लिंगायत संत बसवन्ना: कर्नाटक के क्रांतिकारी दार्शनिक
बसवन्ना: कर्नाटक के संत जिन्होंने दिया कुरीतियों के खिलाफ सुधार का नारा
जब मई 2023 में यह लेख लिखा जा रहा है तो कर्नाटक में चुनाव का मौसम है। विभिन्न चैनल, पत्रकार, विद्वान लोग आदि राज्य में जातियों और समुदायों का गुणा-गणित समझाने में लगे हैं। कर्नाटक के संदर्भ में लिंगायत समुदाय की बहुत चर्चा होती है, और किस तरह इनका वोट परिणाम निर्धारित कर सकता है।
धनी लोग
शिव के लिए मंदिर बनाएंगे
मैं, एक गरीब आदमी
मैं क्या करूँ?
मेरे पैर हैं स्तम्भ
शरीर मंदिर
और सर ही है स्वर्णशिखर
हे मिलती नदियों के स्वामी, सुनो!
जो स्थिर है, गिर जाएगा एक दिन
जो गतिशील है रहेगा शाश्वत सदा
ऊपर दी गईं भक्ति कविता की पंक्तियाँ इसी लिंगायत समुदाय के बड़े विचारक, प्रणेता और बराहवी सदी के महान भक्ति संत कवि बसवन्ना द्वारा लिखीं गई हैं।1
आइए जानते हैं कैसे इन्होंने रूढ़ियों से जकड़े समाज में दिया ज्ञानशील भक्ति और सामाजिक बराबरी का नारा।
शुराआती जीवन बसवन्ना का
बसवन्ना को बसव या बसवेश्वर भी कहा जाता है और इनका जन्म सन 1106 में कर्नाटक के उत्तरी भाग में हुआ था। इनका परिवार उस इलाके का शिवभक्त ब्राह्मण परिवार था और इनके पिता का नाम मादिराज तथा माँ का नाम मादलम्बिके था। संभवतः यह बसव के असली माता-पिता नहीं थे और उनके मार जाने के बाद इन्हें गोद दिया गया। 2
बसव का मन शुरुआत से ही शिव भक्ति में रम गया था और वे अध्ययनशील भी थे। इतनी कम उम्र में किए गए अध्ययन से बसव में समाज के प्रति विरक्ति का भाव आ गया। सोलह की आयु तक आते-आते ये समाज में धर्म के नाम पर व्यापत्र पाखंड और जाति-व्यवस्था से क्षुब्ध हो चले थे।
पन्द्रहवी शताब्दी में बसवन्ना की जीवनी लिखने वाले कवि हरिहर कहते हैं कि इस संवेदनशील युवा के लिए “शिव के प्रति प्रेम और कर्मकांड साथ-साथ नहीं रह सकते थे”, अतः उन्होंने खुद को अतीत से जोड़ने वाले कर्मकांड के प्रतीक जनेऊ को त्याग दिया और घर
छोड़ कर चले गए।
इसके बाद बसव आज कर्नाटक के बगलकोट जिले में पढ़ने वाले कस्बे कुदालसंगम चले गए जहां एक स्थानीय मंदिर में उन्होंने शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। आज यह कस्बा लिंगायत मतानुयाइयों का एक पवित्र तीर्थ माना जाता है।
दरअसल ऊपर दी गई पंक्ति “मिलती नदियों के स्वामी”, कुदालसंगम के देवता, या ‘कुदालसंगमदेव’ का ही अनुवाद है जिसे कन्नड से रामानुजन ने किया है। वहाँ काफी समय तक रहने के बाद बसव उस समय उत्तरी कर्नाटक के इलाके में राज कर रहे कलचूरी राजवंश के दरबार यानि राजधानी कल्याण चले गए।
यहाँ इनके एक रिश्तेदार वहाँ के राजा बीजल द्वितीय के दरबार में मंत्री थे। बसव ने यहाँ आकर यहाँ गंगाम्बिके से विवाह किया। इनके रिश्तेदार की मृत्यु के पश्चात राज्य बीजल से बसव के संबंध प्रगाढ़ हो गए और इन्हें राज्य का एक प्रमुख मंत्री बना दिया गया।मंत्री बनने के पश्चात बसव के नियंत्रण में प्रशासनिक शक्ति तो आई ही,
लेकिन साथ ही उनकी कर्मकांड रहित शिव-भक्ति और जाति से परे समाज बनाने के सपने ने नए आयाम छूने शुरू किए। कहा जाता है कि बसव की वाणी, उनके समानता के संदेश और भक्ति से प्रभावित होकर हजारों लोग कल्याण पहुँचने लगे और एक नए समुदाय ने आकार लिया, जिसका नाम वीरशैव, या लिंगायत हुआ। रामानुजन कहते हैं- “न सिर्फ वे राजा के खजांची या भण्डारी थे बल्कि शिव के भक्ति-प्रेम के खजांची अर्थात भक्ति भण्डारी भी बन चुके थे।“ 3
उत्तरी कर्नाटक में गहरी सामाजिक उथल-पुथल और बसव
बरहवी सदी का यह समय उत्तरी कर्नाटक में गहरी सामाजिक उथल-पुथल का था। बसव के जाति बंधन तोड़कर बने इस भक्ति समागम में वैचारिक शास्त्रार्थ के लिए ‘अनुभव मंडप’ की स्थापना हुई जहां उस समय के प्रसिद्ध संत-कवि जैसे अक्क महादेवी, सिद्धराम, बोमैया आदि बैठकर दर्शन और समाज पर गंभीर चर्चा करते थे।
बसव की वर्ण और जाति व्यवस्था को चुनौती देने वाली यह नीति राज्य के अन्य दरबारियों को रास नहीं आई। बीजल के कान भरे जाने लगे और अंततः उनसे प्रभावित होकर राजा ने बसवन्ना के पर कतरने का मन बनाया। जैसा बताया गया, जाति और वर्ण व्ययस्था तोड़कर नया समाज बनाया गया था। यहाँ पूर्व में एक अछूत पुरुष और ब्राह्मण रही महिला ने जाती बंधन तोड़कर विवाह कर लिया।
बीजल ने परंपरावाद पर मंडराए इस खतरे को रोकने के लिए वर और वधू दोनों के पिताओं को मौत का फरमान सुनाया। राजधानी की धूल धूसरित सड़क से घसींटते हुए उन्हें सजा पूरी करने के लिए ले जाया गया ताकि नए बने समुदाय में डर फैल जाए। पर हुआ उसका उल्टा। वीरशैव समुदाय ने प्रतिशोध के लिए कमर कस ली और राज्य व समाज दोनों से ही जंग का ऐलान कर दिया।
बसव खुद हिंसा के समर्थक नहीं थे। उन्होंने चरमपंथियों को अहिंसा का रास्ता चुनने की अपील की पर असफल रहे और राजधानी छोड़ दी। इसके पश्चात सन 1166 से 68 के बीच उनका निधन हो गया ऐसा माना जाता है। तत्पश्चात विद्रोहियों ने बीजल की भी हत्या कर दी।
बसव के जाने के बाद भी लिंगायत समुदाय का दर्शन जिंदा रहा। पन्द्रहवी-सोलहवी सदी के विजयनगर साम्राज्य में यह फिर फैला-फला। कालांतर में अंग्रेजों के आने के बाद लिंगायत समुदाय खुद ही एक जाति में तब्दील हो गया। दुर्भाग्य यह है कि इस समुदाय के बीच उन्हीं रूढ़िवादी वर्ण व्यवस्था की कुरीतियाँ फिर हावी हुईं जिनका प्रतिकार बसव ने किया था।
इक्कीसवी सदी में बसव के विचारों से प्रभावित कुछ मठों व बुद्धिजीवियों ने लिंगयतों को एक अलग धर्म की मान्यता देने की वकालत की है चूंकि इनकी कई परंपराएँ मुख्यधारा के हिन्दू पंथ से अलग हैं। मसलन लिंगायत मान्यता में मृत्यु के बाद व्यक्ति को दफनाया जाता है ताकि वह शिव में विलीन हो सके।
बसव की कविताओं में समाज सुधार और बराबरी के साथ आडंबर रहित भक्ति के गुण साफ देखे जा सकते हैं। कन्नड में लिखी गई और कई भाषाओं में अनूदित इनकी कविताओं को वचन कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘कहना’ या ‘कथन’। प्रोफेसर कलबुर्गी के अनुसार इस प्रकार के 1400 वचन उपलब्ध हैं। जैसा कि ऊपर वचन में देखा गया, बसव ने उंच-नीच, सामाजिक प्रतिष्ठा, अमीर और गरीब का भेद जैसे दिखावों को नकारते हुए शिव भक्ति की बात की है।
एक उदाहरण और देखिये:
राज्याभिषेक के बाद
क्यों खोजना राजसी चिन्ह?
शिवलिंग पूजा के उपरांत
क्यों पूछें व्यक्ति का कुल?
मिलती नदियों के स्वामी ने कहा है
“भक्त का शरीर भी मेरा ही शरीर है।“ 4
लिंगायत परंपरा और बसव क जाति-विरोधी विचारों का प्रसार करने के कारण ही प्रोफेसर एम एम कलबुर्गी एवं गौरी लंकेश की हत्या की गई। चूंकि इनके विचार समाज में वर्चस्व बनाए रखने वाली ताकतों को पसंद नहीं आते हैं।
बसव की कविताओं और सूत्रों को विरोध या हिंसा के बावजूद खत्म नहीं किया जा सका। है। जिस प्रकार चार्वाक दर्शन उनके आलोचकों के निंदा लेखों में भी जिंदा रह गया, जबकि उनकीसभी सामग्री नष्ट कर दी गई थी, उसी प्रकार संत बसवेश्वर के विचार भी जीवित हैं। 5
चाहे वे बसव हों या मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के अन्य कवि, संत एवं समाज सुधारक; सभी हमें एक ऐसे धर्म पर चलने की शिक्षा देते हैं जो मनुष्यता सिखलाए, न कि अंधविश्वास, ऊंच-नीच, पाखंड व हिंसा का कारण बने।
सदर्भ स्त्रोत
1 यह पंक्तियाँ प्रसिद्ध साहित्यकार और पद्मश्री सम्मानित ए के रामानुजन की किताब “Speaking of Siva” (प्रकाशन वर्ष
1973, पेंगविन बुक्स) के पृष्ठ 19 से अंग्रेजी में लेकर मेरे द्वारा हिन्दी में अनुवादित की गईं हैं। रामानुजन की यह किताब
पढ़कर कन्नड भक्ति काव्य को और बेहतर समझा जा सकता है।
2 रामानुजन, पृष्ठ 60
3 रामानुजन, पृष्ठ 63
4 कन्नड से अंग्रेजी में अनुवाद कामिल जेवेलबिल की किताब “The Lord of the Meeting River: Devotional Poems
of Basavanna” (प्रकाशन वर्ष 1984, मोतीलाल बनरसीदास प्रकाशन) के पृष्ठ 27 से। अनुवाद मेरा। कुछ अन्य वचन व
उनका विश्लेषण यहाँ पढ़ जा सकता है।
5 हिन्दी में बसवन्ना के वचन यहाँ पढे जा सकते हैं।
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।