भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुसलमान
आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस और मुसलमानों के रिश्ते को लेकर बहुत कुछ कहा जाता है। शांतीमोय रे ने अपनी किताब ‘Freedom Movement and Indian Muslims‘ में इस पर विस्तार से लिखा है। प्रस्तुत है उसी से एक अंश – सं
भारत के इतिहास लेखन में हमेशा ही मुसलमानों को बाहर से आये हमलावर और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के गद्दार के रूप में देखने की एक आम प्रवृत्ति है। जिसके बुनियाद दो कारण समझ में आते है पहला, भारत के इतिहास- लेखन पर औपनिवेशिक प्रभाव, दूसरा कारण है कि स्वाधीनता के बाद भारत के शासक वर्ग ने यह समझ लिया कि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका का सही-सही विश्लेषण करना, ब्रिटिश विरोधी संघर्ष को अनुमति देना होगा।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कई मुस्लिम तरक्कीपंसद नेताओं ने न केवल शिरक्त की, अध्यक्ष भी बने। हालांकि कांग्रेस में शामिल मुसलमानों को हिंदू राष्ट्रवादियों के प्रभाव में कहकर आलोचनाएं भी हुई।
बेशक ब्रिटिश प्राधिकारियों के प्रत्यक्ष संरक्षण में एक शिक्षित मुस्लिम बौद्धिक वर्ग उभरा वे उभरते हुए राष्ट्रवाद तथा कांग्रेस द्वारा रकी गई राष्ट्रीय मांगों के खिलाफ अंग्रेजों के सहयोगी भी बने। परंतु, एक बड़ा बौद्धिक वर्ग अपनी पूरी ताकत के साथ कांग्रेस के साथ भी खड़ा रहा।
राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन 23 दिसंबर 1885 को भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया, जब बबंई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। संवैधानिक आंदोलनों के इस दौर में, जिसे अधिक सही तौर पर नरम दलीय प्रभाव का दौर(1985-1905) कहा जाता है|
बदरुद्दीन तैयबजी (1887 में मद्रास सेशन में ) और रहमतुल्लाह सियानी (1896 में कलकत्ता सेशन में) जैसे प्रमुख मुसलमान कांग्रेस की सेवा के लिए आगे आए और उसके अध्यक्ष की कुर्सी सुशोभित किया।
बाद में नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर(1913 में कराची सेशन में), सैयद हसन इमाम(1918 बम्बई सेशन में), हकीम अजमत खान(1921 अहमदाबाद सेशन में), मौलाना मोहम्मद अली जौहर(1923 कोकनाड़ा सेशन में ), मौलाना अबुल कलाम आजाद(1923 दिल्ली के स्पेशल सेशन), ड़ा मुख्तार अहमद अंसारी(1927) मद्रास सेशन कांग्रस के सदर रहे।
मौलाना अबुल कलाम आजाद को दो बार भारतीय कांग्रेस का सदर चुना गया। पहली बार 1923 में जब वह केवल पैंतीस साल के थे और दूसरी बार 1940 में इस अवधि में कोई चुनाव नहीं हुआ, क्योंकि लगभग हर कांग्रेसी नेता भारत छोड़ों आंदोलन (1942) के कारण जेल में था।
मौलाना शिबली नोमानी जैसे कई मुस्लिम विद्वान और धार्मिक लोग कांग्रेस के पीछे दृढ़ता से खड़े होने में नहीं हिचकिचाए। तैयबजी, जो 1887 में कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में इसके अध्यक्ष चुने गए, अंजुमन-ए-इस्लाम के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुए थे। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने बेहद प्रभावी तरीके से यह तर्क दिया कि कांग्रेस से, जो राष्ट्र की उम्मीद की किरण थी, दूर रहना किसी भी महत्वपूर्ण समुदाय के लिए कितना अतार्किक था।
रहमतुल्लाह सियानी ने, कांग्रेस के 12 वें अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए थे कांग्रेस से शामिल होने के खिलाफ कट्टरपंथियों और अंग्रेजपरस्त मुसलमानो द्वारा रखे गए 17 बिंदुओं के तर्क का जोरदार खंडन किया था।[i]
इसके अलावा, एक धनी मुसलमान मीर हुंमायूं कामरान ने कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन के पांच हजार रुपयों का चंदा दिय था। बंबई के एक और प्रभावी मुस्लिम व्यापारी अली मोहम्मद भीमजी ने गांवों में कांग्रेस को लोकप्रिय बना ने के लिए अथक प्रयास किए।[ii]
ब्रिटिश सरकार का सांप्रदायिक माहौल बनाने का प्रयास
मौलाना राशिह अहमद गंगोई, मौलाआ सल्फुल्ला, मौला मोहम्द शिराजी जैने अनेक धार्मिक लोगों ने स्वयं को कांग्रेस के संवैधानिक आंदोलन ने एक देशव्यापी आंदोलन का रूप ले लिया। ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों को हिंदू राजनैतिक नेताओं के प्रभाव से अलग करने के लिए ढ़ाका के नवाब सलीमुल्लाह से मदद मांगी। उनके भड़कावे और दुष्प्रचार अभियान से पूर्वी बंगाल के कोमिला में सांप्रदायिक दंगों का माहौल बन गया।
ख्वाजा अतीकुल्लाह का जिक्र जरूरी है, जो ढ़ाका में नवाबी रियासत के साझीदार थे। उन्होंने घोषणा की- मैं अपने एकबारगी कह सकता हूं कि यह कहना गलत है कि पूर्वी बंगाल के मुसलमान बंगाल के विभाजन के पक्ष में हैं।
असल तथ्य यह है कि केवल कुछ मुसलमान नेता अपने निहित स्वार्थो के लिए इसका खूल के समर्थन कर रहे हैं। साथी ही, सेंट्रल मोहम्मडन एशोशिएसन की ओर से नवाब आसिर हुसैन के बंगाल के विभाजन की सरकारी योजना की न्यासंगतता को प्रश्नांकित करते हुए एक पत्र जारी किया था , जिसमें सैकड़ों लोगों के हस्ताक्षर थे।[iii]
बंगाल विभाजन के विरोध में मुस्लिम नेता
बंगाल विभाजन के विरोध आंदोलनों से, जिसे आमतौर पर स्वदेशी आंदोलन कहा जाता है, संबंद्ध सरकारी दस्तावेजों के अभिलेख सिद्ध करते हैं कि पूरे बंगाल में बड़ी संख्या में जनसभाएं आयोजित की गई। इन सभाओं में बड़ी संख्या में मुस्लिम जनता एकत्र हुई और मुस्लिम नेताओं ने भाषण दिए।
कलकत्ता के टाउन हाल में विभाजन के विरोध में 7 अगस्त 1905 को एक विशाल बैठक बुलाई गई थी और मुख्य प्रस्ताव का अनुमोदन मौलवी हसीबुद्दीन ने किया।
मुस्लिम मध्यवर्ग के एक हिस्से के कड़े रवैये और उसकी देश के विभिन्न हिस्सों, खासतौर पर महाराष्ट्र, पंजाब और तामिलनाडु से इसकी जिस स्तर की प्रतिक्रिया मिली उससे आंतकित होकर ब्रिटिश सरकार ने 1909 का संवैधानिक सुधार कानून(मार्ले-मिटों सुधार) के रूप में बढ़ती हिंदू-मुस्लिम एकता के व्यापक आधार को कमजोर करने के लिए एक सांप्रदायिक अधिनिर्णय प्रस्तुत किया। इस कानून ने संघर्ष विरोधी मुस्मिल अभिजात वर्ग को उत्फुल्ल कर दिया।[iv]
लेकिन उभरते हुए मुस्लिम बुद्धिजीवी संतुष्ट नहीं थे। उदार घड़े के नेता मोहम्हद अली जिन्ना अब भी कांग्रेस के सम्मानित नेताओं में शुमार किए जाते थे। इसी बीच पंजाब में भी औपनिवेशिक कानून, लैंड एलियनेशन एक्ट तथा रावलपिंडी जिले में जमीन के लगान में समान्य वृद्धि से सुलग रहा था।
एक पत्र में लाला लाजपत राय ने सरदार अजित सिंह तथा सैयद हैदर रजा का जिक्र आम गुस्से की आवाज के रूप में तथा जनता के विचार के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वालों के रूप में किया है, जिसे नजरअंदाज करना या जिसकी अवज्ञा करना पागलपन होगा।[v]
देशभक्त ताकतों को बांटने के लिए अंग्रेजों ने सीधे तौर पर सांप्रदायिक राजनीतिक पार्टियों की स्थापना को प्रोत्साहित किया। जबकि सुधार अभी भी तैयारी के चरण में थे, अंग्रेजों ने लगभग एक ही समय 1906 में दो सांप्रदायिक पार्टियों के गठन में हिस्सेदारी की- हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग।
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संदर्भ-स्त्रोत
स्रोत : Freedom Movement and Indian Muslims by Shantimoy Ray, NBT-Delhi
[i] भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुस्लिम अध्यक्षों के अप्रकाशित मोनोग्राफ, डां.जेड.ए.निज़ामी
[ii] डां. ताराचंद, खंड-|||, राष्ट्रीय आंदोलनेर क्षेत्र, प्रोवत गंगोपाध्याय
[iii] विभाजन का दस्तावेज, फ्रीडम मूवमेंट डीपाजिट, संख्या60
[iv]बंगाल अंडर द लेफ्टिनेंट जनरल, पेज 158,सी.एफ.बकलैंड, सुमित सरकार
[v] देखें, लाला लाजपत राय की किताब, द स्टोरी आंफ माई डिपोर्टेशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में