क्यों हुई थी नेहरू और मौलाना आजाद के बीच अनबन?
नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद(1888-1958)आपस में बहुत अच्छे दोस्त थे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में थे। लेकिन पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी से गठबन्धन के प्रश्न पर दोनों में मतभेद हो गया था। जैसा कि किसी भी राजनीतिक दल में होता है, कुछ लोगों ने मतभेदों को हवा देकर दोनों के आपसी रिश्तों को बिगाड़ने की कोशिश भी की। कुछ अन्य मतभेदों और शालीन बहसों के बाद नेहरू ने मौलाना की दूरदृष्टि को स्वीकार्य किया और आपसी रिश्ते बहाल कर लिये।][i]
क्यों पंजाब में सरकार बनाना एक जटिल मुद्दा था
पंजाब में स्थिति विशेषकर बड़ी जटिल थी। इस प्रान्त में मुसलमान बहुत जनसंख्या थी पर किसी भी पार्टी को यहाँ स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। मुस्लिम सदस्य यूनियनिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग में बंटे हुए थे। मैंने इन दोनों ही दलों से बातचीत की। जैसा मैं पहले कह चुका हूं कि श्री जिन्ना के आदेश से लीग में मेरा निमंत्रण अस्वीकार कर दिया।
परन्तु मैं बातचीत को इस ढंग से पूरा करने में सफल हुआ कि यूनियनिस्ट पार्टी को कांग्रेस के सहयोग से मंत्रिमंडल बनाने का अवसर मिल जाए। गवर्नर का रुझान व्यक्तिगत रूप से मुस्लिम लीग की ओर था मगर उनके सामने सिवाय ख़िज्र हयात खां जो यूनियनिस्ट पार्टी के नेता थे, को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के अलावा कोई विकल्प न था।
यह पहला अवसर था जब कांग्रेस पंजाब के मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुई थी। यह एक ऐसी बात थी जिसे तब तक बिल्कुल असम्भव समझा जाता था। पंजाब में मंत्रिमंडल के निर्माण के लिए हुए विचार-विमर्श के दौरान मैंने जिस कौशल और राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया उसकी चर्चा देश-भर के राजनीतिक क्षेत्रों में की गई।
देश-भर में स्वतंत्र सदस्यों ने मुक्त कंठ से मुझे बधाइयाँ दीं। नेशनल हैरल्ड युक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) कांग्रेस का मुखपत्र था। उसने मुझे बधाई दी और कहा कि जिस ढंग से मैंने पंजाब की जटिल और कठिन समस्या का समाधान किया है तथा इस स्थिति को सुधारने में जो सफल प्रयत्न किया है, ऐसा कौशल और ऐसी राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय किसी अन्य कांग्रेसी नेता ने नहीं दिया है।
देश की इस प्रतिक्रिया से मुझे अधिक प्रसन्नता मिली, परन्तु एक बात ऐसी हुई जिससे मुझे दु:ख हुआ। कांग्रेस में मेरे कार्यकलाप के प्रारम्भिक काल से ही जवाहरलाल और मैं अभिन्न मित्र हो गए थे। हमारे मन हमेशा मिल रहे और हमें सदैव एक-दूसरे का सहारा रहा है।
क्यों नेहरू पंजाब में गंठबंधन सरकार से थे असहमत
हम दोनों के बीच किसी भी प्रतिद्वंद्विता अथवा ईर्ष्या का प्रश्न कभी नहीं उठा था और मैने सोचा था कि ऐसी बात कभी भी नहीं उठेगी। वास्तव में, मैं जवाहरलाल को अपने भाई का बेटा मानता थाा और मुझे अपने पिता के मित्र की तरह सम्मान देते थे।
जवाहरलाल बड़े स्नेहशील और उदार व्यक्ति हैं तथा व्यक्तिगत्त ईर्ष्या-द्वेष के लिए उनके मन में कोई जगह नहीं। परन्तु उनके सम्बन्धियों और मित्रों में से कुछ ऐसे थे जिन्हें मेरे साथ उनके हार्दिक सम्बन्ध अच्छे नहीं लगते थे। उनका यह प्रयत्न था कि मेरे और जवाहरलाल के बीच मनमुटाव और ईर्ष्या पैदा हो जाए।
परन्तु जवाहरलाल अधिक स्वाभिमानी थे और वे यह स्वीकार नहीं कर पाते थे कि कोई भी अन्य व्यक्ति उनसे अधिक सहायता अथवा प्रशंसा प्राप्त कर सके। सैद्धान्तिक बातों के प्रति जवाहरलाल के मन में कमज़ोरी है और जवाहरलाल को मेरे विरुद्ध करने के लिए उन्होंने इसका लाभ उठाया। उन्होंने जवाहरलाल से कहा कि यूनियनिस्ट पार्टी के साथ कांग्रेस के गठबंधन का सिद्धांत ग़लत है।
जवाहरलाल यह दलील दी कि मुस्लिम लीग जन-संगठन है और पंजाब में कांग्रेस को मुस्लिम लीग के साथ मिला-जुला मंत्रिमंडल बनाना चाहिए था न कि यूनियनिस्ट पार्टी के साथ। साम्यवादियों ने खुलेआम यही स्वीकार किया था। जवाहरलाल कुछ हद तक उनके विचारों से प्रभावित हुए और शायद उन्होंने सोचा होगा कि यूनियनिस्ट पार्टी के साथ मिला-जुला मंत्रिमंडल बनाने में मैं वामपंथी सिद्धान्तो का बलिदान कर रहा था।
जो मेरे और जवाहरलाल के बीच फूट डालने का प्रयास कर रहे थे कि मेरे ऊपर जो प्रशंसा के फूल बरसाए जा रहे हैं उससे जवाहरलाल सहित अन्य नेताओं पर आक्षेप निहित है। यदि उन्हीं का समाचार पत्र नेशनल हेराल्ड मेरे बारे में इतनी अधिक प्रशंसा करे तो इसका परिणाम यह होगा कि कांग्रेस संगठन में शीघ्र अद्वितीय स्थान प्राप्त हो जाएगा।
मैं नहीं समझता कि इस व्यक्तिगत बातों के कारण जवाहरलाल के मन पर कोई प्रभाव डाला हो। चाहे जो भी हो, बंबई में कांग्रेस कार्य-समिति की जो बैठक हुई उसमें मैंने देखा कि जवाहरलाल ने लगभग प्रत्येक मसले पर मेरी कार्य-पद्धति का विरोध किया। जवाहरलाल का रुख था कि पंजाब में मैंने जो नीति अपनाई वह सही नहीं।
उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि मैंने कांग्रेस की प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचाया है। मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ और दुख भी। मैंने पंजाब में यह कार्य किया कि कांग्रेस की सरकार आ गई थी जबकि तथ्य यह था कि गवर्नर मुस्लिम लीग का मंत्रीमंडल बनवाने के लिए प्रयत्नशील थे। मेरे प्रयत्नों द्वारा मुस्लिम लीग अगल-थलग पड़ गई और कांग्रेस अल्पमत के होते हुए भी पंजाब के मामलों को सुलझाने में निर्णायक तत्व बन गया। ख़िज्र हयात ख़ां कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री बने थे और स्वाभावतया वह कांग्रेस के प्रभाव में आ गए थे।
गांधीजी ने आज़ाद के फ़ैसले सही ठहराया
जवाहरलाल का विचार था कि बहुसंख्यक दल हुए बिना कांग्रेस का सरकार में भाग लेना ठीक नहीं है। इससे कांग्रेस को समझौता करने के लिए विवश होना पड़ेगा और शायद उसे अपने सिद्धान्तों से भी हटना पड़े।
मैंने कहा इस बात का कोई ख़तरा नहीं है कि कांग्रेस को अपने सिद्धान्त छोड़ने पड़ें, परन्तु साथ ही मैंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि लाहौर में मैंने जो निर्णय किया वह यदि कार्य-समिति को पसन्द न आया हो तो वह जो नई नीति अपना सकती है। कांग्रेस ने मंत्रिमंडल में बने रहने की कोई गारंटी नहीं दी है और वह जब चाहे हट सकती है।
गांधीजी ने मेरे विचार का प्रबल समर्थन किया। उन्होंने कहा कि पंजाब में कांग्रेस अल्पमत में अवश्य है, परन्तु बातचीत के माध्यम से मंत्रिमंडल के निर्माण और उसकी कार्य-पद्धति में कांग्रेस निर्णायक स्तर प्राप्त किया है।
गांधीजी ने कहा कि कांग्रेस के दृष्णिकोण से इससे अच्छा कोई हल नहीं हो सकता और मौलाना साहब ने जो कुछ तय किया है, उसमें मैं कुछ भी परिवर्तन करने के विरुद्ध हूँ। जब गांधीजी ने अपने विचार निश्चयात्मक शब्दों में प्रकट किए तो कार्य-समिति के अन्य सभी सदस्यों ने मेरा समर्थन किया और जवाहरलाल को चुपचाप मान लेना पड़ा।
कार्य-समिति के सामने दूसरा प्रश्न था कि कैबिनिट मिशन के साथ क्या बातचीत हुई थी। अब तक जहाँ भी कोई समझौता सरकार के साथ किया गया था तो कांग्रेस के अध्यक्ष ही संगठन का प्रतिनिधित्व करते थे। 1942 में जब स्टैफर्ड क्रिप्स आए तो जवाहरलाल ने स्वयं प्रस्ताव किया कि कांग्रेस की ओर से एकमात्र मुझे विचार-विमर्श करना चाहिए।
फिर शिमला सम्मेलन में भी मैं अकेला प्रतिनिधि था और यहाँ तक गांधीजी ने उस सम्मेलन में भाग नहीं लिया था। परन्तु इस बार जवाहरलाल ने अपना अलग रुख रखा। उन्होंने प्रस्ताव किया कि कार्यकारिणी समिति की एक छोटी उपसमिति को मंत्रीमंडलीय मिशन की बैठक में बातचीत करनी चाहिए और कोई अकेला प्रतिनिधि उस बैठक में न रहे।
उनके प्रस्ताव से मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने यह सोचा भी नहीं था कि जवाहरलाल ऐसा प्रश्न उठाएंगे। परन्तु मैंने यह महसूस किया कि इसमें विश्वास की बात निहित है, अत: मैंने उस प्रस्ताव का विरोध किया। मैंने बताया कि अब तक कांग्रेस अध्यक्ष ही संगठन का एकमात्र प्रतिनिधि होता था और मुझे नहीं लगता कि अब इस स्थिति में कोई परिवर्तन किया जाए।
यदि कार्य-समिति यह महसूस करती है कि इस प्रक्रिया में परिवर्तन की आवश्यकता है तो वह निश्चिय ही उसे अधिकारपूर्वक कार्यान्वित कर सकती है, परन्तु मैं इस निर्णय में भाग नहीं लूंगा। वास्तव में मैं समझूंगा कि इससे कांग्रेस अध्यक्ष के कार्यों में कटौती कर दी गई है।
यहाँ फिर गांधीजी ने मेरा समर्थन किया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि परिवर्तन का कोई कारण नहीं है। यदि कांग्रेस अध्यक्ष क्रिप्स और वैवल के साथ अकेले ही विचार-विमर्श करने में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करते हैं तो मैं नहीं समझता कि अब कोई परिवर्तन की आवश्यकता है। अब यदि मंत्रिमंडलीय मिशन से बातचीत करने के लिए समिति गठित की जाती है तो इसका निष्कर्ष यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष में विश्वास की कमी है।
अनुभव से यह ज्ञात हुआ है कि कांग्रेस अध्यक्ष से बढ़कर और कोई प्रतिनिधि नहीं हो सकता। इस अवस्था में समिति की नियुक्त सहायक न होगी परन्तु कांग्रेसियों में और आम जनता में असमंजस की स्थिति पैदा कर देगी।
जवाहरलाल को महसूस किया मेरी भावनाओं को ठेस न पंहुची हो
कार्य-समिति ने गांधीजी की बात स्वीकार कर ली और कांग्रेस अध्यक्ष को ही अपना एकमात्र प्रतिनिधि चुना। शायद जवाहरलाल को महसूस हुआ कि बात बहुत आगे बढ़ गई थी और उससे मेरी भावनाओं को ठेस पहुंची हो। जैसा कि मैं पहले किया करता था, उसी के अनुसार इस बार भी मैं भूलाभाई देसाई के यहाँ ठहरा।
दूसरे दिन, प्रात: ही जवाहरलाल मेरे पास आए और उन्होंने बड़े स्नेह से मुझे विश्वास दिलाया कि उनकी आलोचना का एक क्षण के लिए भी यह अर्थ न था कि मेरे नेतृत्व में उन्हें विश्वास नहीं रहा। उनका उद्देश्य केवल यही था कि मेरे हाथ मजबूत किए जाएं ऐसा कि उन्होंने महसूस किया था कि मैं अपने कुछ साथियों को लेकर उनकी सहायता से बातचीत में अधिक आगे बढ़ सकूंगा।
उन्होंने बिना हिचके यह बात मान की कि उन्होंने स्थिति को जिस ढंग से समझा था, वह गलत था। उन्होंने इच्छा प्रकट की हमलोग इस घटना को भूल जाएं। मुझे उनकी दो टूक बात सुनकर प्रसन्नता हुई। हम दोनों सदैव बहुत अच्छे मित्र रहे हैं और मुझे इस बात पर कष्ट हुआ था कि मेरे और उनके बीच मतभेद हो।
[i] मौलाना अबुल कलाम आजाद: आजादी की कहानी: सम्पूर्ण वृत्तान्त, अनुवाद-कृष्ण गोपाल, ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2015, पृ. 122-125
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