पंडित रतन नाथ धर “सरशार”: कश्मीरियत और गंगा-जमनी तहजीब के प्रतीक
अंग्रेजी के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासकारों में से एक चार्ल्स डिकिन्स ने “पिकविक पेपर्स” नाम से एक उपन्यास लिखा था। यह उपन्यास उन्नीसवी सदी में लंदन के अखबारों में क़िस्तों में छापा जाता था (अंग्रेजी में इसे “Serialized Novel” कहते थे, चूंकि उस समय सभी उपन्यास ऐसे छपते थे)। इस उपन्यास में पिकविक नामक सज्जन अपने साथियों के साथ इंग्लैंड की अलग-अलग जगह पर घूमते और वहाँ हुई रोचक घटनाओं और किरदारों के बारे में अपनी डायरी में लिखते। यह उपन्यास अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थियों और पाठक वर्ग में भी बहुत चर्चित रहा है।
क्या आप जानते हैं कि इस उपन्यास से प्रेरित होकर लखनऊ के एक साहब ने “फ़साना-ए-आजाद” नाम से उर्दू का उपन्यास लिखा? कि वह उपन्यास लखनऊ के एक अखबार में उसी तरह क़िस्तों में छपा? और सबसे रोचक तथ्य, कि लिखने वाले साहब एक कश्मीरी पंडित थे?
कश्मीर से आकर लखनऊ बसा परिवार
तो बात हो रही है 1870 और 80 के दशक में लखनऊ शहर के प्रसिद्ध लेखक, पत्रकार और उपन्यासकार रतन नाथ धर “सरशार” की। “सरशार” उनका लेखकीय उपनाम था जिसका अर्थ है ‘मस्ती से लवरेज़ या लबालब भरा हुआ’। कई विद्वान यह मानते हैं कि रतन नाथ धर द्वारा लिखा गया यह उपन्यास ‘फ़साना ए आज़ाद ’ उर्दू के सबसे शुरुआती उपन्यासों में से एक है।
रतन नाथ का जन्म 1846 या 47 में लखनऊ में हुआ। उनके पिता बैजनाथ धर एक व्यापारी थे जो कश्मीर से आकर लखनऊ में बस गए थे। वे कश्मीरी पंडितों की उस लंबी परंपरा का हिस्सा रहे थे जहाँ अरबी-फारसी में पारंगत और सुशिक्षित यह क़ौम अट्ठारहवी व उन्नीसवी सदियों में कश्मीर से दिल्ली, लखनऊ आदि शहरों में आकर बस गई थी।
इसी परंपरा का हिस्सा मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू के पुरखे भी रहे थे जो पहले कश्मीर से दिल्ली आए फिर आगरा और अंततः इलाहाबाद में बस गए।
रतन नाथ के पिता की मृत्यु उनकी बाल्यावस्था में ही हो गई। तत्पश्चात, उनकी माँ ने ही उनका लालन-पालन किया। रतन नाथ की शिक्षा-दीक्षा उस समय के कश्मीरी पंडित परिवारों की तरह अरबी-फारसी में हुई और उच्च शिक्षा लखनऊ के कैनिंग कॉलेज से बताई जाती है, जहाँ उन्होंने बिना डिग्री लिए हुए कॉलेज छोड़ दिया।
यही कैनिंग कॉलेज कालांतर में लखनऊ विश्वविद्यालय बना।
पहले टीचर फिर संपादक और लेखक बनने का सफर
रतननाथ ने शुरुआत में आज के लखीमपुर खीरी ज़िले में शिक्षक की नौकरी की। फिर 1878 में उन्हें “अवध अखबार” का संपादक नियुक्त किया गया जिसकी स्थापना स्थापना 1858 में मुंशी नवल किशोर ने की थी।
नवल किशोर को “भारत का कैक्सटन” कहा जाता है चूंकि जैसे सत्रहवी शताब्दी में विलियम कैक्सटन ने इंग्लैंड में बाइबल की हजारों प्रतियाँ छापकर घर-घर पहुँचाईं, वही काम नवल किशोर ने भारत में उर्दू, देवनागरी, अरबी, फारसी, बांग्ला और अंग्रेजी भाषाओं में हजारों किताबें छापकर किया।
‘अवध अखबार’ 1884 में हर दिन छपने होने के बाद उत्तर भारत भारत का पहला उर्दू दैनिक माना जाता है। मुंशी नवल किशोर के इसी ‘अवध अखबार’ में रतन नाथ धर “सरशार” का उपन्यास ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ 1878 से छपना शुरू हुआ।
1883 तक छपी “फ़साना-ए-आजाद” की क़िस्तों में मुख्य क़िरदार आज़ाद साहब किसी लखनवी नवाब की तर्ज पर तकल्लुफ से घूमते-फिरते अपने दोस्त खोजी के साथ लखनऊ की गलियाँ नापने से लेकर उस समय रूस और तुर्की के बीच जंग का मैदान बने कुस्तुनतूनिया (आज के इस्तान्बुल) तक सैर कर आते हैं।
मुख्य किरदार आजाद साहब बड़बोले और मनमौजी भी हैं और यह माना जाता है कि उनका चरित्र श्रीमान पिकविक के साथ-साथ प्रसिद्ध फ्रांसीसी उपन्यास चरित्र डॉन किहोते (Don Quixote) से भी प्रेरित है।
पत्रकारिता में चित्रों व कार्टून के जरिए व्यंग्य की शुरुआत
रतन नाथ धर ने “अवध पंच” नामक एक पत्रिका के लिए भी काम किया जो चित्रों व कार्टून के जरिए राजनैतिक व्यंग्य करने वाली पत्रिका (Satirical Magazine) थी।
1877 से 1937 के बीच सक्रिय रही अवध पंच पत्रिका की प्रेरणा उसके संस्थापक मुंशी सज्जाद हुसैन को इंग्लैंड में 1830 के दशक में छपने वाली ऐसी ही पत्रिका “पंच” से मिली थी। आपको यह जानकार हैरत होगी कि अंग्रेजी पत्रिका “पंच” ने ही पहली बार व्यंग्यात्मक चित्रों व कलाकृतियों के लिए ‘कार्टून’ शब्द का प्रयोग किया था।
बहरहाल, पंडित रतन नाथ धर “सरशार” 1895 में हैदराबाद चले गए जहाँ उन्होंने हैदराबाद राज्य के प्रधानमंत्री रहे सर किशन प्रसाद को अपनी सेवाएँ देनी प्रारंभ कीं। किशन प्रसाद खुद भी उर्दू व फारसी लेखन में हाथ आजमा रहे थे और रतन नाथ का काम था उनकी भाषा व व्याकरण को दुरुस्त करना। यहीं 1903 में उन्नीसवी सदी की एक दिलचस्प शख्सियत रहे रतन नाथ धर “सरशार” का इंतकाल हुआ।
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पंडित रतन नाथ धर “सरशार” भारतीय सभ्यता की उस सहज मिलीजुली परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां भाषा और संस्कृति का धर्म के आधार पर बंटवारा नहीं हुआ। और वे ऐसे अकेले भी नहीं थे। ब्रिज नारायण “चकबस्त” एक अन्य उर्दू परंपरा के अदीब थे जिनकी कविताओं को 2012 की फिल्म “मसान” में भी जगह दी गई है।
जहाँ तक बात है रतन नाथ की, तो उनके उपन्यास को उर्दू साहित्य में मील का पत्थर माना गया है। “अवध अखबार” में क़िस्तों में छपने के बाद नवल किशोर प्रेस ने इसे एक उपन्यास की शक्ल में छापा और अंततः रतन नाथ धर ने इसके तीन और खंड तैयार किए।
इस उपन्यास को तत्कालीन लखनऊ शहर के अदब-आदाब, तौर-तरीकों और नवाबी तहजीब से लेकर समाज के हर वर्ग के चित्रण के लिए खूब सराहा गया। लखनऊ के तीज त्योहार, बाजार-मेले, मौज-मस्ती और आम ज़िंदगी को जिस जीवंतता के साथ “फ़साना-ए-आजाद” में दर्शाया गया है, इसके कारण इस उपन्यास को ‘लखनवी संस्कृति का इन्साइक्लोपीडिया’ भी कहा जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि “फ़साना-ए-आजाद” के ऊपर ही प्रख्यात हिन्दी लेखक शरद जोशी ने 1980 के दशक में दूरदर्शन पर “वाह जनाब” नामक सीरियल तैयार किया।
-जो लोग उर्दू-फारसी लिपि से वाकिफ हैं, वे “फ़साना-ए-आजाद” का पहला खंड यहाँ पढ़ सकते हैं।
-“फ़साना ए आजाद” के एक क़िस्से का अंग्रेजी अनुवाद यहाँ दिया है।
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।