच भी मुख्यतः वकीलों, क्लर्कों और छात्रों के बीच सीमित है। हालाँकि, जैसे-जैसे राज्य के केन्द्रीय हिस्से की तरफ़ जाते हैं, क़स्बों में भावनाएं प्रबल होती जाती हैं और गतिविधियों और असंतोष के और अधिक चिह्न दिखाई देते हैं। अमृतसर और फ़ीरोज़पुर शहरों में लाहौर के आंदोलनकारियों द्वारा बगावत की भावना जगाने की एक कोशिश हुई है जिसमें फ़ीरोज़पुर में काफी सफलता मिली है हालाँकि यह अमृतसर में उतना सफल नहीं रहा है।
रावलपिंडी, सियालकोट और लायलपुर में एक अंग्रेज़ विरोधी प्रॉपगेंडा खुले तौर पर और देशद्रोही तरीक़े से चलाया जा रहा है। राज्य की राजधानी लाहौर में यह प्रॉपगेंडा उग्र है और परिणामस्वरूप लगभग आमतौर पर असंतोष का भाव है..कुछ हफ़्तों पहले उत्तर-पश्चिम राज्य रेलवे के छोटे कर्मचारियों का एक हिस्सा हड़ताल पर चला गया.. उनके साथ सहानुभूति दिखाने के लिए आमसभा बुलाई गई और उनकी मदद के लिए काफी रकम जुटाई गई.. कुल मिलाकर स्थिति ‘बेहद खतरनाक है और तुरंत इसके उपाय किए जाने की आवश्यकता है।[ii]
सूफ़ी अम्बाप्रसाद और अजीत सिंह के सबसे छोटे भाई सरदार स्वर्ण सिंह का मुख्य काम पर्चे छापना और उन्हें बांटना था। इसके लिए भारतमाता प्रेस की भी स्थापना की गई थी। आंदोलन से सरकार डर गई। तीनों बिल वापस लेने का फ़ैसला किया गया, लेकिन साथ ही अजीत सिंह और लाला लाजपत राय को बर्मा (अब म्यानमार) की मंडाले जेल में निर्वासित कर दिया गया।
लेकिन बाक़ी लोग इससे डरे बिना अपने काम में लगे रहे।
फिर गिरफ़्तारी
इसी बीच एक घटना हुई।
सरदार स्वर्ण सिंह भारत माता सोसायटी के प्रचारमंत्री थे । अजीत सिंह की गिरफ़्तारी के बाद उन्होंने गरमागरम लेख लिखे और पर्चे छपवाकर बँटवाए। (संधू-118) इसी दौरान ‘पंजाबी’ नामक अखबार में ‘डेलीबरेट मर्डर’ शीर्षक से एक रिपोर्ट छपी जिसमें अंग्रेज़ अधिकारियों द्वारा सूअर का शिकार करने के बाद मुसलमान बैरों से लाश उठवाने की प्रथा और इंकार करने पर एक मुस्लिम बैरे की गोली मारकर हत्या कर देने की तीखी आलोचना की गई थी। इसके बाद अखबार के मालिक जसवंत राय और सम्पादक के के उथावले को दो साल की सख्त क़ैद दी गई। इसके विरोध में उग्र आंदोलन हुए जिनका नेतृत्व सरदार स्वर्ण सिंह ने किया। इसी अपराध में जुलाई 1907 में स्वर्ण सिंह, कर्तार सिंह, बहालीराम, राम सिंह, घसीटाराम और गोबर्धनदास को डेढ़-डेढ़ साल की सज़ा हुई थी।[iii]
लेकिन सूफ़ी अंबाप्रसाद, किशन सिंह और मेहता नन्दकिशोर पुलिस से बचकर अप्रैल 1907 में नेपाल भागने में सफल रहे। नेपाल के राजा से किशन सिंह के पुराने संबंध थे तो पहले तो उसने उन्हें अंग्रेज़ों को सौंपने से मना कर दिया लेकिन अंग्रेज़ों द्वारा नेपाल की इस शर्त को मान लेने के बाद उन्हें अंग्रेज़ों के हवाले किया गया कि उन पर कोई कार्यवाही नहीं होगी।[iv]
लेकिन अंग्रेज़ कब अपना वादा निभाते थे? सूफ़ी साहब एक बार फिर गिरफ़्तार तो हुए लेकिन जल्द ही छूट गए। उधर अजीत सिंह भी 6 महीने बाद ही रिहा कर दिए गए।
जलावतनी का दौर : ईरान में
रिहा होते ही दोनों दोस्तों ने फिर से आज़ादी की अलख जगानी शुरू कर दी। सूफ़ी साहब की किताब बाग़ी मसीहा अंग्रेज़ों ने बैन कर दी।
एक नया अखबार शुरू किया गया- पेशवा। अंग्रेज़ों की सख्त निगाह थी इस पर तो फिर से गिरफ़्तारी का खतरा मंडराने लगा। ख़बर थी कि इस बार सरकार सीधे फाँसी देना चाहती है। तय हुआ कि देश छोड़ दिया जाए फ़िलहाल। 1908 के अंत में अजीत सिंह ने सूफ़ी अम्बाप्रसाद, ज़िया-उल-हक़ और हरकेश लाठा के साथ भारत छोड़कर ईरान जाने का फ़ैसला किया।[v]
ईरान में भी उन्होंने एक अखबार शुरू किया- आब-ए-हयात और ईरान के स्वाधीनता संघर्ष में शामिल हो गए। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जब राजा महेंद्रप्रसाद, लाला हरदयाल आदि के साथ बर्लिन कमेटी के तहत भारत को आज़ाद कराने की कोशिश कर रहे थे।
जब खतरा बढ़ा तो अजीत सिंह ने ईरान छोड़ने का फ़ैसला किया लेकिन सूफ़ी साहब वहीं रुक गए।
शहादत
1915 में जब अंग्रेज़ों ने ईरान पर क़ब्ज़े की कोशिश की तो सूफ़ी ईरान के शिराज़ शहर में थे। उन पर तो अंग्रेज़ों की नज़र पहले से ही थी तो एक रोज़ उन्हें हथियारबंद सैनिकों ने घेर लिया। सूफ़ी साहब एक हाथ से बंदूक चलाते उनका मुक़ाबला करते रहे। लेकिन कहाँ बर्बर सैनिकों का झुंड और कहाँ अकेले सूफ़ी अम्बा प्रसाद। आखिर में वे उनके हाथ पड़ ही गए और तय हुआ कि अगले दिन उन्हें गोली मार दी जाएगी।
अगले दिन जब सैनिक उन्हें लाने गए थे तो जेल में सिर्फ़ उनकी देह थी, प्राण-पखेरू उड़ चुके थे।
हिंदुस्तान में तो अब उनके कोई निशानात नहीं मिलते लेकिन ईरान ने उनका एक सुंदर स्मारक बनाया था। हालाँकि वक़्त के साथ अब वहाँ भी उसके भी निशान नहीं मिलते।
स्रोत संदर्भ
[i]पेज 129, इंडिया एज आई न्यू इट, माइकल ओ’ ड्वायर, , कांस्टेबल एंड कंपनी लिमिटेड, लंदन-1925
[ii] पेज 141-142, सेडिशन कमेटी रिपोर्ट-1918, सुपीरिटेंडेंट, गवर्नमेंट प्रिंटिंग, कलकत्ता-1918
[iii] पेज 118, युगद्रष्टा भगत सिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे, वीरेंद्र सिन्धु, राजपाल एंड संज, दिल्ली-2019
[iv] तीसरा अध्याय, बरीड अलाइव, सरदार अजित सिंह
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री