कौन थे चित्रगुप्त जिन्होंने सावरकर की पहली जीवनी लिखी थी?
सावरकर की पहली जीवनी ‘द लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर’ पहली बार मद्रास के जी पॉल एंड कंपनी पब्लिशर से 1926 में छपी थी। अंधी भक्ति और भारी प्रशंसा से भरी यह किताब किसी और ने नहीं खुद सावरकर ने लिखी थी और यह ‘आरोप’ किसी वामपंथी ने नहीं लगाया बल्कि जब 1987 में इसका दूसरा संस्करण सावरकर की किताबों के अधिकृत प्रकाशक वीर सावरकर प्रकाशन से छपा तो इसकी प्रकाशकीय भूमिका में सावरकर की किताबों के प्रकाशक और उनके अनुयायी डॉ रवींद्र वामन रामदास ने लिखा –
लाइफ ऑफ बैरिस्टर सावरकर के लेखक ‘चित्रगुप्त’ कौन थे? पेरिस के शब्दचित्र यह प्रकट करते हैं कि चित्रगुप्त कोई और नहीं खुद वीर सावरकर थे.. बहरहाल, सावरकर ने इसे आज़ादी के बाद भी क्यों नहीं प्रकट किया, यह एक रहस्य है।
रामदास किताब में एक जगह पेरिस प्रवास का शब्दचित्र उद्धरित कर रहे हैं। उनका तर्क एकदम सही है कि वैसा सुंदर शब्दचित्र वही खींच सकता है जिसने खुद वह दृश्य देखा और महसूस किया हो। यही नहीं जिस विस्तार से यह जीवनी लिखी गई है वह सावरकर से मिले बिना लिखना संभव नहीं था। तकनीकी चीज़ों के अलावा दी गई जानकारियाँ सिर्फ़ सावरकर के पास हो सकती थीं। आखिर सावरकर के अपने प्रकाशन से छपी इस किताब का एक सावरकर भक्त प्रकाशक उन पर ‘आरोप’ की शैली में कुछ क्यों लिखेगा?
असल में बाद में यह तथ्य सामने आने पर जब चारों ओर सावरकर द्वारा अपनी ऐसी प्रशंसा का मजाक उड़ने लगा तो यह साबित करने की कोशिशें होने लगीं कि सावरकर ने खुद अपनी तारीफ नहीं लिखी बल्कि उनके किसी क़रीबी ने लिखी।
संपथ इस किताब के लेखक के इर्द-गिर्द फैले रहस्य को लेकर साफ तो कुछ नहीं कहते लेकिन इसमें अय्यर और सी राजगोपालाचारी का नाम जोड़ते हैं।
अय्यर की मृत्यु 1925 में पापनासम झरने में अपनी बेटी को बचाते हुए हो गई थी और किताब 1926 में प्रकाशित हुई थी।
राजगोपालाचारी के सावरकर से 1926 से पहले मिलने का कोई ज़िक्र सावरकर खुद नहीं करते। 1 राजगोपालाचारी के 27 जून 1937 के जिस बयान का ज़िक्र वह करते हैं उसमें उन्होंने बीस साल पहले कोई जीवनी लिखे जाने की बात की है।
बीस साल पहले यानी 1917 मराठी वाक्य है – मी वीस वर्षांपूर्वी त्यांचे चरित्र लिहून प्रसिद्ध केले त्यात आता कोणती नवीन भर घालू शकणार आहे?
अंग्रेजों के काफ़ी क़रीब रहे राजगोपालाचारी 1917 में लिखी जीवनी को 1926 में किसी और नाम से क्यों प्रकाशित कराएंगे? वह भी तब जब वह 1937 में खुलकर स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने कोई जीवनी लिखी थी? सावरकर के अपने नाम से प्रकाशित करने में तो उन्हें प्रतिबंध टूटने का भय हो सकता था, राजगोपालाचारी को क्यों भय होता? या फिर अय्यर के मरणोपरांत छपी जीवनी में उनका नाम देने में क्या समस्या थी? आज़ादी के बाद भी सावरकर या राजगोपालाचारी ने इस जीवनी के लेखक का नाम प्रकट क्यों नहीं किया?
1917 में सावरकर अभी अंडमान की जेल में थे तो वहाँ कोई मुलाक़ात संभव नहीं थी, फिर यह जीवनी कैसे लिखी जा सकती थी जिसके बारे में स्पष्ट कथन है प्रकाशक का कि उनसे मिले बिना नहीं लिखी जा सकती। तो संभव है राजगोपालाचारी ने कोई और जीवनी लिखी हो जो अब अनुपलब्ध हो।
फिर डॉ रवींद्र वामन रामदास के दावे पर अविश्वास का कोई कारण नज़र नहीं आता। जो सावरकर ‘हिन्दुत्व’ जेल में लिखकर नागपुर से किसी और नाम से छपवा सकते थे वह अपनी जीवनी/आत्मकथा क्यों नहीं छपवा सकते थे?
जेल से दया याचिकाएं लिखकर सावरकर जिस अपराधबोध और शर्म से जूझ रहे होंगे, खुद की छवि निर्माण के लिए उन्हें ज़रूरी लगा होगा कि अपनी वीरता का महिमामंडन करते हुए एक जीवनी लिख दी जाए ताकि याचिकाओं के जनता के सामने आने से पहले वह खुद को वीर की तरह स्थापित कर सकें। यह रिहाई के बाद उनके प्रति सम्मान के लिए भी ज़रूरी था जिसके बिना वह अपनी आगे की योजनाओं के लिए ज़रूरी जनसमर्थन जुटा सकते।
आखिर आज भी उनकी दया याचिकाएं लिखने की कायरता और रिहाई के बाद की सांप्रदायिक राजनीति पर पर्दा डालने के लिए वीरता की इन्हीं कहानियों को तो दुहराया जाता है।
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री