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‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ और संघी एजेंडे का प्रचार

हिदी के प्रख्यात कथाकार असग़र वजाहत ने आज से लगभग 12 साल पहले एक नाटक लिखा था, ‘गोडसे@गांधी.कॉम’। नाटक इस दौरान कई बार खेला भी गया और कई अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। नाटक में गांधी और गोडसे के बीच संवाद की कल्पना की गयी है जिससे ऐसा कोई भी व्यक्ति जो फासीवाद के चरित्र को जानता और समझता है, कभी सहमत नहीं हो सकता। संवाद में यकीन रखने वाले निहत्थे लोगों पर गोली नहीं चलाते, दंगे नहीं कराते और मस्जिद नहीं गिराते। अभी 25 जनवरी को इस नाटक पर बनी फ़िल्म ‘गांधी-गोडसे एक युद्ध’ प्रदर्शित हुई है और इसके साथ ही इसको लेकर विवाद भी खड़ा हो गया है।
फ़िल्म हिंदी सिनेमा के एक लोकप्रिय फ़िल्मकार राजकुमार संतोषी ने बनायी और निर्देशित की है। ‘गांधी-गोडसे एक युद्ध’ असग़र वजाहत के इसी नाटक ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ पर आधारित है। इसकी पटकथा स्वयं संतोषी ने लिखी है और संवाद लेखन में संतोषी और असग़र वजाहत के नामों का उल्लेख है। स्पष्ट है कि फ़िल्म में नाटक से अलग जो भी बदलाव किये गये हैं, उससे लेखक की भी सहमति रही होगी।
गांधी और गोडसे दोनों ऐतिहासिक पात्र हैं। नाथुराम गोडसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध रहा था और हिंदू महासभा का सदस्य था। 30 जनवरी 1948 को जब महात्मा गांधी प्रार्थना सभा में उपस्थित थे, नाथुराम गोडसे ने उनकी छाती पर तीन गोलियां दागकर उनकी हत्या कर दी थी। नाटक और फ़िल्म दोनों का संबंध इस घटना से है।

कहानी

फ़िल्म की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। यह मानते हुए कहानी गढ़ी गयी है कि अगर नाथुराम गोडसे की गोलियों से गांधीजी की मृत्यु नहीं हुई होती तो क्या होता। नाटक और फ़िल्म में यही होता है। ऑपरेशन के बाद उनके शरीर से गोलियां निकाल ली गयीं और कुछ दिनों बाद वे पूरी तरह से ठीक हो गये।
गांधीजी जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल आदि नेताओं के सामने कांग्रेस को भंग करने का प्रस्ताव करते हैं। उनके बीच तर्क-वितर्क होता है। नेहरू आदि नेता कहते हैं कि फैसला हम नहीं ले सकते, कांग्रेस कार्यसमिति ही ले सकती है। वहां प्रस्ताव रखा जाता है और गांधी जी के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया जाता है।
इस बीच गांधीजी जेल में नाथुराम गोडसे से मिलने जाते हैं और उसे बताते हैं कि उन्होंने उसे माफ कर दिया है और ऐसा उन्होंने अदालत को लिखकर भी दे दिया है। गोडसे गांधीजी की बात से प्रभावित नहीं होता।
नेहरू आदि कांग्रेस नेताओं से खिन्न होकर गांधी जी ग्राम स्वराज की अपनी संकल्पना को साकार करने के लिए बिहार चले जाते हैं। वहां वे स्वयंभू और स्वतंत्र राज्य की स्थापना करते हैं जिसकी अपनी सरकार होती है, अपनी पुलिस होती है और अपना न्यायालय होता है। स्वाभाविक है कि उनके इस ‘ग्राम स्वराज’ की टक्कर देश पर शासन करने वाली सरकार से होती है और इस टकराव का परिणाम यह होता है कि नेहरू के आदेश से गांधी जी को ‘देशद्रोह’ के अपराध में जेल में बंद कर दिया जाता है। गांधी मांग करते हैं कि उन्हें उसी जेल में और उसी वार्ड में रखा जाये जिसमें नाथुराम गोडसे को रखा गया है। गांधी जी उसी वार्ड में पहुंच जाते हैं और एकबार फिर से गांधी और गोडसे के बीच कथित संवाद शुरू होता है।
फ़िल्म की इस कहानी के समानांतर सुषमा और नवीन नामक दो युवाओं की कहानी भी चलती है जो आपस में प्रेम करते हैं।
सुषमा एक स्वंतत्रता सेनानी की बेटी है और उसका स्वप्न है कि वह गांधी जी के साथ रहकर देश-सेवा करे। गांधी जी दोनों को अपने साथ रखने से इन्कार कर देते हैं। नतीजतन नवीन को लौट जाना पड़ता है। गांधी दोनों के साथ रहने के ही नहीं उनके प्रेम के भी विरुद्ध हैं। वे यह भी नहीं चाहते कि वे आपस में किसी तरह का संपर्क भी रखें।
इस बीच गांधीजी नाथुराम गोडसे से हिंदू राष्ट्र, अखंड भारत, भारत की सांस्कृतिक परंपरा आदि पर कई सवाल करते हैं। उनके किसी भी सवाल का जवाब गोडसे नहीं दे पाता। नाथुराम गोडसे दावा करता है कि वह भगवद्गीता को महान ग्रंथ मानता है। गांधी भी गीता में बहुत विश्वास करते थे। गांधी ने गीता की अहिंसावादी व्याख्या भी की थी जबकि नाथुराम गोडसे उससे युद्ध की प्रेरणा लेता है। वह कहता भी है कि धर्म के मार्ग पर चलकर ही अर्जुन अपने ही सगे-संबंधियों से युद्ध लड़ता है। गांधी कहते हैं कि उन्होंने युद्ध के मैदान में युद्ध लड़ा था, जबकि तुमने तो प्रार्थना सभा में एक निहत्थे पर गोली चलायी थी। नाथुराम गोडसे गांधी की इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाता।
गांधी के प्रेम विरोधी विचारों के कारण सुषमा को जिस मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है, उसी वजह से एक रात स्वप्न में गांधी को कस्तूर बा  दिखायी देती है जो उन्हें बात के लिए दोषी ठहराती है कि उन्होंने मुझे ही नहीं अपने संपर्क में आने वाले हर स्त्री-पुरुष को दुख दिया है। उन्होंने जयप्रकाश नारायण और प्रभावती के जीवन को बर्बाद कर दिया। अपने ही बेटे देवदास और लक्ष्मी को कष्टों और यातनाओं से गुजरना पड़ा। कस्तुरबा और भी कई नाम लेती है। गांधी कस्तूर बा  के किसी आरोप का जवाब नहीं दे पाते। कस्तूर बा यह भी आरोप लगाती है कि गांधी जी कमजोर को दबाते हैं और ताकतवर से डरते हैं। सुभाष और अंबेडकर से इसी वजह से डरते थे।
सपने में ही सही कस्तूर बा  के डांटने-डपटने से भी गांधी विलचित नहीं होते। तब नाथुराम गोडसे उद्धारक बनकर उपस्थित होता है। सुषमा को रोते देख नाथुराम गोडसे उसके रोने का कारण पूछता है तो सुषमा की मां निर्मला बताती है कि गांधी सुषमा को नवीन से मिलने नहीं देते जबकि वे दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं। नाथुराम उनकी बात सुनकर गांधीजी के पास जाता है और उनको खरी-खोटी सुनाता है। उन्हें प्रेम का दुश्मन बताता है। गांधी के पास नाथुराम गोडसे की आलोचना का जवाब नहीं होता और वे यह तय करते हैं कि सुषमा और नवीन को अलग रखना ठीक नहीं है और अपने सचिव प्यारेलाल को कहकर नवीन को बुला लेते हैं और दोनों की शादी करवा देते हैं। इस तरह गोडसे के कारण गांधी का हृदय परिवर्तन हो जाता है।
नाथुराम गोडसे गांधीजी पर आरोप लगाता है कि वे अपनी मर्जी दूसरों पर थोपते रहते हैं। जब कांग्रेस की 12 राज्य समितियों ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में वोट दिया था और केवल तीन ने नेहरू के समर्थन में, तब भी आपने पटेल की जगह नेहरू को प्रधानमंत्री बनवा दिया। देश को आज़ादी कांग्रेस की वजह से ही नहीं मिली थी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद आदि के बलिदान से मिली थी, लेकिन आपने कभी उनके बलिदान को महत्व नहीं दिया। आपने पाकिस्तान जो हमारा शत्रु है उसको 55 करोड़ दिलवा दिये। गांधीजी इन सबका जवाब यह देते हैं कि उनके अपने लोग ही उनकी नहीं सुनते। नाथुराम गोडसे यह भी दावा करता है कि जब उसने गांधी जी को गोली मारी थी उससे पहले उनके पांव इसलिए छुए थे क्योंकि देश को आज़ाद कराने के लिए उनके संघर्ष के प्रति उसके मन में सम्मान था।
फ़िल्म इस बात का संकेत देती है कि गांधी जी की हत्या की कोशिशें बंद नहीं हुई थी, राजे-रजवाड़े अब भी कोशिश कर रहे थे, उनको मरवाने की। इसी कोशिश में गांधी पर एक बार फिर जेल में हमला होता है लेकिन इस बार नाथुराम गोडसे उनको बचा लेता है। इस तरह गांधी की हत्या का जो अपराध गोडसे ने किया था, इस काल्पनिक कहानी में गोडसे गांधी को बचाकर पाप मुक्त हो जाता है। इसके बाद दोनों ही- गांधी जी और नाथुराम गोडसे एक साथ जेल से छूटते हैं। बाहर एक तरफ गांधी जी के समर्थक हैं और दूसरी तरफ गोडसे के समर्थक। उनके हाथ में गांधी और गोडसे ज़िंदाबाद के प्लेकार्ड हैं। दोनों तरफ की भीड़ अपने-अपने नेता के ज़िंदाबाद के नारे लगाती हैं। दोनों तरफ की भीड़ के बीच से गांधी और गोडसे एक साथ आगे बढ़ते हैं और पीछे गोडसे ज़िंदाबाद का प्लेकार्ड चमकता है। इसके साथ ही फ़िल्म समाप्त हो जाती है।

कल्पना में खुराफ़ात

यह सही है कि यह फ़िल्म काल्पनिक कथा पर आधारित है। लेखक ने इस काल्पनिक विचार को सामने रखते हुए अपनी कहानी गढ़ी है कि गोडसे की गोली से यदि गांधी नहीं मरते तो क्या होता और अगर गांधी और गोडसे जेल में एक साथ रहते तो उनके बीच किस तरह का संवाद होता। लेखक कुछ भी कल्पना करने और लिखने के लिए स्वतंत्र है और यही बात फ़िल्मकार पर भी लागू होती है। फ़िल्मकार भी अपनी सोच और कल्पना के अनुसार फ़िल्म बना सकता है। लेखक और फ़िल्मकार की स्वतंत्रताओं का सम्मान भी किया जाना चाहिए। लेकिन यह प्रश्न ज़रूर उठता है कि कहानी कितनी भी काल्पनिक क्यों न हो, यदि आप ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को आधार बनाकर अपनी कल्पना प्रस्तुत करते हैं तो यह सवाल तो जरूर पूछा जायेगा कि आपने उनके साथ किस हद तक और किस वजह से छूट ली है और ठीक इसी समय आप फ़िल्म क्यों बना रहे हैं। कोई भी रचना, कोई भी फ़िल्म समय-निरपेक्ष नहीं होती।
दर्शक फ़िल्म को अपने समय से जोड़कर देखेगा ही। यही नहीं वह यह भी जानना चाहेगा कि क्या यह महज संयोग है कि आज़ादी के आंदोलन और विभाजन के हिंदुस्तान की जो व्याख्या यह फ़िल्म पेश करती है, वह ठीक वही क्यों है जिसे संघ परिवार शुरू से पेश करता रहा है। आज जब गोडसे को देशभक्त मानने वाले और उसे अपना नायक मानने वाले सत्ता में बैठे हैं या जिन्हें सत्ता का संरक्षण प्राप्त हैं, ठीक उस समय आपकी फ़िल्म भी गोडसे को देशभक्त और नायक बनाकर क्यों पेश कर रही हैं।
गोडसे को फ़िल्म में आरंभ से ही एक साहसी नायक की तरह पेश किया गया है। जबकि वह एक कायर व्यक्ति था। सावरकर जैसे सांप्रदायिक फासीवादी व्यक्ति का अंधभक्त था, जिन्होंने जेल से छूटने के लिए अंग्रेजों से बारबार माफी मांगी थी और जेल से छूटने के बाद जिसने हमेशा अंग्रेजों का साथ दिया था। जब नाथुराम गोडसे ने गांधीजी पर हमला किया था, उसके बाद वह वहां से भागने की कोशिश करने लगा। लेकिन वहां मौजूद लोगों ने उसे पकड़ लिया तब उसने अपने को मुसलमान बताया। ताकि गांधी की हत्या का इल्जाम मुसलमानों पर आये और देश में दंगे भड़क उठें। लेकिन फ़िल्म में बताया गया है कि वह भागा नहीं बल्कि दोनों हाथ ऊपर करके वहीं खड़ा रहा।
एक साहसी व्यक्ति की तरह जैसे भगत सिंह नाटक में सावरकर का उल्लेख कई बार आता है हालांकि वहां भी उनकी आलोचना करने से यथासंभव बचा गया है। लेकिन फ़िल्म में तो सिर्फ एकबार जिक्र आता है और वह भी सिर्फ इतना कि गोडसे के आदर्श सावरकर हैं। नाटक में गांधी गोडसे से पूछते हैं कि सावरकर तो स्वयं हिंदू और मुसलमान को दो अलग राष्ट्र मानते थे और इसलिए विभाजन के पक्षधर थे, तब मुझे क्यों विभाजन का दोषी बता रहे हो। लेकिन यह प्रसंग फ़िल्म से गायब है। क्या यह इसलिए नहीं है ताकि सावरकर भक्त इस सरकार के कोप से बचा जा सके बल्कि सावरकर की जो छवि संघ परिवार निर्मित करता रहा है, उस पर खंरोच तक न आये।
नेहरू सरकार द्वारा गांधी जी को देशद्रोह के अपराध में जेल भिजवाने की आधारहीन कल्पना क्या यह बताने के लिए नहीं है कि आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जो कांग्रेस सरकार बनी वह दरअसल गांधी जी के विचारों की विरोधी सरकार थी और अगर सचमुच गांधी जी जीवित होते तो वह इस सरकार के विरुद्ध आंदोलन करते और उनका वही हश्र होता जो नाटक में दिखाया गया है यानी देशद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिया जाता। इसके विपरीत सच्चाई यह है कि नेहरू चाहते थे कि अंग्रेजों के जमाने का देशद्रोह का कानून समाप्त कर दिया जाय लेकिन पटेल इसके पक्ष में नहीं थे।
यही नहीं गांधी को गिरफ्तार करने के अपराध में केवल नेहरू को नहीं बल्कि अंबेडकर को भी जिम्मेदार बताया गया है जो नेहरू पर दवाब डालते हैं कि गांधी जी के विरुद्ध कानून के अनुसार कार्रवाई की जाये। नेहरू के संदर्भ में देशद्रोह का उल्लेख भी अनायास नहीं है। पिछले आठ साल में इस कानून का सबसे ज्यादा इस्तेमाल मोदी सरकार ने किया है और आज भी इस कानून के तहत कई लोग निरपराध होकर भी जेलों में बंद है। लेकिन यह फ़िल्म देशद्रोह का ठीकरा भी नेहरू के सिर फोड़ती है ताकि लोगों के बीच संदेश यह जाय कि इस कानून को सबसे पहले लागू नेहरू और कांग्रेस ने किया और वह भी गांधी के विरुद्ध।
कांग्रेस को भंग करने वाले प्रसंग का मकसद भी यह बताना है कि नेहरू सहित कांग्रेस के सभी नेता देशभक्त नहीं सत्ता-लोभी थे। नाटक में भी और फ़िल्म में भी दिखाया गया है कि आज़ादी के बाद कांग्रेस जनता का शोषण और उत्पीड़न करने में लग गयी थी और जब गांधीजी ने आवाज़ उठायी तो उन्हें जेल में ठूंस दिया गया। इसके विपरीत गोडसे अपने अखबार द्वारा कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों और कार्रवाइयों का विरोध कर जनता में जागरूकता पैदा कर रहा था। वह लगातार लिखकर सरकार की खबर ले रहा था और उसके लेखने से नेहरू आदि नेता भी घबराये से रहते थे यानी कि गोडसे सच में एक जननायक था। एक सच्चा देशभक्त जो जेल में बैठा-बैठा सरकार की जड़ें हिला रहा था।
लेकिन सच्चाई यह थी कि गांधी जी की हत्या के बाद एक पार्टी के तौर पर हिंदू महासभा लगभग समाप्ति के कगार पर पहुंच गयी थी। आरएसएस को प्रतिबंध के बाद लिखकर देना पड़ा था कि वह एक सांस्कृतिक संगठन है और उसका राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जब आरएसएस ने एक राजनीतिक दल के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी तो लगभग दो दशकों तक उनको नगण्य सा जनसमर्थन प्राप्त था। लेकिन अंध कांग्रेस विरोध के चलते समाजवादियों ने उन्हें सत्ता के नजदीक तक पहुंचा दिया था। इतिहास की इन सच्चाइयों के विपरीत गोडसे को राजनीतिक रूप से एक सजग और सक्रिय नेता के रूप में दिखाना इतिहास का विकृतिकरण है। और नाटक में तो लेखक ने उन्हें लगभग गांधी की तरह उसे लोकप्रिय बताया है जिसके पास ढेरों चिट्ठियां आती हैं। उसे औरतें स्वेटर बुनकर भेजती हैं।
गोडसे के विपरीत गांधीजी का व्यक्तित्व जो फ़िल्म में चित्रित किया गया है वह एक सनकी, अपनी इच्छाएं दूसरे पर थोपने वाला, स्त्री-विरोधी व्यक्ति है। इतिहास में गांधीजी के जो सबसे बड़े योगदान थे, उन्हें फ़िल्म हाशिए पर भी याद नहीं करती। आज़ादी के आंदोलन में व्यापक जनभागीदारी गांधीजी के प्रयत्नों से शुरू हुई थी। एक फकीर की तरह रहने का वरण गांधी ने इसलिए किया था कि देश के गरीब से गरीब लोग अपने को गांधी से जोड़ सके। यह उनकी लोकप्रियता ही थी कि उनकी शवयात्रा में दस लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए थे और हिंदू सांप्रदायिक उन्मादियों को छोड़कर जिन्होंने गांधी की हत्या पर लड्डू बांटे थे, सारा देश आंसू बहा रहा था।
इन्हीं गांधीजी ने कांग्रेस को सदैव एक ऐसी पार्टी बनाये रखने के लिए काम किया जो देश के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करे। हिंदू का भी, मुसलमान का भी, सिख का भी ईसाई का भी। हर भाषा-भाषी का भी हर जाति और धर्म वाले का भी। यह गांधी ही थे जिन्होंने औरतों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने का आह्वान किया था और उनके आह्वान पर हजारों-हजार औरतें घर की चारदीवारी लांघकर सड़कों पर निकल आयी थीं।गांधी जी ने सदैव हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के लिए काम किया और सांप्रदायिकता के विरुद्ध अपनी जान-जोखिम में डालकर भी जीवन के अंतिम क्षण तक संघर्ष किया।
गांधीजी ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा दलितों के उत्थान में, उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने में लगाया। लेकिन यह सब फ़िल्म से गायब है।इसकी बजाय बकरी का दूध पीने वाले, ब्रह्मचर्य को सबसे बड़ा मूल्य मानने वाले, स्त्री-पुरुष प्रेम का सनक की हद तक विरोध करने वाले और अपनी इच्छाएं दूसरों पर थोपने वाले गांधी ही फ़िल्म में दिखते हैं। यानी गांधी के जीवन में जो बातें हाशिए पर थीं, उनसे ही गांधी का चित्र उकेरा गया है। फ़िल्म में नाथुराम गोडसे में ऐसी कोई सनक या बुराई नहीं है। जबकि नाथुराम गोडसे का जिस विचारधारा और भारतीय संस्कृति की जिस रूढ़िवादी परंपरा से संबंध था, उसमें प्रेम और उदारता के लिए कोई जगह नहीं थी और न आज है।
दरअसल यह पूरी फ़िल्म संघ परिवार के राजनीतिक एजेंडे का जाने-अनजाने अनुसरण करती है। कांग्रेस और नेहरू के प्रति जो नफरत संघ परिवार व्यक्त करता रहा है, फ़िल्म उस नफरत को बढ़ाने में ही योग देती है। फ़िल्म पूरी दृढ़ता से यह स्थापित करती है कि नाथुराम गोडसे एक साहसी और सच्चा देशभक्त था। गांधी की हत्या उसने जरूर की जिसके लिए उसे माफ कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि गांधी जी ने तो उसे माफ कर दिया था। लेकिन अगर गांधी जिंदा रहते तो नाथुराम गोडसे नेहरू और कांग्रेस से कहीं ज्यादा गांधी के नजदीक होता और शायद उनका प्रिय भी।
दरअसल यह फ़िल्म गांधी को संघ परिवार में समायोजित करने, नेहरू और कांग्रेस को खलनायक बताने और गोडसे को महान देशभक्त बताकर नायक के रूप में स्थापित करने के संघी अभियान को कामयाब बनाने की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम है। निश्चय ही यह फ़िल्म विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म कश्मीर फाइल्स की तुलना में ज्यादा चालाकी से और बेहतर ढंग से बनायी गयी है। कलाकारों से काम भी बेहतर ढंग से लिया है। लेकिन सोने की प्याली में रखा गया जहर अमृत नहीं हो जाता।
  • इसी मुद्दे पर यह वीडियो रिव्यू भी देख सकते हैं।

Jawari Mal Parakh

जवरी मल पारख हिन्दी के जाने माने आलोचक और फिल्म विशेषज्ञ हैं।

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