सांप्रदायिक व्याख्या से महाराणा प्रताप के अपमान की कोशिश
हाल के कुछ वर्षों में हल्दीघाटी के युद्ध के परिणाम में राणा प्रताप को विजयी घोषित करने की अनैतिहासिक कोशिश देखने में आ रही है। इस हेतु एक नवीन शोध का हवाला भी दिया जा रहा है पर वह राणा प्रताप को विजयी बताने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। समकालीन स्रोत इसकी पुष्टि नहीं करते। ये कोशिशें इतिहास से नहीं बल्कि वतर्मान राजनीति से प्रेरित प्रतीत होती हैं। अतीत की पराजयों की कुंठा इसके मूल में है। पर इस प्रकार की कोशिशों का हासिल हँसी का पात्र बनने के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? इस प्रकार की कोशिशें महाराणा प्रताप के स्वतंत्रता के लिए किए गए दीर्घकालीन संघर्ष का भी उपहास है।
इतिहास हल्दीघाटी के युद्ध को हिन्दू मुस्लिम संघर्ष नहीं मानता
इतिहास की पुर्नव्याख्या या पुर्नलेखन नवीन शोध पर आधारित विश्वसनीय तथ्यों की अपेक्षा रखता है। पर न तो समकालीन स्रोत और न ही आधुनिक स्रोत अकबर पर राणा प्रताप की विजय की पुष्टि करते है। जबकि बिंदा झाला के बलिदान एवं राणा प्रताप के युद्ध क्षेत्र से पलायन का वर्णन सभी इतिहासकार करते हैं।
इतिहासकार इस युद्ध को हिन्दू मुस्लिम संघर्ष भी नहीं मानते। चाहे वह जेम्स टॉड का विख्यात ग्रंथ ‘राजस्थान का पुरातत्व एवं इतिहास‘ हो या गौरीशंकर हीराचंद ओझा कृत ‘राजपूताने का प्राचीन इतिहास, डॉ. गोपीनाथ शर्मा रचित’ राजस्थान का इतिहास‘हो या हरीशचंद्र वर्मा कृत दिल्ली विश्वविद्यालय की पुस्तक’ मध्यकालीन भारत का इतिहास’भाग-2 या सतीश चंद्र कृत’ मध्यकालीन भारत: राजनीति, समाज और संस्कृति’ या राजस्थान के इतिहास से सम्बंधित समकालीन स्रोत या अन्य पुस्तकें।
क्या ये मुगलों और विशेषकर अकबर महान के नाम पर लगातार धर्मान्धता फैलाकर एवं इतिहास को विकृत रूप से प्रस्तुत कर लोगों को बरगलाने की कोशिश का ही हिस्सा है? वास्तविकता जानने के लिए हल्दीघाटी के युद्ध के सम्बंध में कुछ तथ्यात्मक एवं मूलभूत बातों से परिचित होना आवश्यक है ताकि हल्दीघाटी के युद्ध को धर्म के चश्मे से दिखाने वाले क्षुद्र प्रयासों से जनसामान्य परिचित हो सके-
“यह संघर्ष (हल्दीघाटी का युद्व) हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष की समस्या नहीं था बल्कि मुग़ल साम्राज्य तथा मेवाड़ के मध्य की समस्या था। अगर ऐसा न होता तो राणा प्रताप अपनी सेना के एक भाग को हाकिम खां सूर के नेतृत्व में न रखता, न ही अक़बर की सारी फ़ौज़ मानसिंह के नेतृत्व में रही होती।”
अकबर के यह राज्य विस्तार योजना थी और प्रताप के लिए स्वतंत्रता संघर्ष
अपनी विस्तार नीति के लिए अकबर राजपूत राजाओं की स्वतंत्रता और उनके दुर्गों की दुर्गमता को बाधा जनक मानता था। मालवा और गुजरात के सूबे मुगल अधीनता में तभी रह सकते थे जब दिल्ली से मार्ग में पड़ने वाले दुर्ग मुगलों के अधिकार में आ जाए। ऐसा तभी संभव था जब राजस्थान के राजा अकबर की अधीनता स्वीकार कर ले।
हल्दीघाटी युद्ध का सीधा कारण यह था कि अकबर मेवाड़ की स्वतंत्रता समाप्त करने पर तुला हुआ था और प्रताप उसकी रक्षा के लिए। दोनों की मनोवृति और भावनाओं का मेल ना होना इस युद्ध का प्रमुख कारण था। इसके साथ मुगलों के राजनीतिक व आर्थिक स्वार्थी भी जुड़े हुए थे जिन्होंने युद्ध की संभावना को निश्चित कर दिया।
अक़बर का विजय अभियान समुद्रगुप्त की दिग्विजय के लिए किए गए “अश्वमेध यज्ञ” के पश्चात किये गए विजय अभियान की ही तरह था, जिसे एक बड़े इतिहासकार ने “शाही आवेग” या अन्य शब्दों में “अश्वमेधी अभियान” कहा हैं। इस शाही आवेग की चपेट में जिस तरह मालवा के बाज़बहादुर, गुजरात के मुज़फ्फर, बंगाल के दाउद, सिंध के जानीबेग तथा कश्मीर के युसूफ आये ठीक वैसे ही मेवाड़ ।
यदि उस समय मेवाड़ पर किसी मुस्लिम शासक का आधिपत्य होता तो भी वह अक़बर के शाही आवेश की चपेट में आने से नहीं बच सकता था। हल्दीघाटी का युद्ध पूर्णतः राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक उद्देश्यों के साथ लड़ा गया था न कि किसी धार्मिक मंशा से।
इतिहास अध्ययन के दौरान यह याद रखना आवश्यक है कि अतीत को वर्तमान की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। उसे देखने के लिए हमें या इतिहासकार को उसी काल में जाकर उस समय की परिस्थितियों को समझना पड़ता है। उस समय “तलवार की शक्ति ही सब कुछ तय करती थी” जिनकी तलवार में दम नहीं था वह इस शाही आवेग का शिकार बने।
हल्दीघाटी के युद्ध को धार्मिक रंग प्रताप के प्रताप के स्वतंत्रता के संघर्ष का अपमान है
वस्तुतः 18 जून 1576 को हुए हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात हम अक़बर को उसके विजय अभियान के अगले चरण में पाते हैं।
अफगानिस्तान में हुए विद्रोह का दमन, उड़ीसा, सिंध और कंधार पर विजय, दक्कन के अधिकांश भागों में बरार, खानदेश और अहमदनगर के कुछ हिस्सों पर विजय एवं 1601 में असीरगढ़ की विजय तक उसका यह विजय अभियान ज़ारी रहा।
इधर हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात राणा प्रताप अपने खोए हुए क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करने के प्रयासों में लग गया। 1597 ईसवी में अपनी आकस्मिक मृत्यु से पूर्व तक वह चावण्ड (1585 में राठौड़ों के निर्बल शासन का लाभ उठाकर राणा प्रताप ने लूना चावंडिया को परास्त कर चावण्ड का क्षेत्र प्राप्त किया था) को अपनी नई राजधानी बनाकर मुगलों से अपना बचाव एवं प्रतिरोध करता रहा। अरावली की पर्वतमाला राणा प्रताप की रक्षा कवच बनी और 1597 में अपनी मृत्यु से पूर्व तक राणा प्रताप चित्तौड़गढ़ के अतिरिक्त अधिकांश क्षेत्रों की पुनः प्राप्ति में सफल रहा पर उसके द्वारा अक़बर के विरुद्ध किसी अभियान की कोई योजना कभी बनाई गई हो ऐसा कोई शोध अब तक सामने नहीं आया है।
वस्तुतः हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात अक़बर अपने विजय अभियान में मशगूल हो गया और राणा प्रताप अपने खोए हुए क्षेत्रों की पुनः प्राप्ति में।
अतः हल्दीघाटी के युद्ध को धार्मिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए. यह युद्ध तो अक़बर की विस्तारवादी नीति और राष्ट्रीय शासक बनने की महत्त्वाकांक्षा और राणा प्रताप के सतत संघर्ष की अद्वितीय गाथा है। इस संघर्ष में न तो अक़बर पूर्ण विजय प्राप्त कर पाया और न ही राणा प्रताप पूरी तरह पराजित हुआ।
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