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पूजा नायकों की नहीं विचारों की होनी चाहिए : बाबा साहब अंबेडकर

बाबा साहब के जन्मदिन पर युवा छात्र प्रमोद प्रखर ने उन पर यह लेख लिखा है। क्रेडिबल हिस्ट्री पर हम इस युवा लेखक का स्वागत करते हैं- सं

कार्ल मार्क्स लिखते हैं कि –’ विचारकों ने महज दुनिया की व्याख्या कि हैं कि जबकि असल सवाल दुनिया को बदलने का है।’ विचारों के लिए खड़ा होना जितना मुश्किल होता हैं,उससे अधिक दुश्वार विचारों को लेकर समाज की गहराई में जाना होता हैं और यह सबसे मुश्किल तब होता हैं विचारक और विचारों का सफर सबसे‌ निचले तल से शुरू हो।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर भारतीय इतिहास के सबसे अनूठे सफर का नाम है।उनके‌ विचार किसी लाइब्रेरी में धूल सनी किताबों में क़ैद नहीं हैं बल्कि नीले आसमां के तले गली, गुवाड़ से लेकर जनपथ तक पूरी धमक के साथ विचरते हैं। अपने समय में सबसे पढ़े-लिखे लोगों में एक, अर्थशास्त्री, संस्कृत के प्रकांड विद्वान, सफल वकील, राजनेता, अद्भुत शोधार्थी और विद्वान लेखक होने के साथ-साथ जिस ‘बाबा साहेब’ की जिस सम्माननीय संज्ञा के साथ याद किया जाता है,वह इतिहास विरले लोगों को हासिल हुआ है।

कबीरपंथी अछूत परिवार में पैदा होने वाले एक व्यक्ति का बुद्ध और कबीर की परम्परा के सबसे सशक्त प्रतीक-चिन्ह बन जाने की कहानी जितनी रोचक हैं, उससे कहीं ज्यादा संघर्षों, सफलताओं और प्रेरणाओं की बानगी है।

सूबेदार का बेटा होने के बाद भी पड़ोसी बच्चों के साथ खेलने की मनाही है। ठीक-ठाक आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद भी नाई बाल काटने से मना करता हो।‌ विद्यालय में प्रवेश इस शर्त के आधार पर मिला कि और बच्चों के जूतों के पास बैठकर पढ़ना होगा। पानी के लिए पूरे दिन प्यासा रहना पड़ता हो। यह सिर्फ इसलिए हैं कि क्योंकि आप जिस व्यवस्था का हिस्सा हैं, उसमें आपकी हैसियत एक नीच जाति के सदस्य होने के सिवाय कुछ भी नहीं है।‌

आपके स्पर्श मात्र से‌ व्यक्ति और‌ वस्तुएं अपवित्र हो जाती है। सबसे कठिन और श्रमयुक्त काम करने के बाद भी आपका समाज और अर्थ में रेखांकन शून्य है। बालक भीम को यह बात खटकती तो होगी।मन में अपमान और ग्लानि का भाव तो आता ही होगा। मगर इन सबके बावजूद अंबेडकर पढ़ना नहीं छोड़ते, बल्कि कभी-कभार शिक्षक से जाति और पढ़ाई के सवाल पर झगड़ पड़ते हैं।

यह अंबेडकर की विशेषता हैं कि वो जीवन में बहाने नहीं तलाशते और‌ ना ही बेवजह सवाल खोजते हैं,उनका ध्येय बस जवाब पाने के लिए डट जाना हैं।

तभी घर से टाट-पट्टी ले जाकर पढ़ने वाला बच्चा आगे निकलता हैं, और इतना आगे निकलता कि अपने समय के तमाम सुविधासंपन्न एवं गॉडफादर्स के बल पर मचलने वाले लोगों में शिक्षा,शोध और चिंतन – तीनों दृष्टिकोणों में सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़े मिलते हैं।

जाति के सवाल पर बचपन से लेकर महाराजा गायकवाड़ के दरबार में उच्च अधिकारी होने के बाद तक झेली गई कष्टसाध्य यातनाएं, “जाति-विनाश” के विचार के साथ बाहर आती है।

मैट्रिक में जाति की वजह से संस्कृत की शिक्षा से वंचित कर दिया गया।  भीमराव जब अपनी किताब ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ में जब संस्कृत-धर्मशास्त्रों से चुन-चुनकर श्लोकों को अर्थ सहित रखते हैं, तो संस्कृत-विद्वान न केवल दांतों तले अंगुली दबाते हैं बल्कि किसी में इतना साहस नहीं होता कि अंबेडकर से शास्त्रार्थ की चुनौती स्वीकार करें और पराजित करें। यह सब इसलिए है कि अंबेडकर सवालों के जवाब खोजने में मेहनत करने के साहस का नाम हैं। ‘धोरों में उगते गुलाब’ की कविता अंबेडकर के जीवन पर लागू होती है।

समाज के प्रति अद्भुत समर्पण

समाज के लिए समर्पण ऐसा कि जो इंसान किसी विदेशी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो सकता था, कहीं का बड़ा आला अफसर हो सकता था। सारे‌ लालचों को छोड़कर सारी उम्र जातिवाद और छूआछूत की गंदगी को मिटाने और समाजोत्थान को समर्पित कर दी।

समाज के लिए प्याऊ बनाकर समाजसेवक होने की उपमा पाकर खुश होते लोगों को शायद ही पता हो कि पानी पीने के अधिकार के लिए 20 मार्च, 1927 ई० को महाड़ तालाब तक पहुँचने और वहाँ पानी पीने के लिए कितने साथियों के साथ लाठी-डंडों की मार उस व्यक्ति ने सही होगी, जिसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी के जॉन डीवे अपनी आंखों का तारा और भारत का भविष्य बताया करते थे।

यह संघर्ष की शक्ति शायद उसी दुत्कार से आई, जो अंबेडकर ने बचपन से झेला। जहां लोग उपेक्षित होकर निर्बल बनते हैं, वहीं अंबेडकर इसी उपेक्षा और नकारात्मकता की चोट खाकर दुगुनी ताकत के साथ उसी पथ पर वापस खड़े हो जाते हैं।

यहीं डॉ.भीमराव अम्बेडकर की असल ताकत हैं,जो रूढ़ियों और धर्म के गहरे अंत:संबंधों की गहरी समझ के बाद भी उन्हें ‘कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन’ के लिए प्रेरित करती हैं। इसी आंदोलन में बाधाएं पार करते हुए, अंततः सफलता पा लेने के बाद अंबेडकर अपने लोगों से मुखातिब होते हुए कहते हैं कि – ‘हमें विचार करना होगा कि हमारी असल ज़रूरत क्या है ?’

अंबेडकर बताने में नहीं बल्कि प्रयोगशाला में प्रयोग दिखाकर सिद्ध करते हैं कि धर्म स्थानों के प्रवेश-अधिकार से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण शिक्षा का अधिकार हैं, क्योंकि शिक्षा शेरनी का दूध हैं,जो पीएगा,वो दहाड़ेगा। डॉ. अंबेडकर का पूरा जीवन इस पंक्ति स्वत: ही चरितार्थ करता हैं। स्वराज से कहीं ज्यादा जाति विनाश को महत्व देने वाले अंबेडकर देश भी उतना ही प्यार करते हैं।

यहीं कारण कि गांधी और टैगोर अपने पत्राचार में देश के मुकद्दर गढ़ने वालों की आंखों में जिस नूर की बात करते हैं, वो देश के तत्कालीन समय में अंबेडकर के पास दिखता है। तमाम विषयों पर गांधी और नेहरू से मतभेद होने के बाद भी अंबेडकर न‌ केवल संविधान सभा में पहुंचते हैं, बल्कि जिस पुरानी व्यवस्था को मिटाने के नाम पर ‘मनुस्मृति’ को उन्होंने जलाया, उसके स्थान पर नई व्यवस्था के नियम-क़ायदे बनाने की जिम्मेदारी भी लेते हैं।

यह दिखाता है कि आंदोलन पुराने को मिटाने का नाम नहीं बल्कि नया गढ़ने का सिलसिला है। विद्रोही होने का मतलब विध्वंसक होना नहीं, वरन् विधायक होना है। जिसके लिखे संविधान की मूल भावना ‘समता’ की है। दुनिया का सबसे बड़ा संविधान उस व्यक्ति ने रचा जो दुनिया के सबसे प्रताड़ित वर्ग से आता हैं, और बावजूद इसके उसमें कहीं किसी के प्रति द्वेष नहीं दिखता, बदलें की भावना वाले नियम नहीं दिखते बल्कि पूरा का पूरा ढांचा ही राष्ट्रीय एकता और समानता के आधार पर खड़ा नजर आता है। यहीं उदारता और वक्त से बहुत आगे  कि सोच डॉ. भीमराव अम्बेडकर को लोगों का ‘बाबा साहेब’ बनाती है।

स्वाभिमान ऐसा कि जिस व्यवस्था को स्वयं रचा और जिसकी पहली सरकार में कानून-मंत्री बनें, उसी को स्वयं इस्तीफा देकर तब ठुकरा देते हैं,जब महसूस करते हैं कि वो नहीं हो रहा,जो होना चाहिए।

अंबेडकर अपने समाज के अभिभावक हैं,जो कभी किसी भाषण में समाज को समझाते नजर आते हैं कभी शराबियों को डांटते-डपटते दिखते हैं। वो भावुक होते-होते प्रताड़ितो को इतना तक कह देते हैं कि ‘तुम्हारे इस जीने से बेहतर कि तुम मर जाओ। यह तुम्हारा समाज पर एक अहसान ही होगा‌।‘ मगर इसमें घृणा का भाव नहीं हैं।

अंबेडकर हताश नहीं हैं, बल्कि वो समाज के सोये हुए पौरूष को जगाने की भरपूर चेष्टा कर रहें हैं और यह बाबा साहेब के विज़न और दूर-दृष्टि का ही परिणाम हैं कि हजारों सालों से दमित समाज की बेटी आज उनके रचे हुए लोकतंत्र के सबसे बड़े पद पर विराजती हैं।

संघर्षरत अंबेडकर

अंबेडकर जाति से लड़ते हैं,धर्म से लड़ते हैं और अपने वक्त तमाम बड़े लोगों मसलन – महात्मा गांधी और नेहरू के सामने इसलिए नहीं झुकते कि वे राष्ट्रीय-आंदोलन के केंद्र बिंदु हैं, बल्कि पलटकर पूछते हैं कि ‘इसमे़ दलितों का हिस्सा कहाँ है ?’ और यहीं सवाल का साहस और उत्तर के लिए परिश्रम अंबेडकर को तत्कालीन समय में तमाम टिमटिमाते चेहरों में सबसे चमकदार बनाता हैं,जिसकी चमक में देश की जम्हूरियत आज अपने अमृतकाल का सफर तय कर रही है। ऐसी व्यवस्था जहाँ चेतना के एक स्तर पर व्यक्ति जातिवाद को ग़लत पाता होगा और अगली पीढ़ी के लिए शिक्षा के महत्व को स्वीकार करता होगा।

 

अंबेडकर के जीवन के लिए बुद्धिजीवियों और सामान्य दोनों वर्गों में समान रूप से आदर का भाव रहा। यहीं कारण हैं, जहाँ एक ओर उनकी अंतिम यात्रा में एक विशाल जनसैलाब गीली आंखों और नंगे पैरों से हिस्सा ले रहा था ‌वहीं दूसरी ओर स्वनामधन्य संपादक आचार्य अत्रे जैसे विद्वान मराठा दैनिक के अग्र-लेखो में लगातार तेरह दिन तक श्रद्धांजलि अर्पित करते रहे।

 

अंबेडकर का जीवन, जो अपने माँ-बाप की चौदहवीं संतान के रुप में शुरू हुआ। छूआछूत के थपेड़े खाते हुए बड़े हु्ए, यूरोप और अमेरिका की उच्च शिक्षा से लेकर भारत की जमीं पर सबसे उपेक्षित और बिखरे वर्ग के लिए संघर्ष करते हुए कटा। निजी-जईवन में समस्याओं और दु:खों का भंवर कभी खत्म नहीं हुआ,मगर फिर भी वो कभी हताश नहीं हुए।समाज और राष्ट्र के लिए ताउम्र संघर्ष के पथ पर डटे रहे।

अध्ययन  का संस्कार यह कि अंतिम रात भी ‘बुद्ध और उसका धम्म’ की भूमिका लिखने में खर्च हुई। एक जीवन जिसकी हर घटना प्रेरणा हैं। ऐसा व्यक्तित्व जो विद्यार्थी से लेकर संविधान-निर्माता तक हर रूप से सामाजिक स्तर पर अनुकरणीय है। यहीं सब होना बाबा और साहबों के विरोधाभास से घिरे हुए वक्त में जुबां पर ‘बाबा-साहेब’ के समावेश को अनायास ही उतार देता हैं और सिर श्रद्धा से झुक जाता हैं,मगर दिमाग में घूम रहा होता हैं कि – पूजा नायकों की नहीं विचारों की होनी चाहिए।‘

 

Pramod Prakhar

दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र प्रमोद एक युवा लेखक और एक्टिविस्ट है।

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