जन्मदिन विशेष – ज्योतिबा फुले
ज्योतिबा फुले को भारतीय समाज में दलित समाज के उत्थान का प्रथम चेतनाशील व्यक्तित्व कहना गलत नहीं होगा। उन्होंने शिक्षा के महत्त्व को अपने बालपन के दिनों में ही समझा था, जब उनके स्कूल जाने का विरोध और अपमान, उनको और उनके पिता गोंविदराव को झेलना पड़ा था। आज उनकी जन्मतिथि है…
पूर्वज और उनका गाँव
ज्योतिबा फुले के पूर्वज “फुले” उपनाम से नहीं जाने जाते थे। उनके परदादा चौगुला थे जो एक ग्राम सेवक का काम करते थे जो कि एक नीच कर्म माना जाता था। यह परिवार सतारा से पच्चीस मील दूर काटगुन में रहता था।
ये लोग मार्शल अर्थात लड़ाका थे और व्यवसाय से माली समाज के थे। इस समाज के एक संत “सावता माली” महाराष्ट्र के एक अन्य और बहुत प्रसिद्ध संत “नामदेव” के समकक्ष माने जाते है, जिनका मराठी संत साहित्य में बहुत बड़ा नाम है।
नए गाँव की ओर पलायन और कठिनाइयाँ
मेहनती और आत्मसम्मान से भरा हुआ ये परिवार सर उठाकर जीता था और अपना अपमान और अपने पर अन्याय बर्दास्त नहीं करता था। गाँव के एक कुलकर्णी ब्राह्मण से विवाद के कारण परिवार को वहाँ से हटकर एक नए गाँव “खानवाडी” बसना पड़ा। यह गाँव पूना जिले के पुरंदर तालुका में आता है।
नए गाँव में बहुत तकलीफों को झेलते हुए उन्होंने अपना जीवन फिर से शुरू किया और कुछ समय बाद उस परिवार में एक पुत्र का जन्म हुआ। नाम शेतिबा रखा गया जो स्वभाव से थोड़ा गैर-ज़िम्मेदार और कम समझने वाला था।
समाज में कई तरह के प्रतिबंध के कारण शेतिबा को सीखने समझने का मौका नहीं मिला और बुरी संगत में पड़कर फिजूलखर्च के चलते गरीब होता चला गया। तंगहाली मेंबेकारी से बचने के लिए परिवार गाँव छोड़कर पूना शहर आकर बसा।
शेतिबा का पूना आना और फूले उपनाम
शेतिबा अपनी तीन पूत्रों रनोजी, कृष्णा और गोविन्द के साथ पूना आकर अपनी जिंदगी बसर करने लगे। गरीबी और तंगहाली के कारण तीनों बच्चों को भी बचपन में काम-धंधे में जुटना पड़ा।
बच्चों के मेहनत और लगन देखकर उनके मालिक ने उन्हें फूलों का काम सिखाया और इस काम के गुर सिखाये। इस काम में इन बच्चों ने नाम कमाया और उनके हाथों से बने फूलों के सामान दूर-दूर तक मशहूर हो गए।
उस समय पेशवा ने भी उनकी कला देखी तो उन्हें अपनी निजी सजावट और फूलों के काम के लिए अपनी सेवा में रख लिया। इस तरह तीनों भाई फूलों का काम करने के कारण “फुले” कहलाने लगे और यह उपनाम हो गया।
गोविंदराव का अलग होना और ज्योतिबा का जन्म
समय बीतने के साथ इन तीन भाइयों में भी मतभेद उभरे और बड़े भाईयों राजोजी और कृष्णाकी को छोड़कर गोविंदराव को अलग होना पड़ा। गोविंदराव पड़ोसियों के खेत में सब्जियों उगाने लगा और दूकान लगाकर अपना गुजारा करने लगा।
गोविन्दराव ने चिमनबाई से विवाह किया। राजाराम और जोति दो पुत्रो का जन्म हुआ गोविन्दराव के घर। यहीं जोति, ज्योतिबा फूले बने। ज्योतिबा का जन्म 11 अप्रैल 1827 को हुआ, जन्म के एक साल बाद ही उनकी माता की मृत्यु हुई। गोविन्दराव ने दूसरी शादी नहीं की और स्वयं बच्चों का लालन-पालन किया। बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर ध्यान दिया।
स्कूल में भरती होना, पढ़ाई बंद और शादी, फिर स्कूल में दाखिला
उस दौर में अंग्रज सरकार ने 1836 में ग्राम पाठशालाओं की शुरुआत की थी। गोविंदराव ने अपने बेटे को ऎसी ही एक मराठी पाठशाला में भरती करवा दिया। उस समय ज्योतिबा की उम्र सात साल थी।
गोंविदराव को ज्योतिबा के पढ़ाने के निर्णय का काफी विरोध किया गया और अपमान किया गया। चार साल तक ज्योतिबा के स्कूल में पढ़ने का सिलसिला जारी रहा, तमाम अपमान और विरोध के बाद भी।
परंतु, लोगों ने गोंविदराव के मन में यह बात बैठा दी कि पढ़ लिखकर तुम्हारा बेटा क्या करेगा? करना तो उसे फूलों और बागवानी का काम ही है। इसलिए उसको इस काम में निपुण बनाओ। गोविंदराव पर इन बातों का असर हुआ और उन्होंने ज्योतिबा को स्कूल से निकाल दिया। बाल ज्योतिबा के अंदर ही अंदर एक क्रांतिकारी जन्म ले चुका था। कुछ समय बाद समाज के नियम-कायदे के अनुसार उनका विवाह आठ वर्ष की कन्या के साथ कर दिया गया। ज्योतिबा के अंदर पढ़ने की इच्छा कम नहीं हुई।
उनके अंदर के प्रतिभा को उनके पड़ोस के दो व्यक्तियों ने पहचाना। एक थे श्री गफ्पार बेग मुंशी जो दूसरे उर्दू और फारसी के शिक्षक थे और दूसरे थे श्री लेगिट जो संभवत: किसी सरकारि दफ्तर में कर्मचारी थे। इन दोनों ने गोंविदराव को ज्योतिबा को पढ़ाने के लिए कहा। गोविंदराब ने फिर से ज्योतिबा का दाखिला स्कूल में करवा दिया। ज्योतिबा फिर से स्कूल जाने लगे।
नए वैज्ञानिक और आधुनिक विचारों ने उनके जीवन के दिशाओं को नई गतिशीलता देना प्रारंभ किया। उन्होंने अंधविश्वास भरी मान्याताओं को पहचाना। ज्योतिबा ने जीवन में क्रांति के मशाल शिक्षा ही हो सकती है, यह समझ लिया।
इसलिए अपनी पूरी ताकत अपने दलित भाई-बहनों के उत्थान के लिए, उनको शिक्षित करने में लगा दिया। सर्वण समाज के पांखड़ों पर चोट करते हुए समाज में बदलाव का बीड़ा उठाया और अपने ढंग से समाज को बदलने में जुटे रहे।
ज्योंतिबा ने शिक्षा का महत्त्व बालपन में ही समाज के भेदभाव पूर्ण व्यवहार और शोषण व उत्पीड़न से समझ लिया था। यही कारण है कि स्वयं शिक्षित होने के बाद उन्होंने अपनी पत्नी सावत्री बाई फुले को शिक्षित किया। बाद में दोनों ने मिलकर दलित समाज में शिक्षा और जागृत का अलख जगाया।
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संदर्भ और स्रोत
इस लेख का मूल स्रोत संजय श्रमण जोठे की किताब ज्योतिबा फुले-जीवनी और विचार है जिसका प्रकाशन भीम प्रवाह पब्किकेशन से हुआ है।
संजय जाने-माने दलित चिंतक, शोधकर्ता और एक्टिविस्ट हैं।