14 साल की क्रांतिकारी सुनीति चौधरी, जिन्होंने 7 साल जेल काटे; डाक्टर भी बनी!
खुद पर आत्मविश्वास और हौसले के दम पर, असंभव लगने वाले काम को अंजाम दिया जा सकता है और सफलता पाई जा सकती है। इसकी शानदार मिसाल क्रांतिकारी सुनीति चौधरी से बेहतर और कोई हो नहीं सकती। सुनीता चौधारी ने मात्र 14 वर्ष के उम्र में ही ब्रिटिश मेजिस्ट्रेट को गोली मार कर हत्या की। मुकदमा चला, 7 साल जेल में सजा काटकर पूरा किया और स्वतंत्र भारत में डाक्टर बनकर आम लोगों की लेंडी माँ के रूप से सेवा की।
भारत की सबसे कम उम्र की क्रांतिकारी सुनीति चौधरी का जन्म 22 मई 1917 को बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के कोमिला के बंगाली कायस्थ परिवार में उमाचरण चौधरी और सुरसुंदरी चौधरी के घर हुआ था। सुनीति चौधरी, उल्लासकर दत्ता की क्रांतिकारी गतिविधियों से प्रभावित थी, जो कोमिला में ही रहते थे।
उन्हें एक अन्य शिष्य प्रफुल्लनलिनी ब्रह्मा द्वारा युगांतर पार्टी में भर्ती किया गया था। वह त्रिपुरा जिला छत्री संघ की सदस्य भी थीं। सुनीति चौधरी को 6 मई 1931 को आयोजित त्रिपुरा जिला छात्र संघ के वार्षिक सम्मेलन में महिला स्वयंसेवक कोर के कप्तान के रूप में चुना गया था।
महिलाओं को आत्मसुरक्षा के लिए करती थी प्रशिक्षित
कोमिला (टिप्पेरा) के जिला मजिस्ट्रेट ब्रिटिश अधिकारी चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस थे। जिसके कोमिला जिले के लोग काफी परेशान थे। खासकर महिलाएँ और युवा लड़कियाँ। सुनीति चौधरी इस बात पर कि महिलाएँ ब्रिटिश अधिकारी स्टीवंस के दुर्रव्यवहार को झेलने के बाद भी, उसका विरोध नहीं करती है, काफी परेशान थी।
कई महिलाएँ तो बदनामी के डर से अपने परिवार में भी खुद के अपमान के बारे में नहीं बताती थी। सुनीति चौधरी ने अपने घर वालों से छुपाकर नाम बदलकर मीरा देवी के उपनाम से महिलाओं को आत्मसुरक्षा के लिए प्रशिक्षित करना प्रारंभ किया। उनकों युंगातर पार्टी के तरफ से यह जिम्मेदारी मिली। उन्होंने आग्नेयास्त्रों के संरक्षक के रूप में चुना गया था और वह महिला सदस्यों को लाठी, तलवार और खंजर खेलने में प्रशिक्षित करने की प्रभारी थी।
सुनीति चौधरी के इन प्रयासों से कुछ हद तक सफलता तो मिली, परंतु इन प्रयासों से ब्रिटिश अधिकारी स्टीवंस मीरा देवी के तलाश में थे, किसी महिला ने अपने साथ स्टीवंस के दुर्रव्यवहार के बारे में बताया कि तमाम कोशिशों के बाद भी वह अपना उत्पीड़न नहीं रोक सकी।
सुनीति चौधरी ने शांती छोष के साथ मिलकर स्टीवंस को सबक सीखाने की योजना बनाई। सुनीति चौधरी और शांति घोष दोनों इस बात से सहमत थी कि ऐसे जीने से तो अच्छा है मौत मिल जाए।
कैसे हत्या हुई ब्रिटिश अधिकारी स्टीवंस की
सुनीति चौधरी और शांति घोष दोनों, अपने स्कूल में सहपाठियों के बीच तैराकी प्रतियोगिता की व्यवस्था करने के लिए एक याचिका लेकर, मजिस्ट्रेट स्टीवंस के कार्यलय पहुँची।
स्टीवंस जब तैराकी प्रतियोगिता याचिका के दस्तावेज देख रहे थे उसी समय सुनीति चौधरी और शांति घोष ने शाल में छिपाया गर अपने स्वचलित पिस्तौल को निकाल लिया और गोली मारकर स्टीवंस की हत्या कर दी। तुरंत ही दोनों लड़कियों को हिरासत में ले लिया गया, दोनों ने वहाँ से भागने का प्रयास नहीं किया और स्थानीय ब्रिटिश जेल में कैद कर दिया गया।
इस घटना टाइम पत्रिका में 8 फरवरी 1932 को रिपोट हुई, India: I and My Government शीर्षक से, रिपोर्ट में लिखा गया।
दिसम्बर, 1931 में कोमिला (टिप्पेरा) के जिला मजिस्ट्रेट श्री स्टीवंस के कार्यलय में दो स्कूली छात्राएँ उपस्थिति हुई। वे सुनीति चौधरी (14) और शाति घोष (15) थी और उन्होंने अपने स्कूल में तैराकी प्रतियोगिता शुरु करने के लिए याचिका दायर की। एक अर्दली ने उन्हें अंदर ले लिया। लड़कियों ने याचिका स्टीवंस को सौपी और स्वचलित पिस्तौल से उनकी हत्या कर दी।
ये लड़कियाँ एक उग्रवादी संगठन युगांतर (नया युग) की सदस्य थी, जिसने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को हटाने के लिए एक राजनीतिक तकनीक के रूप में हत्या का इस्तेमाल किया। फरवरी 1931 में, चौधरी और घोष कलकत्ता अदालत में अपनी सजा के लिए पेश हुई।
टाइम्स पत्रिका लिखता है कि: चमकीले रंग की साड़ियों में, उनके बालों में फूल के साथ, वे बंगाल प्रेसीडेंसी से आजीवन निर्वासन की सजा सुनन के लिए भी नहीं रुकी। उन्होंने हल्के ढंग से कहा: इसमें जीने से मरना बेहतर है। फैसले के कुछ दिनों बाद राजशाही जिले में पुलिस की खुफिया शाखा ने दो किशोर नायिकाओं के राष्ट्रवाद कि प्रशंसा करते हुए फाइल बंद कर दी।
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टाइम्स पत्रिका ने मजिस्ट्रेट स्टीवंस के महिलाओ के शोषण की बात छुपाई
इस पूरी रिपोर्ट में मूल तथ्य को छिपा दिया गया था। आखिर क्यों 14-15 साल की दो लड़कियों ने मजिस्ट्रेट के हत्या का फैसला किया। इला भट्ट अपनी किताब टेस्टामेंट आंफ इंडिया, में बताती है कि-
आजादी के आन्दोलन में बड़ी संख्या में हर उम्र की लड़किया क्रांतिकारी गुटों में शामिल हो रही थी। उन्होंने अपनी मर्जी से खुद को सीधी लड़ाई में झोंक दिया था। दिसम्बर 1931 में शांति घोष और सुनीति चौधरी ने टीपर जिला मजिस्ट्रेट स्टीपेंस की गोली मारकर हत्या कर दी। यह वही मजिस्ट्रेट था जिसने सरकारी नियमों का महिलाओं के शोषण के लिए सर्वाधिक दुरुपयोग किया था।
इला सेन के अनुसार-
पर्वतीय इलाकों में किसी भी अच्छे घर की बंगाली लड़की इन मजिस्ट्रेटों की निगाहों से बच नहीं सकती थी। ये लोग उसे पकड़कर उसके साथ ज्यादती करते थे। इसलिए दो नवयुवतियों ने मजिस्ट्रेट की हत्या करके इस अपमानजनक स्थिति के खात्मे का नमूना पेश किया। उनका मानना था कि बर्बरता का जबाव उसी की भाषा में दिया जाना चाहिए।
अत: वे निडर होकर मजिस्ट्रेट के दफ्तर में गई और वहाँ जाकर उसे गोली से ढ़ेर कर दिया। उन्हें मालूम था कि वे गिरफ्तार कर ली जाएंगी उन्होंने एकदम शांत एंव साहसी रवैये का परिचय दिया। इनका साहस उस समय भी बरकरार रहा जब उन्हें फांसी की सजा नहीं दी गई। सारी दुनिया इस वद्रोही घटना से हैरान रह गई तथा इन लड़कियों की कार्यवाही को शर्मनाक कहा। परंतु सच्चाई से कोई भी वाकिफ नहीं था।
यहाँ तक कि असेम्बली के एक सदस्य ने दूसरे से कहा: जाओ और जाकर पूछो उन बंगाली लड़कियों से कि उन्होंने यह काम क्यों किया। शोरशराबे में उनकी आवाज दब कर रह गई और इस विषय में कोई उचित जांच नहीं कराई गई।
7 साल सजा काट कर छूटी, डाक्टर बनकर जन सेवा में सक्रीय रही
द्वितीय विश्व युद्ध के पहले जब आम माफी वार्ता के बाद कई कैदियों को रिहा किया गया। तब सुनीति चौधरी भी जेल के कैद से बाहर आई। इस समय तक सुनीति चौधरी 22 वर्ष की हो चुकी थी।
क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त होने के कारण उन्होंने अपनी औपचारिक शिक्षा पूरी नहीं की थी। अपना सारा ध्यान जोर-शोर से पढ़ाई में लगाया। साल 1944 में उन्होंने मेडिसिन एंड सर्जरी में डिग्री के लिए कैम्पबेल मेडिकल कांलेज में दाखिला लिया। कुछ समय बाद उन्होंने आंदोलन में सक्रिय प्रद्योत कुमार घोष से शादी कर ली।
सुनीति अपने दयालु और समर्पण भरे स्वभाव के कारण जल्द ही चंदननगर की एक प्रतिष्ठित डाक्टर बन गई।
लोग उन्हें प्यार से लेंडी माँ बुलाने लगे। आजादी के बाद 1951-52 के आम चुनाव में डां सुनीति घोष को कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने की पेशकश की गई। राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के कारण सुनीति ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।
12 जनवरी 1988 को सुनीति ने दुनिया को अलविदा कह दिया। मात्र चौदह वर्ष के उम्र में उन्होंने जो साहस दिखाया, वह इतिहास में तो दर्ज है ही, कई लड़कियों के लिए आत्मप्रेरणा गाथा भी है।
संदर्भ स्त्रोत
[1] .India: I and My Government, Time Magazine, 8 February 1932, http://wwww.time.com/time/magazine/article/o,917,743094,00.htm1#ixzzosly6rgci.
[2] इला सेन, टेस्टामेंट आंफ इंडिया, राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास 1800-1990, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,2011, पेज न.-183-184
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री