गांधीजी के मानदंडों पर खरी उरतने वाली- मिथूबेन पेटिट
गुजरात के जनजातियों के दरिद्र, सुविधाहीन और सर्वथा उपेक्षित लोगों के उत्थान के लिए निस्वार्थ सेवा चार दशक तक करती रही। मिथूबेन पेटिट बापू के कठोरतम मानदंड़ो पर खरी उतरी। 11 अप्रैल मिथूबेन पेटिट का जन्मदिवस है…
शुरुआती जीवन और गांधीजी से मुलाकात
मिथूबेन का जन्म 11 अप्रैल 1892 को प्रख्यात पारसी सामंत और उद्योगपति सर दिनशां मानेकजी पेटिट के परिवार में हुआ। उनकी मौसी जैजीबेन जहांगीर पेटिट गांधीजी की घोर प्रशंसिका थीं। दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी के वापस आने के बाद 1915 में राष्ट्रीय स्त्री सभा की सचिव बनी। वे जब भी गांधीजी से मिलने जाती मिथूबेन को साथ ले जाती थी। मिथूबेन पर गांधीजी के विचारों और सिद्धांतो का गहरा प्रभाव पड़ा।
दांडी मार्च में प्रमुख भूमिकाओं में शामिल रही, कस्तूरबा गांधी के साथ साबरमती से मार्च शुरु होने के बाद, 6 अप्रैल 1930 को सरोजिनी नायडू के साथ मिलकर उन्होंने दांडी में पहली बार नमक कानून तोड़ा और 9 अप्रैल 1930 को भीमराद मे पुन: उल्लंघने दोहराया। मिथूबेन पेटिट उन महिलाओं में से एक थी जिन्होंने यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और नमक कर के खिलाफ नागरिक अवज्ञा की।
पेटिट बारडोली सत्याग्रह में भी शामिल रही थी जो अंग्रेज सरकार के खिलाफ कोई कर नहीं अभियान था, जहां उन्होंने सरदार पटेल के मार्गदर्शन में काम किया था। महात्मा गांधी के साथियों के समूह में मिथूबेन पेटिट काफी अहम थी। गांधीजी ने भविष्य के ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक-सामाजिक सशक्तिकरण के प्रयास के लिए मिथूबेन पेटिट को चुना और महिलाओं में मौजूद अपार रचनात्मक शक्ति को निखार कर उन्हें ग्राम उद्यमी बनाने के लिए प्रेरिर किया।
अपने परिवार से अलग-थलग रहकर त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने का लक्ष्य चुना। गांधीजी ने जब ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक कार्य करने के लिए महिलाओं को कहा- तब मिथूबेन पूरी तरह से ग्रामोत्थान के कार्य में तल्लीन हो गई।
मरोली में कस्तूरबा वणतशाला(कस्तूरबा बुनाई शाला) की स्थापना 1 दिसंबर 1930 को हुई थी। जहां मछुआरों, हरिजनो, आदिवासियों तथा उनके समान वंचित वर्गों के बालको को भरती करके वहा कताई, बुनाई, धुनाई, दूध पालन, चमड़े का काम आदि ग्रामउद्योग सिखाया जाता था।
शाला की नींव 1931 में गांधीजी ने अपने हाथों से खान अब्दुल गफ्फार खान, सरदार वल्लभ भाई पटेल और मीरा बेन के उपस्थिति में रखा था। उन्होंने उनसे पूछा था : जब तुमने नीव रखने के लिए मुझसे कहा था क्या उस समय तुमने अपनी जिम्मेदारी महसूस कर ली थी।
मिथूबेन का उत्तर था- हां बापू ! मैं वचन देती हूं कि मैं अपनी मृत्यु के समय तक यहां काम करूंगी।[i]
गांधीजी ने सार्वजनिक सभा में मिथूबेन की सराहना करते हुए कहा था।
आज आप अपने सामने एक पारसी महिला को देख रहे हैं जो एक प्रख्यात परिवार से आई है और जो इससे पहले कभी मुबंई के आरामदेह तथा वैभवपूर्ण जीवन से अलग नहीं रही है। अब वह मोटी खादी के वस्त्रों में, दिन और रात, ठंड और वर्षा की परवाह किए बिना नंगे पैर घूम रही है। इस सबसे दरिद्र बालकों के साथ, बैठने, उनके लिए दान मांगने से, उसके काम में कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि 10 वर्ष पूर्व किसी ने मुझसे ऐसा कहा होता तो मैं उस पर विश्वास नहीं कर सकता था। आज यह एक वास्तविकता है।[ii]
आम लोगों के लिए ”माईजी“ थी मिथूबेन पेटिट
मिथूबेन पेटिटम, जिनको लोग ”माईजी“ कहकर पुकारते थे, उन महिलाओं में से थी जो नमक सत्याग्रह में शामिल हुई और उनके जीवन-चिंतन में महत्वपूर्ण बदलाव आ गया। दांडी यात्रा कूच के बाद, शराब के दुकानों पर धरना उन्होंने पूरी निर्भीकता और प्रतिबद्धता के साथ दिया। गुजरात में, विशेषत: सूरत जिले की महिलाओं ने सामाजिक पुनरुत्थान के अपने अभियान में, कस्तूरबा तथा मिथूबेन के मार्गदर्शन में, सर्वोच्च प्राथमिकता धरने की थी।
स्वतंत्र भारत में स्वयं को सत्ता के दौड़ से दूर रखा और गांधीवादी मूल्यों के दम पर नि:स्वार्थ सेवा के आर्दश का अनुसरण किया।
मरोली में कस्तूरबा वणतशाला(कस्तूरबा बुनाई शाला) में चार आश्रमशालाएं चलती थी। जहां लड़कियों के शिक्षा के साथ-साथ ग्राम-उद्योग के लिए प्रशिक्षण भी दिया जाता था। यहां से शिक्षित-प्रशिक्षित लड़कियों को डिप्लोमा पाठ्यक्रम के स्तर का प्रमाणपत्र दिया जाता था।
इसके साथ-साथ एक मानसिक चिकत्सालय भी चलाया जाता था। जिसमें ब्रिटिश राज की जेलों में दी गई शारीरिक यातनाएं भोगने के कारण कुछ राजनीतिक बंदी मानसिक रूप से बीमार हो जाते थे। उनका इलाज किया जाता था। कस्तूरबा वणतशाला(कस्तूरबा बुनाई शाला) में शिक्षा और स्वास्थ्य का असामान्य सामंजस्य ने लोगों के दिलों में मिथूबेन पेटिट को ”माईजी“ बना दिया था।
साधन साध्यों के बराबर ही महत्वपूर्ण होते है
कस्तूरबा वणतशाला(कस्तूरबा बुनाई शाला) के आर्थिक कमी के समस्या को दूर करने के लिए मिथूबेन ने गांधीजी से पूछा- क्या आश्रम में हो रहे धनाभाव की पूर्ति के लिए वे उन्हें सिनेमा या नाटक शो आयोजित करने की अनुमति दे सकते है।
गांधीजी को उनके प्रश्न से आघात लगा और उन्होंने मिथूबेन से कहा- साधन साध्यों के बराबर महत्वपूर्ण होते हैं। यदि उनका कार्य अच्छा है तो धन के अभाव में कारण उसमें बाधा नहीं पड़ेगी। परंतु, अपने साध्यों को महत्वपूर्ण सिद्ध करने की धुन में उन्हें साधनों के मामले में कभी समझौता नहीं करना चाहिए।
उसके बाद मिथूबेन ने कोष संग्रह के लिए उस प्रकार के साधनों का सहारा लेने की बात कभी नहीं सोची। कुछ समय पश्वात गांधीजी ने उनको आर्थिक सहायता भेजवायी और मिथूबेन की गतिविधियों में तीव्रता से प्रगति हुई।[iii]
नि: स्वार्थ सेवा के 43 वर्षो में मिथूबेन अपने सिद्धांतों से कभी नहीं डिगीं। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन गांधीजी के कार्यक्रम को समर्पित करके उसे कार्यरूप मे बदल दिया।
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संदर्भ-स्त्रोत
[i] उषा एच. गोर्कोनी, मिथूबेन पेटिट, भारतीय पुर्नजागरण में महिलाएं सं. सुशीला नैयर. कमला मनेकेकर, नेशनल ट्रस्ट, इंडिय पेज न०- 189
[ii] वही पेज न०- 190
[iii] वही पेन न०- 193
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री