इतिहास की भूल नहीं,दमन का शिक़ार हुई पंडिता रमाबाई
समय और समाज को सत्य का आईना दिखाती पंडिता रमाबाई
समय और समाज की आलोचना करना कभी भी आसान नही होता है। मुख्यधारा की सोच से अलग हटकर हाशिये के लोंगो के नजरिये से समाज और इतिहास को देखना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। यह बात पंडिता रमाबाई के जीवन का भी सच था। आज के समय में काफी कुछ बदल गया है लेकिन एक चीज़ रमाबाई ने दिया है जो आज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि उनके समय में था।
वह यह है कि सदियों से समाज में चली आ रही परम्पराओं और मान्यताओं को चुनौती देना जोकि हमें उनकी तमाम लेखनी में दिखायी पड़ती है। हलांकि इतिहास में उन्हें वह जगह नही मिली और न ही उन्हें नायिका की तरह कभी देखा गया जिसकी वे हकदार है। इसके साथ ही उनके लेखन में उलझने और अंतर्विरोध भी दिखायी देती है।
दुखों के जीवन-संघर्ष में तपी रमाबाई
आर्थिक बदहाली और अकाल ने माँ और पिता को छीन लिया। उसके बाद रमाबाई की जीवन और भी ज्यादा कठिन हो गया। कुछ महीनों के भीतर माँ-पिता, बहन और भाई की मृत्यु हो गयी। हिंदू रीति-रिवाज और परम्परा के विरूद्व जाति के बाहर जाकर बिपिन बिहारी से शादी की लेकिन दो साल बाद उनकी भी मृत्यु हो गयी।
यह पहली बार था कि बेघर और बिना कोई आर्थिक मदद के जीवन के अर्थ की खोज कर रही थीं। उन्हे अब अहसास हो गया था कि ब्राम्हणवाद की असली सामाजिक सत्ता ज्ञान ही है। वे काफी कम उम्र में ही गम्भीर विषयों पर तार्किकता के साथ समाज में दखल देती है। रमाबाई धार्मिक साहित्य, पोगापंथी और रोजाना के जीवन के बीच एक दूरी देखती है।
धर्मशास्त्र का विश्लेषण करते हुए रमाबाई इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि बचपन में मुझे हिंदू-मान्यताओं का विचार बहुत अस्पष्ट था लेकिन धर्मशास्त्र को पढ़ने के दौरान मेरी आँखें खुल रही थी। अब एक महिला के रूप में असहायता के प्रति जागरूक हो रही थी और यह मेरे सामने बहुत स्पष्ट हो रहा था कि मेरे पास धार्मिक सांत्वना देने के लिए कुछ भी नही है। मैं खुद से ही असंतुष्ट हो रही थी। मुझे शास्त्र जो दे सकता था उससे कही अधिक मै चाहती थी। मैं नही जानती थी कि मैं क्या चाहती थी।[i]
19वीं सदी में मराठी समाज में महिलाओं के लिये शिक्षा आसान नही था। हम देखते है कि इस समय जितनी भी समाज सुधारक महिलाएं थीं उनमें ज्यादातर को घर के भीतर ही शिक्षा मिली थी। दूसरे शब्दों में कहे तो महिलाएं पतियों या पिताओं द्वारा घर के भीतर ही शिक्षित हुई।
पिता अनंत शास्त्री और माँ लक्ष्मीबाई ने घर में ही संस्कृत में रमाबाई को शिक्षा दी। लक्ष्मीबाई खुद भी घर ही अनंत शास्त्री के द्वारा संस्कृत में शिक्षित हुई थी। ऐसा नही था कि यह पुरुषों के लिए अपनी पत्नी को घर में पढ़ाना आसान था।
परिवार में विरोध भी होता था। पढ़े-लिखे पुरुष चाहते थे कि उनकी पत्नियां भी पढ़ी-लिखी हों, खासकर अंग्रेजी सीखें। शिक्षा समाज और परिवार के बीच तनाव का कारण बन जाता था। पहला विरोध का स्वर परिवार से ही निकलता।
एक सेल्फमेड विमेन थीं पंडिता रमाबाई
महिलाओ के शिक्षा जीवन अभियान बनाया
रमाबाई का महिलाओं के लिए शिक्षा का अभियान बहुत महत्वपूर्ण था जहां पर महिलाओं को अब पतियों और पिताओं के उपर से निर्भरता कम होती। बंगाल से आने के बाद ही प्रार्थना समाज जरिए रमाबाई, रमाबाई रनाडे, काशीबाई कानितकर से मिलीं।
1 जून, 1882 में रमाबाई ने ‘आर्य महिला समाज’ नाम का महिला संगठन बनाया। इस संगठन के जरिये रमाबाई बाल-विवाह की प्रथा के खिलाफ संघर्ष, स्त्री शिक्षा पर अभियान शुरू हो गया।
बिना औपचारिक शिक्षा हासिल किए ही इस समय तक रमाबाई अपने विचारों और तर्कशीलता की वजह से काफी प्रसिद्व हो चुकी थी। अंग्रेजी हूकुमत ने शिक्षा में सुधारों के लिए जो हंटर कमीशन बनाया था रमाबाई से महिलाओं की शिक्षा पर उनसे सुझाव मांगा था।
कमीशन ने रमाबाई से तीन सवाल पूछे थे जिसमें एक सवाल महिला शिक्षा पर भी था। रमाबाई ने अपने सुझाव हंटर कमीशन को दिया। सुझाव कुछ इस प्रकार थे- महिला शिक्षकों को विशिष्ट प्रशिक्षण, मातृभाषा के अलावा अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान, समुचित छात्रवृत्ति, महिला आध्यापको का वेतन अधिक हो, छात्राओं के लिए आवासीय परिसर की सुविधा हो और छात्रों के नैतिक मूल्यों की शिक्षा पर ध्यान देना आदि शामिल था ।[ii]
आर्य महिला समाज की शाखाएं और शहरों में भी खुली-अहमदनगर, सोलापुर, मुम्बई, ठाणे आदि। यह अलग बात है कि आर्य महिला समाज को पुरुषों की तरफ पूर्ण सहयोग नही मिला।
मीरा कोशाम्बी लिखती है कि एक तरह से यह पश्चमी भारत में नारीवाद की प्रथम लहर की शुरुआत थी लेकिन दुखद है कि ऐसा नही हो पाया। आर्य महिला समाज एक सफल उद्यम होता अगर पुरुषों का इसे पूर्ण सहयोग मिलता। लेकिन यह अपने तरह से नारीवाद की पहली लहर तो थी ही। सदी के अंत तक ऐसी कई महिलाएं थीं जो अपने संघर्षों के जरिए आगे बढ़ रही थी और पितृसत्ता को चुनौती दे रही थीं|[iii]
विदेश यात्रा और शारदा शदन की शुरुआत
रमाबाई सिर्फ भारतीय महिलाओं के साथ ही नही बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी जुड़ने का प्रयास करती है जब भी उन्हें ऐसा कोई मौका मिलता था। मार्च 1886 में रमाबाई पहली बार पेंसिलवानिया के महिला मेडिकल कॉलेज के वार्षिक समारोह में शामिल होने के लिए पहली बार अमेरिका गयीं।
यहां पर रमाबाई ने विकास, समानता, अवसर, सामूहिकता को पहली बार महसूस किया। एक तरह से रमाबाई ने जो कुछ अमेरिका में देखा और समझा उससे वें बहुत प्रभावित हुई। उन सबको भारत आने के कुछ ही महीनों बाद मराठी में ‘यूनाइटेड स्टेटस्ची लोकास्थिति अनि परव’स्वरित्ता (द पीपल्स ऑफ द यूनाटेड स्टेट्स) लिखी और दिसम्बर 1889 में बॉम्बे में प्रकाशित हुआ । [iv]
उनके इस लेखन में तीन तरह का नरेटिव दिखायी देता है -अमेरिका, इग्लैंड और भारत के बारे में। इन तीनों समाजों का इतिहास, शिक्षा व्यवस्था, औपनिवेशिकता विरोधी विचारधारा, सरकार की व्यवस्था और नागरिक समाज के बारे में काफी विस्तार से चर्चा करती है।[v]
रमाबाई ने 11 अप्रैल, 1889 में जुहू के एक बँगले में ‘शारदा सदन’ की शुरुआत दो छात्रों के साथ कीं। उनमें से एक थी गोडूबाई जिनका विवाह चार साल की उम्र में हो हो गया था। शारदा सदन का नाम पहली छात्रा शारदा के नाम पर ही रमाबाई ने रखा था। शारदा सदन का उद्घाटन समारोह की अध्यक्ष्यता काशीबाई कानितकर से करवाई जोकि उस समय की उभरती हुई मराठी लेखिका थीं।[vi]
शारदा सदन को देशमुख, महादेव गोविंद रनाडे, आर. जी. भंडारकर, और जस्टिस के. पी. तेलंग और और बाल गंगाधर तिलक सभी समाज सुधारकों की तरफ से मदद मिला। ये सभी शारदा सदन के सलाहाकार समिति में भी थे।
हालांकि तिलक के साथ रमाबाई का संबंध शुरु से ही बहुत तनावपूर्ण था। उसका कारण यह था एक तरफ जहां बिना किसी औपचारिक शिक्षा के रमाबाई गम्भीरता से अपने तर्कों, ज्ञान और जीवन के अनुभवों के आधार पर सार्वजनिक दायरे और मुद्दों में उनका दखल बढ़ रहा था वहीं उन पर तीखे हमले भी हो रहे थे।
तिलक से तनावपूर्ण विचारात्मक संघर्ष
तिलक परपम्परावादी सोच के तहत कहते है कि अकेली महिला चाहे जितनी भी पंडिता हो जाए, आने वाले कई सालों तक वह इस काम में हस्तक्षेप नही कर पायेगी जो असल में पुरुषों का काम है, यानी समाज से बुराई को दूर करना ।[vii]
स्त्री पति की छाया में रहे तो बेहतर, उससे बाहर निकलने और राजनीतिक मुद्दों पर बोलने की कोशिश न करे। रमाबाई का दखल तिलक को पच नही रहा था। इसकी वजह यह भी थी कि रमाबाई मुखर होकर बेझिझक बोल रही थीं। आर्य महिला समाज की सभा में रमाबाई ने भाषण दिया जोकि प्रार्थना समाज की पत्रिका ‘सुबोध पत्रिका’ में 4 जून 1882 में प्रकाशित हुआ था जिसकी कुछ लाइनें यहां देना जरूरी लगता है-
पुरुष हमें गुलाम की तरह देखते है. हम इस स्थिति से खुद को बचाने के लिये हर सम्भव प्रयास करते है। कुछ लोग कहेंगे, यह तो पुरुषों के खिलाफ विद्रोह है, यह पाप है। असल में पुरुषों के बुरे कामों को प्रतिरोध किये बिना बख्श देना और उनका खुद पर कोई असर न पड़ने देना पाप है।[viii]
रमाबाई जेंडर के दृष्टिकोण से महिलाओं के जीवन पर पितृसत्तामक शिकंजे की आलोचना तो कर रही थीं साथ-साथ अपने समय के पुरुषों को भी चुनौती दे रही थीं।
तिलक का सुधारवादी एजेंडा यह मानता था कि समाज सुधार की जगह हमें राजनीतिक सुधारों को प्राथमिकता देनी चाहिये और यह काम अपने जीवन का आदर्श प्रस्तुत करते हुए साफ छवि के पुरुष नेताओं को करना चाहिए। जो महिला परम्पराओं को तोड़े या दरकिनार करके और अपने समय के पुरुषों को चुनौती दे, सार्वजनिक और राजनीतिक पुरुष अधिपत्य को खुला प्रहार करे, वह भला आदर्श कैसे हो सकती है। जो परम्पराओं, पुरुष आधिपत्य और पितृसत्तामक समाज और व्यवहार को पैरों तले रखे, ऐसी महिलाएं हर समय ही घातक होती है।
रमाबाई के साथ भी यही था। दरअसल रमाबाई का समय आंतरिक रूप से दो मुद्दों से घिरा था। पहला समाज सुधार और राजनीतिक स्वायत्ता के लिये राष्ट्रीय सवाल। यह एक समझदारी थी कि राजनीतिक स्वायत्तता का सवाल समाज सुधार के काम से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। समाज सुधार का मामला आंतरिक के साथ ही साथ प्रभुत्व का भी सवाल था।
इसलिए दोनो के बीच शुरु से ही समय-समय पर टकराव भी होते रहे। खासकर बाल विवाह को खत्म करना, विधवा महिलाओं के प्रति व्यवहार (पुनर्विवाह), महिलाओं के लिये शिक्षा आदि मुद्दे के साथ राजनीतिक स्वायत्तता के सवाल के साथ तनाव वाली स्थिति लगाततार बनी रहीं।
इस समय की कई महिलाओं के जीवन और उनका लेखन में यह दिखायी देता है। इस कड़ी में ताराबाई शिंदे की किताब ‘स्त्री–पुरुष तुलना’ और रमाबाई का ‘उच्च जाति हिंदू महिला’ अहम है।
राजनीतिक प्राथमिकता के बीच समाज सुधार का एजेंडा अलग-थलग पड़ गया था। राष्ट्र निर्माण प्राथमिकता के तौर पर आगे बढ़ रहा था जोकि कहीं न कहीं अपने स्वाभाव में पुरुष अधिपत्य का स्वर भी लिए हुए था – दोनो ही वजहों से समाज सुधार का एजेंडा (जिसमें सम्भवत: महिलाओं को लाभ मिलता) अलग-थलग हो गया था जिसमें महिलाएं राजनीतिक तौर पर बाहर थीं। [ix]
इतिहास के भूल नही दमन का शिकार हुई पंडिता रमाबाई
रमाबाई का पूरा जीवन और कार्य महत्वपूर्ण होने के बावजूद मुख्यधारा के इतिहास से गायब है। 1970 के बाद जब नारीवादी इतिहासकार और लेखिकाओं ने इतिहास को नये नजरिए से या कहे कि इतिहास के पन्नों में महिलाओं के योगदान को खोजना शुरु किया तो महिलाएं गायब थीं।
नारीवादी इतिहासकार उमा चक्रवर्ती कहती है कि इतिहास से महिलाओं अनुपस्थिति कोई ऐतिहासिक भूल नही है बल्कि यह दमन है।[x]
रमाबाई के संदर्भ में वे कहती है कि यह अनुपस्थिति दो कारणों से थी क्योंकि वे लक्ष्मण रेखा पार की थीं। पहली तो वे उस समय ब्राहम्णवादी पितृसता की तीखी आलोचना कर रही थी जबकि उस समय के पुरुष सुधारवादी सामाजिक संरचना की आलोचना करने में संकोच कर रहे थे। दूसरी रमाबाई खुद एक उच्च जाति की हिंदू विधवा महिला होने के बावजूद अपना हिंदू धर्म को छोड़ कर ईसाई धर्म को अपनाया।
वे यहीं तक नही रुकीं बल्कि दूसरी उच्च जाति की हिंदू महिलाओं को भी ऐसा करने के लिये प्रेरित कर रहीं थीं। जबकि सवर्ण हिंदू महिलाओं का असली जीवन चक्र- बचपन में ही उम्रदराज पुरुषों के साथ शादी हो जाना, घर की चारदीवारी में कैद, नियंत्रित और प्रतिबंधित जीवन बिताने के सिवाय और कोई रास्ता भी नही था।
19वीं सदी में रमाबाई का यह साहसी कदम कहीं न कहीं उस समय के पुरूषों के लिये चुनौती था कि विधवा महिला को घर से बाहर कदम नही करना चाहिए। लेकिन रमाबाई ने नये धर्म का चुनाव किया और साथ ही साथ पुरूषों के इस विश्वास को भी तोड़ दिया जो कि अपमान के रूप में समझा गया।
रमाबाई उस समय के सुधारवादियों के लिये धोखा देने वाली के साथ-साथ घातक भी थी। एक विधवा पंडिता का जीवन अपने जीवन के निर्णयों में स्वायत्तता अपनाआ जितना खलेने लायक था, उससे भी ज्यादा सार्वजनिक जीवन मे उनकी बढ़ती भागीदारी दोंनो ही उस समय बहुत से लोंगो को नागवार गुजर रही थी । [xi]
“सिर्फ फूले ही ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होने रमाबाई के इस कदम को स्वीकार किया था”।[xii]
हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए चुनौती थी रमाबाई
रमाबाई को नैतिक और सामाजिक व्यवस्था को घात पहुँचाने वाली के रूप में प्रस्तुत किया है जो कि उस समय के हिंदू राष्टवादियों को भी कहीं न कहीं से चुनौती दे रही थी।
उमा चक्रवर्ती कहती है कि यह इसलिए नहीं था कि रमाबाई राष्ट्र को धोखा नही बल्कि यह एक सत्ता संबंध चुनौती दे रही थीं जिसमें राष्ट्रवादी एजेंडा ही सामाजिक और राजनीति क्या होना चाहिए- को निर्धारित कर रहा था। पितृसता की आलोचना राष्ट्रवादी एजेंडे में शामिल नहीं था। यूँ कहें कि सुधारवादियों के पास पूर्वजों से मिले हिंदू सामाजिक संस्थायें और धार्मिक विश्वास, प्रथाओं को सार्वजनिक तौर पर मुंह बंद करने का विकल्प चुना था। रमाबाई के कामों को देखते हुये यह प्रतीत होता है कि वह अपने समय की अन्य किसी दूसरे विधवा महिला से अलग थी।
रमाबाई खुद को कभी भी वैसे नही देखी जैसे कि उस समय की विधवा महिला को देखा जाता था। समाज की मुख्यधारा से बिल्कुल अलग थी। अपनी किताब ‘उच्च जाति हिंदू महिला’ में वह विधवापन पर उनका लेखन दो करणों से बहुत महत्वपूर्ण है।
पहला तो यह है कि विधवापन पर अपने अनुभव से नहीं बल्कि उनकी खुद की चेतना दिखायी देती है। दूसरा विधवापन पर उनकी अपनी समझदारी समाज में उच्च जाति की महिलाओं की स्थिति के संदर्भ समझती है।
रमाबाई का लेखन विश्लेषणात्मक, पैनी दृष्टि और उसकी सटीक प्रस्तुति का यहां पूरा देना तो संभव नही है लेकिन उस समय वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के साथ-साथ अपने समकालीन पुरुष प्रभुत्व को भी चुनौती दे रही थी। चयन की आजादी, महिलाओं की शिक्षा और सुधारवादी दृष्टिकोण की कलई खोलने तक का सफर रमाबाई के लिए आसान नहीं था।
संदर्भ स्त्रोत
- अलका मुदगल, (2013), पंडिता रमाबाई, द इंडियन जर्नल ऑफ पोलिटकल साइंस, श्रोत: https://www.jstor.org/stable/24701120
[i] ऊमा चक्रवर्ती. (1998), रीराइटिंग हिस्ट्री: द लाइफ अंद टाइम ऑफ पंडिता रमाबाई, ज़ुबान पब्लिकेशन. पृ. सं 309.
[ii] सुजाता. विकल विद्रोहणी पंडिता रमाबाई, राजकमल प्रकाशन पृ. सं. 70
[iii] सुजाता, विकल विद्रोहणी पंडिता रमाबाई, राजकमल प्रकाशन पृ. सं. 72
[iv] मीरा कोशाम्बी. पंडिता रमाबाई: अमेरिकन एंकाउंटर, ईंडियाना यूनिर्सिटी प्रेस पृ. सं 4
[v] मीरा कोशाम्बी. पंडिता रमाबाई: अमेरिकन एंकाउंटर, ईंडियाना यूनिर्सिटी प्रेस पृ. सं 5
[vi] सुजाता, विकल विद्रोहणी पंडिता रमाबाई, राजकमल प्रकाशन पृ. सं. 134
[vii] सुजाता, विकल विद्रोहणी पंडिता रमाबाई, राजकमल प्रकाशन 2023, पृ. सं 64
[viii] सुजाता, विकल विद्रोहणी पंडिता रमाबाई, राजकमल प्रकाशन पृ. सं 67
[ix] कोशाम्बी, पंडिता रमाबाई: अमेरिकन एंकाउंटर, ईंडियाना यूनिर्सिटी प्रेस पृ. संख्या 13
[x] चक्रवर्ती, रीराइटिंग हिस्ट्री: द लाइफ अंद टाइम ऑफ पंडिता रमाबाई, ज़ुबान पब्लिकेशन पृ. सं. 4.
[xi] सुजाता, विकल विद्रोहणी पंडिता रमाबाई, राजकमल प्रकाशन पृ सं 64
[xii] कोशाम्बी, पंडिता रमाबाई: अमेरिकन एंकाउंटर, ईंडियाना यूनिर्सिटी प्रेस पृ. सं. 13
डा. अर्चना पाण्डेय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पोस्टडॉक कर रही है