बंगाल की पहली महिला क्रांतिकारी: प्रीतिलता वाडेदार
औपनिवेशिक भारत में जब आज का बांग्लादेश भारत का हिस्सा हुआ करता था, तब एक यूरोपियन क्लब के बोर्ड पर लिखा था, “इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड”।
यह देखकर एक बंगाली महिला का खून खौला और उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ क्लब पर विस्फोटक हमला बोल दिया। इस क्रम में उन्होंने अपनी जान भी गवाई। देश उनको पहली बंगालन महिला क्रांतिकारी के रूप में याद करता है। प्रीतिलता वाडेदार का प्रेरक इतिहास।
स्वदेशी के प्रति समर्पित था प्रीतिलता का परिवार
जिस दौर में बांग्लादेश, बंगाल का हिस्सा हुआ करता था, उस वक्त चट्टगाँव के छोटे से गाँव ढालघाट में 5 मई 1911 को प्रीतिलता वाडेदारका जन्म हुआ। प्रीतिलता के पिता जगतबंधु, ज़िला मजिस्ट्रेट कार्यालय में बड़ा बाबू थे।
प्रीति के परिवार में सभी लोग शुद्ध भारतीय जीवन शैली अपनाते थे। सभी लोग स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल करते थे। उनकी बात सुनकर मुझे हीनता का बोध होता था क्योंकि मेरे परिवार में विदेशी वस्त्रों समेत अन्य विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल होता था।[i]
प्रीतिलता के परिवार में लड़कियों को उच्च शिक्षा देना अच्छा नहीं माना जाता था। उनके भाईयों को पढ़ाने के लिए जो शिक्षक घर पर आते थे, प्रीतिलता उनको सुना करती और वही सुनते–सुनते वह अपने भाईयों को मात देने लग गई।
कल्पना दत्त, चटगांव आरमरी रेडर्स–रेमनी सेंसेज में बताती है कि–
मैं प्रीति को तब से जानती हूँ, जब हम दोनों बहुत छोटी थीं। हम दोनों एक साथ स्कूल जाती थीं, वह मुझसे एक कक्षा आगे थी। जब हम दोनों बड़ी कक्षाओं में पहुँचे तो दोनों बालिका गाइड में शामिल हो गए। हम दोनों परस्पर चर्चा करते कि यह हमारा कर्तव्य है कि हम दूसरे पक्ष की सभी जानकारी प्राप्त करें।
यह हमारी अपनी ताकत के निर्मान के लिए उपयोगी होगा। हम पहले ईश्वर और सम्राट के प्रति निष्ठावान होने के संकल्प लेना चाहतीं थी परंतु हमने अपना संकल्प बदलकर ईश्वर और राष्ट्र के प्रति निष्ठावान होने का व्रत लिया।[ii]
आगे, कल्पना दत्ता लिखती है। विद्यार्थी जीवन में भविष्य के प्रति हम दोनों का नज़रिया स्पष्ट नहीं था। कभी–कभी हम दोनों महान वैज्ञानिक बनने के सपने देखती। फिर रानी झांसी क्ने अ ने उदाहरण के जरिए हमारी कल्पनाओं को भड़काया। कभी–कभी हम निडर क्रांतिकारी बनने की बात सोचतीं। कांलेज में हम दोनों राष्ट्रवादी गुट में शामिल हो गई वहीं हमने लाठी और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। कालेज में बाद मैं कलकत्ता विश्वविद्यायल में दाखिल हुई और प्रीति ढाका विश्वविद्यालय चली गई।[iii]
मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने बैथुन कॉलेज से ग्रैजुएशन भी किया, जिसके पश्चात उनको नंदन कानन हाई स्कूल में प्रधानाध्यापिका के पद पर काम करने का मौका मिला।
जब मास्टर सूर्य सेन के संपर्क में आई प्रीतिलता
प्रीतिलता वादेदार की मंज़िल तो कहीं और थी। यह वह समय था, जब क्रांतिकारियों ने चटगाँव शास्त्रागार कांड संपन्न कर डाला। क्रांतिकारियों और उनके परिवारवालों पर हो रहे अत्याचारों ने प्रीतिलता को विद्रोही बना दिया।
छुट्टियों में हम दोनों चटगांव के क्रांतिकारीयों के संपर्क में आई। प्रीति अक्सर कहा करती थी–संशस्त्र क्रांति के लिए नरमदिल होने से काम नहीं चलेगा, इससे टूट जाने का खतरा है। वह बुर्जुर्गों पर लेशमात्र संपर्क से भी घृणा करती थी।[iv]
कुछ दिनों तक गोपनीय रूप से बतौर क्रांतिकारी कार्य करती रही और जल्द ही घर छोड़कर वह “इंडियन रिपब्लिकन आर्मी” की महिला सैनिक बन गई।
धीरे–धीरे प्रीतिलता बंगाल के अग्रणी क्रांतिकारी सूर्य सेन के संपर्क में आई। सूर्य सेन 1930 में हुए चटगाँव शस्त्रागार कांड के नेता थे, जिनके छापामार दल में अनेक युवा क्रांतिकारी शामिल थे।
सूर्य सेन के पीछे पुलिस हाथ धोकर पड़ी हुई थी। 12 जून 1932 को जब सूर्य सेन अपने साथियों के साथ गुप्त योजना बना रहे थे, तब पुलिस ने उन्हें घेर लिया। दोनों तरफ से गोलीबारी हुई, जिसमें पुलिस और क्रांतिकारी भी शहीद हुए।
मास्टर सूर्य सेन और प्रीतिलता भागने में तो सफल हो गए मगर इस घटना के बाद प्रीतिलता भी पुलिस की निगाह में चढ़ गई। पुलिस ने प्रीतिलता की सूचना देने वाले को मुंहमांगा इनाम देने की घोषणा कर दी।
अखबारों में जब उनकी तस्वीर छापी गई, तब उनके माता–पिता को उनके क्रांतिकारी होने का पता चला। इस घटना के बाद प्रीतिलता का कद क्रांतिकारियों के बीच बढ़ गया।[v]
अंग्रेज़ों के सामने खा ली साइनाइड की गोली
एक छोटी से घटना का जिक्र कल्पना करती है, जिससे प्रीति के सुशील स्वभाव का पता चलता है। सन 1930 में पूजा के दिनों में उसने मुझे अपने घर पर दावत में शामिल होने के लिए बुलाया। हम दोनों आपस में इस बात पर चर्चा कर रही थीं कि क्या हम दोनों में से कोई एक गोश्त के लिए बकरे की बलि दे सकते है। मैंने कहा, हाँ, हा! मैं दे सकती हूँ बकरे की बली इसमें कोई खास बात नहीं। प्रीति ने कहा–सचमुच इसमें डरने की कोई बात नहीं है, परंतु मैं निरीह, अबोध जीव की हत्या नहीं कर सकती। किसी ने यकायक पूछा! फिर तुम लड़ने के लिए किसकी तलाश में हो? उसने फौरन जवाब दिया: यदि मैं देश की आजादी के लिए अपनी जान देने को तैयार हूँ जो जरूरी हो तो बेझिझक होकर किसी की जान ले भी सकती हूँ। परंतु, मैं एक निरीह, अहानिकारक, निर्दोष जीव की हत्या नहीं कर सकती।[vi]
इस घटना के दो वर्षों के भीतर ही अपनी जान देकर उसने साबित कर दिया कि जो कुछ उसने कहा था उसपर वह खरी उतरी।
अपने साथियों की मौत का बदला लेने के लिए सूर्य सेन से यूरोपियन क्लब पर आक्रमण करने की योजना बनाई, जिसका नेतृत्व प्रीतिलता कर रही थी। प्रीतिलता ने सैनिक वेशभूषा धारण कर खुद को पिस्तौल तथा बम से लैस किया, क्योंकि उनको पता था कि कड़े मुकाबले में क्रांतिकारियों पर अंग्रेज़ भाड़ी पर सकते हैं।
योजना के अनुसार 23 सितम्बर 1932 ने अंग्रेज़ों ने लोगों के साथ यूरोपियन क्लब पर आक्रमण कर दिया। हमला इतना घातक था कि किसी को संभलने का अवसर नहीं मिला। दोनों तरफ की गोलीबारी में जैसे ही एक गोली प्रीतिलता को लगी, वैसे ही उन्हें ब्रिटिश पुलिस अफसरों ने घेर लिया।
वह ज़िंदा पुलिस के हाथों नहीं आना चाहती थी, इसलिए उन्होंने साइनाइड की गोली खा ली जिससे मौके पर ही उनकी मौत हो गई। प्रीतिलता के पास से पुलिस को कागज़ का एक टुकड़ा मिला, जिसमें यूरोपियन क्लब पर हमले से लेकर खुद के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के बारे में विस्तार से लिखा गया था।
प्रीतिलता वाडेदार की क्रांतिकारी गतिविधियों का लेखा-जेखा
13 जून 1932 को कैप्टन कैमरोन दालघाट में जब एक खोज पार्टी का नेतृत्व कर रहा था तो उसकी मुठभेड़ निर्मल सेन तथा अपूर्व सेन नामक दो क्रांतिकारीयों से हुई जिन्होंने कैमरोन को मौत के घाट उतार दिया। सूर्यसेन प्रीतिलता वाडेदार तथा गिरोह में शामिल एक अन्य लड़की भाग निकलने में कामयाब हुए।[vii]
यह एवर्ट द्वारा दिया गया विवरण था। कल्पना दत्ता अपनी कितान चटगांव आरमरी रेडर्स–रेमनी सेंसेज में लिखती है –
मई 1932 में प्रीति मास्टर दा से मिलने उनके गांव दालघोट गई थी। गोधूल के समय कैप्टन कैमरोन के नेतृत्व में एक पुलिस पार्टी ने उनके मकान को चारों ओर से घेर लिया। कैमरोन ने मशीनगन से गोलियां चलाई। हमारी ओर से भी रिवाल्वर से गोलियां चलाई गई। प्रीति इसके पूर्व किसी कार्रवाई में शामिल नहीं हुई थी।
परंतु कुछ मिनटों के भीतर ही उसने स्थिति का आकलन करके स्वयं गोलियां चलानी शुरु कर दीं। कैमरोन मारा गया परंतु, निर्मल दा बुरी तरह घायल हो गए। कैमरोन की टुकड़ी थोड़ी देर भ्रम में पड़ गई। इसी बीच आदेश हुआ, बचो!
वहीं प्रीति को कुछ पल पूर्व मजबूती से गोलियां चला रही थी, कुछ ही मिनटों के बाद इतनी नरम पड़ गई कि एक घायल कामरेड को छोड़कर वह भाग नहीं सकी।…
कैमरोन पर गोली चलाने की घटना के प्रश्चात प्रीति दूर चली गई। उसके कपड़े घर में पाए गए। वह घर वापस आ गई परंतु, पुलिस को उसपर संदेश नहीं हुआ। ऎसी शांत लड़की के क्रांतिकारीयों के गुट में शामिल होने का उन्हें स्वप्न में अंदाजा नहीं था।
मास्टर दा ने संदेश भिजवाया कि उसे कस्बें में महफूज रखा जाए। वह भूमिगत हो गई। 5 जुलाई को खुफिया ब्यूरो का इंस्पेक्टर प्रीति को गिरफ्तार करने गया। परंतु प्रीति उसे नहीं मिली। वह मेरे घर आया तथा मुझसे सख्ती से पूछताछ की। उसने कहा-वह कितनी शांत लड़की है। कितनी अच्छी तरह से बात करती है।
मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि वह अपने अंदर इतना कुछ समेटे हुए है। उसने हमें पूरी तरह से मूर्ख बना दिया।[viii]
बाद में प्रीति ने 24 सितंबर 1932 को पहाड़ताली क्लब पर धावा बोला। इस हमले में मुख्य हाल में बम फेंके गए तथा बंदूको एवं रिवाल्वरों से गोलियां चलाई गई। उस समय हांल में लगभग 40 लोग मौजूद थे।
एक औरत मारी गई और चार अन्य घायल हो गए। इससे ज्यादा ही लोग हताहत हो सकते थे परंतु, किसी ने अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए बत्तियां बुझा दीं।
इस अफरा-तरफी में बाकी क्रांतिकारी तो भाग निकते परंतु, पुरुष वेशधारी प्रीतिलता वाडेदार हाल से कुछ दूर बाहर मृत पाई गई। उसने गिरफ्तार होने के अपेक्षा सायनाइड खाकर जान देना बेहतर समझा।
प्रीति के पास एक पर्चा प्राप्त हुआ जिसमें लिखा गया था कि यह छापा युद्धक कार्रवाई का नमूना था। उस दिन चार प्रकार के अन्य पम्फलेट बांटे गए जिसमें अध्यापकों , विद्यार्थियों तथा जनता से ब्रिटिश शासकों तथा यूरोपियों के विरुद्ध अभियान छेड़ने की अप्रील की गई थी।[ix]
यही नहीं, उन्होंने उस कागज में आज़ादी की लड़ाई में पुरुषों और महिलाओं के बीच लैंगिक भेदभाव का भी ज़िक्र किया था। प्रीतिलता का वह नोट आज आधी आबादी को पढ़ने की ज़रूरत है।
प्रीति की मृत्यु के विषय में कल्पना दत्ता ने जो कुछ कहा वह इस प्रकार है:
आठ लड़कों ने प्रीति के नेतृत्व में धावा बोला। सभी लड़के सुरक्षित वापस लौट गए परंतु प्रीति फिर कभी नहीं लौटी। उसने क्लब हाउस से लगभग 10 गज की दूरी पर पोटैशियम सायनाइड खाकर अपनी जान दे दी। उसकी छाती में एक नुकीली खपच्ची लग जाने से घाव हो गया था जिससे खून रिस रहा था।
उसकी पूरी कमीज खून से तर हो गई थी। क्रांतिकारियों की अर्थी उठाने के लिए बड़ी मात्रा में लोग एकत्र होते। परंतु प्रीति पहली महिला थी जो अपने कारनामों को अंजाम देते-देते मौत को गले लगा लिया…
प्रीति की कारगुजारियों को देखने [x]के बाद लोग पहली बार इस तथ्य से सहमत हुए कि जो कुछ पुरुषों ने किया है, वही काम भारतीय स्त्रियां भी कर सकती हैं। वे भी पुरुषों के भांति देश के ऊपर अपना जीवन न्यौछावर कर सकती हैं।
सशस्त्र क्रांतिकारियों की रणनीति को लेकर चाहे कोई कितनी ही नुक्ताचीनी करे, सारा चटगांव प्रीति को अपनी बहादुर बेटी के रूप में याद करता है। वे बड़ी श्रद्धा से कहते हैं: उसने अपने आप को पुलिस के हवाले नहीं किया…
संदर्भ स्त्रोत
[i] कल्पना दत्ता, कल्पना दत्त, चटगांव आरमरी रेडर्स-रेमनी सेंसेज पीपुल्स पब्लिश हाउस दिल्ली, 1945,51-56
[ii] कल्पना दत्ता, कल्पना दत्त, चटगांव आरमरी रेडर्स-रेमनी सेंसेज पीपुल्स पब्लिश हाउस दिल्ली, 1945,50-52
[iii] वहीं.
[iv] राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, 2011,82-83
[v] राधा कुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, 2011,82-83
[vi] कल्पना दत्ता, कल्पना दत्त, चटगांव आरमरी रेडर्स-रेमनी सेंसेज पीपुल्स पब्लिश हाउस दिल्ली, 1945,56
[vii] जे.एम.एवर्ट, डायरेक्टर, इंटेलीजेंस ब्यूरो, होम डिपार्टमेंट गवर्नमेंट आफ इंडिया, कंपाइलर टेररिज्म इन इंडिया 1917-36, गर्वमेंट सेंट्रल प्रेस, 1973, पृष्ठ 31
[viii] कल्पना दत्ता, पूर्वोक्त-पृष्ठ 54-55
[ix] एवर्ट, पूर्वोक्त-पृष्ठ 33-34
[x] कल्पना दत्ता, पूर्वोक्त-पृष्ठ 51-52
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री