बंगाल में समाजसुधार के जनक राममोहन राय : जन्मदिन विशेष
यूरोप में 14वीं से 16वीं शताब्दी की अवधि को रेनेसांस (पुनर्जागरण/नवजागरण) की अवधि कहा गया है. यह आधुनिक विज्ञान के जन्म से पहले का दौर था. ख़ासकर कला के क्षेत्र में इसका उत्कर्ष देखने को मिला, सैद्धान्तिक विज्ञान व दर्शनशास्त्र के क्षेत्रों में भी. लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि रेनेसांस ने रूढ़ियों और वर्जनाओं को नकारने व तार्किकता को प्रतिष्ठित करने की दृष्टि प्रदान की, जिसके आधार पर आधुनिक ज्ञान और विज्ञान और अन्ततः आधुनिकता का उन्मेष सामने आया.
रेनेसांस हालांकि एक यूरोपीय प्रतिभास था, लेकिन मानवजाति के इतिहास में इसकी बौद्धिक-सांस्कृतिक-सामाजिक पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाले हर दौर के लिये यह शब्द प्रयोग में आ चुका है. फ़्रांसीसी भाषा के इस शब्द का अर्थ है पुनर्जन्म. ईसाई परम्पराओं को नज़रन्दाज़ करते हुए प्राचीन ग्रीक व रोमन कला, साहित्य और दर्शनशास्त्र की परम्पराओं से जुड़ने के साथ इसकी शुरुआत हुई थी.
पादरियों के कर्मकांडों की व्यवस्था व गिरजे के वर्चस्व का स्थान तार्किकता व सृजनात्मकता को दिया जाने लगा था. रेनेसांस का केन्द्र इटली के नगर थे, लेकिन इस आन्दोलन से आने वाली सदियों में यूरोप के विभिन्न देशों में दो महत्वपूर्ण धाराओं का जन्म हुआ, जिन्होंने आधुनिकता की नींव डाली.
पहली धारा रिफ़ॉर्मेशन या धर्मसुधार की थी, जिसका आरम्भ जर्मनी में लोकभाषा में बाइबिल का अनुवाद करते हुए मार्टिन लूथर ने किया था. इसके फलस्वरूप यूरोप में पोप व रोमन कैथलिक सम्प्रदाय के शिकंज़े को तोड़ते हुए प्रोटेस्टैंट सम्प्रदाय का विकास हुआ. दूसरी धारा प्रबोधन की थी. इसके प्रमुख प्रतिनिधियों में शामिल थे दिदेरो, ह्युम, ऐडम स्मिथ, लाइबनित्ज़, कांट, स्पिनोज़ा व सबसे बढ़कर वोल्तेयर और रूसो. इनके विचारों की परिणति हमें फ़्रांसीसी क्रान्ति में देखने को मिली, जिसमें पहली बार समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का नारा दिया गया – इन्सान को आज़ाद घोषित किया गया.
भाभी के सती होने के बाद जागा सती प्रथा के विरोध का विचार
इतिहासकार सुशोभन सरकार का कहना है कि रेनेसांस के दौर में इटली की जैसी केन्द्रीय भूमिका थी, भारत में उन्नीसवीं सदी के रेनेसांस में बंगाल की भी वैसी ही भूमिका देखी जा सकती है और निश्चित रूप से इसके प्रवर्तक थे राम मोहन राय.
राम मोहन राय के समय के आसपास ही हमें महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले, यहाँ तक कि ग़ालिब के विचारों और सर सैयद अहमद के कार्यों में, आचार्य दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना में पुराने युग के अन्त व एक नये युग की शुरुआत की कशमकश या उसके संकेत दिखते हैं. लेकिन एक बुनियादी फ़र्क़ है. राम मोहन राय ने जिस सिलसिले की शुरुआत की, वह बंगाल की ज़मीन पर फलता-फूलता रहा. साथ ही, वह एक समग्र चिन्तक व समाज सुधारक के रूप में सामने आये, जिनकी गतिविधियाँ विभिन्न क्षेत्रों में रही.
और इसी प्रसंग में रेनेसांस, व उसके बाद रिफ़ॉर्मेशन और प्रबोधन के पक्षों के साथ राम मोहन राय के विचारों और कार्यों की तुलना दिलचस्प हो जाती है. सतीप्रथा के ख़ात्मे पर लक्षित उनके प्रयासों के लिये आमतौर पर उन्हें जाना जाता है और यह स्वाभाविक है. तरुण राम मोहन के विरोध के बावजूद भाई के देहांत के बाद उनकी भाभी को ज़िन्दा जला दिया गया था और यह उनके लिये असहनीय था. “महासती” के उल्लसित नारे के साथ उस युवती को जलाया जा रहा था, कहा जा रहा था कि यह सनातन धर्म का आदेश है. बालक राम मोहन के मन में उसी वक़्त प्रश्न जगा था कि क्या धर्मपुस्तकों में ऐसा कहा गया है?
राम मोहन को बचपन में गांव के पाठशाला में बांगला व फ़ारसी की (प्रारम्भिक) शिक्षा मिली थी. नौ साल की उम्र में उन्हें पटना के एक मदरसे में भेजा गया, जहाँ उन्होंने अरबी और फ़ारसी की शिक्षा प्राप्त की.
11 साल की उम्र में वह बनारस आये, जहाँ उन्होंने संस्कृत का अध्ययन करते हुए वेदों और उपनिषदों के बारे में जानकारी हासिल की. इसके बाद वह कई साल तक उत्तर व पूर्वी भारत के विभिन्न स्थानों की यात्रा करते रहे, कुछ सूत्रों के अनुसार उन्होंने तिब्बत की भी यात्रा की, लेकिन इस बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती है व परस्परविरोधी दावे किये गये हैं.
बाइबिल का किया बांग्ला अनुवाद
राम मोहन के जीवन का सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से सक्रिय दौर 22 साल की उम्र में 1795 में शुरू होता है, जब वह बंगाल वापस आये व अंग्रेज़ मिशनरी विलियम केरी के साथ उनका संवाद शुरू हुआ.
इस बीच राम मोहन की आस्था एकेश्वरवाद में हो चुकी थी. केरी बांगला गद्य की भाषा तैयार कर रहे थे. उन्होंने एक बांगला व्याकरण की रचना की थी और बाइबिल का अनुवाद कर रहे थे. वह बंगाल में स्थानीय लोगों के बीच स्थानीय भाषा में ईसाई धर्म का प्रचार करना चाहते थे.
तांत्रिक पंडित हरिहरानन्द विद्यावागीश ने केरी से राम मोहन का परिचय करवाया था. ईश्वर की सत्ता के बारे में तीनों के अनेक विचार मिलते थे और उन्होंने मिलकर महानिर्वाण तंत्र नामक एक पुस्तक की रचना की. कहना मुश्किल है कि इसमें केरी का कितना योगदान था. अगले दो दशकों में इसमें अनेक आयाम जोड़े गये.
उन दिनों दीवानी मुकदमो में हिन्दू व मुस्लिम धर्मशास्त्रों के नियमों पर ध्यान दिया जाता था. अदालतों में इस पुस्तक के विधि सम्बन्धी विचारों को ग्रहण किया जाने लगा. लेकिन जल्द ही कुछ न्यायाधीश राम मोहन के विचारों को शक की नज़र से देखने लगे व इस पुस्तक का प्रयोग धीरे-धीरे बन्द हो गया.
इस दौर में राम मोहन अभी तक विवादास्पद नहीं बने थे. 1797 में वह कलकत्ता में बनिये के रूप में अंग्रेज़ कर्मचारियों को कर्ज़ देते थे, साथ ही अदालत में हिन्दू पंडित के रूप में काम कर रहे थे. 1803 से 1815 तक वह मुर्शिदाबाद में कम्पनी के क्लर्क के रूप में कार्यरत थे. उन दिनों ऐसे कामो में अच्छा-ख़ासा वेतन मिलता था. वैसे भी राम मोहन खाते-पीते परिवार के थे. उनकी आर्थिक सम्पन्नता बढ़ रही थी.
जब ‘विधर्मी’ राम मोहन पर माँ ने किया मुक़दमा
लेकिन अपने परिवार में उन्हें विधर्मी के रूप में देखा जाता था, क्योंकि वह कर्मकांडों के विरोधी थे. यहां एक दिलचस्प घटना का उल्लेख किया जा सकता है.
पिता की मृत्यु के बाद उनकी माता ने उनके खिलाफ़ एक दीवानी मुकदमा दायर करते हुए पारिवारिक सम्पत्ति से उन्हें वंचित करने की मांग की. उनकी माता का कहना था कि वह विधर्मी हो गये हैं, इसलिये सम्पत्ति पर उनका अधिकार नहीं रह गया है. शुरु में राम मोहन ने अपनी माता की मांग मान लेने को सोचा, फिर उन्हें लगा कि यह सिद्धान्त का सवाल है.
खैर, मुकदमे में राम मोहन की जीत हुई. जीत के बाद उन्होंने पूरे सम्मान के साथ अपनी माता को पूरी सम्पत्ति सौंप दी.
मुर्शिदाबाद में ही 1804 में राम मोहन ने तुहफ़ात-उल-मुव्वहिदीन (एकेश्वरवादियों के लिये उपहार) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी. उस समय विमर्श की भाषा के रूप में बांगला गद्य की भाषा विकसित नहीं हुई थी.
बांगला का कोई व्याकरण भी नहीं था. विलियम केरी का बांगला व्याकरण अंग्रेज़ पाठकों को ध्यान में रखते हुए लिखा गया था और उसमें संस्कृत स्रोतों और शब्दों की बहुलता थी. इसके विपरीत राम मोहन राय ने बांगला में गद्य रचना की शुरुआत करते हुए 1826 में व्याकरण की भी एक किताब लिखी, जिसका नाम था Bengali Grammar in the English Language. यह पुस्तक बंगाली पाठकों के लिये भी लिखी गई थी.
कलकत्ता में मानिकतला के मकान से संगठन की शुरूआत
बहरहाल, 1814 से राम मोहन कलकत्ता में स्थायी रूप से रहने लगे थे. मानिकतला में उन्होंने एक मकान खरीद लिया था. यहीँ उन्होंने एकेश्वरवाद के प्रचार के लिये एक संगठन की स्थापना की, जिसका नाम था आत्मीय सभा. यहाँ एकेश्वरवाद पर विचार विमर्श के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों, मसलन सतीप्रथा, बाल विवाह, बहुविवाह या दहेज प्रथा को मिटाने के उपायों पर विचार किया जाता था.
इसी के साथ शुरू हो गया रूढ़िवादी हिन्दू समाज में उनका तीव्र विरोध. वैचारिक स्तर पर इस विरोध का नेतृत्व कर रहे थे मृत्युंजय तर्कालंकार, लेकिन इस अभियान को शोभाबाजार के राजा राधाकान्त देब का समर्थन प्राप्त था. राम मोहन जब बाहर निकलते थे तो उनकी पालकी पर ढेले फेंके जाते थे. यहाँ तक कि उन्हें जान से मारने की भी धमकियाँ दी गई.
ईसाई पादरियों की ओर से भी उनका विरोध हुआ, जिनका कहना था कि राम मोहन ईसा के उपदेशों को तो स्वीकार करते हैं, लेकिन उनकी ईश्वरीय सत्ता व चमत्कारों को नकारते हैं. आत्मीय सभा का काम चलता रहा, जिसे बाद में ब्राह्म समाज का रूप दिया गया.
साथ ही, 1815 से 1819 के बीच उन्होंने बांगला में वेदान्तग्रन्थ, वेदान्तसार व केनोपनिषद, ईशोपनिषद, कठोपनिषद, माण्डुक्योपनिषद और मुण्डोकोपनिषद का अनुवाद प्रकाशित किया. जिस समाज में शुद्रों के लिये वेदों को सुनना भी वर्जित माना जाता था, वहाँ हर किसी के समझने लायक बांगला में इन पुस्तकों का अनुवाद रूढ़िवादी-पुरोहितवादियों के लिये एक खुली चुनौती था.
पत्रकारिता की शुरूआत और हिन्दू कॉलेज की स्थापना
उन्होंने फ़ारसी, अंग्रेज़ी व बांगला में कई अखबार भी निकाले. विरोध बढ़ता गया, लेकिन उन्हें प्रभावशाली लोगों का समर्थन भी मिला.
रवीन्द्रनाथ के दादा द्वारकानाथ से उनकी मित्रता हुई और सामाजिक कामों के लिये आर्थिक मदद भी मिलती रही. उनके प्रयासों से कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज (आज का प्रेसिडेन्सी विश्वविद्यालय) व उसके बाद स्कॉटिश चर्च कॉलेज की स्थापना हुई.
राम मोहन राय को इनके संचालन से अलग रखा गया, क्योंकि कई लोगों को डर था कि विधर्मी के रूप में बदनाम व्यक्ति को साथ रखने से हिन्दू छात्र नहीं आयेंगे. उग्र हिन्दुत्व की रक्षा का ऐसा प्रयास कालक्रम में पूरी तरह से विफल रहा और प्रेसिडेन्सी कॉलेज राम मोहन की मृत्यु के कुछ दिनों के बाद ही हेनरी डिरोज़ियो के नेतृत्व में यंग बेंगाल के साये में हिन्दुत्व के विरोध व तर्कशील चिन्तन का एक गढ़ बन गया.
उन दिनों ईस्ट इंडिया कम्पनी हर साल औसतन तीस लाख पौंड इंगलैंड में भेज देती थी. राम मोहन राय का मानना था कि यह कम्पनी के अधीन भारत से प्राप्त कर का आधा हिस्सा हे. इस स्थिति से उबरने के लिये उनकी राय में कम्पनी के एकाधिकार के बदले मुक्त व्यापार ज़रूरी था.
यह विचार उनके लिये एक जनून के समान था, जिसके चलते उन्होंने अत्याचार गोरे नीलकरों का भी समर्थन किया. उनका कहना था कि नील की खेती से बंगाल में विकास हो रहा है. द्वारकानाथ भी नीलकरों के समर्थन में थे. ये नीलकर जाली दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर कराते हुए गरीब किसानों से लगभग लागत मूल्य पर नील की खेती करवाते थे. न मानने पर किसानों पर भयानक अत्याचार किया जाता था.
सतीप्रथा कानून के लिए संघर्ष
विलियम केरी व राम मोहन राय लगातार सतीप्रथा का विरोध कर रहे थे. राम मोहन का विरोध इसलिये ज़्यादा प्रभावशाली था, क्योंकि उसका असर उभरते भद्रलोक समुदाय के एक हिस्से पर पड़ रहा था.
1829 में गवर्नर जनरल बेन्टिंक ने सतीप्रथा को गैरकानूनी घोषित करते हुए कानून बनाया. हिन्दू समाज के रुढ़िवादी प्रमुखों ने इस कानून के खिलाफ़ प्रिवी कौंसिल में अपील की.
द्वारकानाथ की आर्थिक मदद से राम मोहन राय ने इस कानून के लिये समर्थन जुटाने की ख़ातिर ब्रिटेन की यात्रा की. तत्कालीन मुग़ल सम्राट अकबर शाह ii ने भी उन्हें राजा की उपाधि देते हुए उनकी मदद की व उन्हें ब्रिटेन में अपना दूत बनाकर भेजा.
ब्रिटेन में राम मोहन राय के तीन काम थे. सतीप्रथा को बन्द करने के कानून का समर्थन, मुग़ल सम्राट के वजीफ़े में वृद्धि के लिये ब्रिटिश सम्राट से पैरवी, और अत्याचारी नीलकरों के समर्थन में एक पिटीशन प्रदान करना.
अपने तीनों कामों में वह सफल रहे-
राम मोहन राय के जीवन व कार्यों का यह विवरण बंगाल रेनेसांस के चरित्र को समझने के लिये बेहद ज़रूरी है. उन्हें इस रेनेसांस का जनक कहा जाता है. लेकिन यूरोप में रेनेसांस में से धर्मसुधार या रिफ़ॉर्मेशन का आन्दोलन पनपा.
राम मोहन राय के कामों की शुरुआत व उनका मुख्य भाग धर्मसुधार को समर्पित था, जिनमें से रेनेसांस के साथ तुलना करने लायक दूसरे पक्ष उभरे. 1833 में इंगलैंड में उनकी मौत के कुछ ही सालों पाद कलकता के प्रेसिडेन्सी कॉलेज में यंग बेंगाल आन्दोलन पनपा, जिसकी तुलना प्रबोधन के साथ की जा सकती है.
देवेन्द्रनाथ ठाकुर के नेतृत्व में ब्राह्म समाज का धर्मसुधार आन्दोलन चलता रहा और उसी के समानान्तर रेनेसांस की अनेक धारायें भी, रवीन्द्रनाथ को जिनका मुहाना कहा जा सकता है.
सिर्फ़ प्रक्रियाओं का क्रम ही यूरोप के विपरीत नहीं रहा, बल्कि इन प्रक्रियाओं में परम्परा और नवजागृति के अन्तर्सम्बन्ध भी अलग रहे. औपनिवेशिक शोषण, उसके खिलाफ़ प्रतिरोध की एक भावना (उस दौर में इतना ही, इससे ज़्यादा नही) और साथ ही, औपनिवेशिक शासन के छिद्रों से आता हुआ यूरोपीय नवजागरण का चिन्तन – इन सबकी इसमें एक भूमिका रही. निष्कर्ष के रूप में शायद कहा जा सकता है कि हाँ, यह रेनेसांस था, लेकिन…
जो कुछ भी था, निश्चित रूप से राम मोहन राय उसके जनक थे.
उज्ज्वल भट्टाचार्य जर्मनी में रहते हैं जहाँ उन्होंने कई दशकों तक पत्रकारिता की। जर्मन और अंग्रेज़ी से ढेरों कविताओं के अनुवाद। हाल ही में उनकी लिखी रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक जीवनी प्रकाशित हुई है।