नाटकों में रचनात्मक नवीनता और धार्मिक आंडबरों से संघर्ष करने वाले हबीब तनवीर
लोक संस्कृति और संस्कार किसी भी इंसान को हज़ारों में विशिष्ट बनाते हैं। लोक में जो कुछ भी व्याप्त है, उससे कहीं न कहीं हमारे पुरखे जुड़े रहे, उन संस्कारों को स्वीकार किया और बदले में कुछ हद तक दे कर भी गए, आगे के पीढ़ियों को जो कहीं न कहीं हम सब के भीतर मज़बूत है।
बसंत निरगुडे जी के शब्दों में –हवीब तनवीर जिस संस्कृति, जिस समाज, जिस लोक से आते हैं, वह छत्तीसगढ़ी लोक हैं। जहाँ के लोगों को अपनी पारंपरिक लोक कलाओं के प्रति गहरा लगाव है। गहरा लगाव ही नहीं बल्कि उनके लिए पूरी सजगता और संजीदगी भी है।
हबीब तनवीर का रंग संसार
समूचे नाट्य जगत में चाहे वह देश का हो या विदेश का हो नाटकों के माध्यम से लोहा मनवाने वाले हबीब अहमद खान का जन्म वर्ष 1923 में हुआ। लगभग तीन दशक तक लगातार अध्ययन, शोध, और चिंतन-मनन के बाद हबीब ने अपने तरीके से नाट्य जगत निर्मित करने की कोशिश की। अपने पूरे जीवनकाल में सैकड़ों नाटकों का संसार रचाते-बसाते हबीब ने अपने रंग व्यक्तित्व का निर्माण किया। जिसके कारण आज समूचा नाट्य जगत उनको याद करता है।
हबीब तनवीर वह विरले नाट्यकर्मी है जिन्होंने लोक संस्कृति और नाचा कालाकारों के साथ सामंजस्य बैठाते हुए अपना एक नया रंग-संसार निर्मित किया। इस नए रंग-संसार को विकसित करने के लिए वह कभी भी लक़ीर के फ़क़ीर बनकर नहीं रहे। अपने नाटकों में प्रयोगात्मक रंचमंच को बढ़ावा देते हुए नवीन प्रयोगों को करने में कभी भी कोई संकोच उनके मन में नहीं रहा।
कई बार तो एक ही नाटक के संवाद को कहानी की लयात्मकता के अनुरूप काट-छाँट करते, नवीन प्रयोगों को बढ़ावा देने के लिए। उनका खुद का मानना था कि नाटक का असली मज़ा कहानी को दर्शकों तक आसानी से पहुँचाना है जिससे नाट्य-व्याकरण को जाने-समझे बगैर आम दर्शक नाटक को समझ सके।
असफलताओं के बाद भी नवीन प्रयोगों को प्राथमिकता देते रहे
हालांकि इस तरह के प्रयोग करना हबीव तनवीर को कई बार महंगा भी पड़ा, असफलताएं भी हाथ लगी। अपने नाटक को हर दृष्टि से समझने के लिए कभी दर्शकों के बीच में बैठकर नाटक देखते, उनकी राय जानने के लिए जगह बदल कर उनकी बात सुनते यह सब वह नाट्य मंचन के दौरान ही करते।
फिर नाटक के संवाद में तब्दीली लाना जिससे नाटक उम्दा हो सके, ऐसे अनेक प्रयास संघर्ष के दिनों में करते रहते। परंतु, अफसलताओं के आगे नाटकों में नवीन रचानात्मकता से समझौता वह नहीं करते।
आगरा बाज़ार (1954), शतरंज के मोहरे(1954),लाला शोहरत राय (1954), गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद(1973.)चरनदास चोर(1975),पोगा पण्डित(1975), द ब्रोकन ब्रिज(1995)नाटकों में हबीब तनवीर के अभिव्यक्ति, रचानत्मक नवीनता के प्रयोग का विहान देखने को मिलता है, हर नाटक जैसे हर दर्शक के साथ आत्म-संवाद करता हुआ दिखता है।
नया थियेटर का नाम मोनिका मिश्र ने सुझाया गया था
हबीब तनवीर राडा(रायल एकेडमी आंफ ड्रामैटीक्स आर्ट्स लंदन) के दो वर्षीय पाठ्यक्रम को बीच में छोड़कर ब्रिस्टल ओक्ड विक थिएटर स्कूल यूके से नाट्य निर्मित और निर्देशन के एक वर्षीय पाठ्यक्रम को पूर्ण किया। इसके बाद यूरोप की यात्रा की और वहाँ के रंगमंच को नज़दीक से देखा।
स्वदेश आने के बाद बेगम कुदसिया ज़ैदी से किया वादा भी पूरा किया। हिंदुस्तानी रंगमंच को पुन: संभाला, जबकि मोनिका मिश्रा उस समय वहाँ की निर्देशिका थी। हबीब के आने के बाद दोनों प्रणय सूत्र में बंधकर जीवनभर के लिए दोनों पतवार बन गए।
1958 में हबीब जी छत्तीसगढ़ की यात्रा के दौरान रायपुर में रातभर नाचा देखा। सुबह जब नाचा की प्रस्तुति पूर्ण हुई तो एक अभिनेता से दिल्ली में अपनी संस्था से जुड़ने के लिए कहा तो वो तैयार हो गए और इस तरह कुछ छत्तीसगढ़ी कलाकारों के साथ दिल्ली आ गए। जिनमें ठाकुर राम भुलवाराम, बाबूदास, मदनलाल, जगमोहन कामले और लालूराम थे। यही से हबीब तनवीर के जीवन में नया मोड़ आता हैं।
जब हबीब ने हिंदुस्तानी रंगमंच के संस्थापक बेगम जैदी से इन कलाकारों की मुलाक़ात करवाई तो वो बहुत नाराज हुई। जिसका गहरा असर हबीब तनवीर पर पड़ा। हबीबजी ने हिंदुस्तानी रंगमंच को छोड़कर अपनी स्वतंत्र मंडली बनाई और मोनिका मिश्र के सहयोग से गैरेज में नौ कलाकारों के साथ नया थियेटर की स्थापना की, यह नाम मोनिका मिश्र दवारा सुझाया गया था।
राजनैतिक विषयों पर तीखी टिपण्णी के चलते हमले भी हुए
हबीब तनवीर ने अपने तरह का स्वतंत्र रंगमंच विकसित किया। अपनी मंडली के माध्यम से कई नाटकों की रचना की। गीत, संगीत एंव निर्देशन किया। यह सिलसिला एक खोज से कम नहीं कहा जा सकता है।
हबीब शहरी और ग्रामीण कलाकारों के साथ सामंजस्य बैठाने की उहापोह में निरंतर प्रयासरत थे। उनके नाटकों में सामाजिक-राजनैतिक विषयों पर तीखी टिप्पणियाँ होती थीं जिनके चलते उन पर कई बार हमले भी हुए।
इसलिए भारतीय रंग-परंपरा के कैनवास पर हबीब तनवीर के व्यक्तित्व की तस्वीर खींचना सिर्फ एक रंगकर्म से जुड़े एक व्यक्ति को याद करना भर नहीं है। वह एक साथ कई कलाओं को अपने रंग अभिव्यक्तियों में शामिल करते थे।
हबीब तनवीर एक तरह अपने कलात्मक रचनात्मकता में नवीनता लाने से जूझते रहे तो दूसरे तरफ राजनीतिक हिंसा का सामना भी उनको करना पड़ा। हबीब साझा संस्कृति की पक्षधरता करते रहे थे।
धार्मिक आडम्बरों-कट्टरताओं के ध्वजवाहकों की क्रूरताएं और पूंजी के मद में बौराई शक्तियों की हिंसा हबीब को हमेशा परेशान करती रही। इन चुनौतियों के आगे उन्होंने कभी घूटने नहीं टेके, यह हबीव तनवीर की जीवंटता को दर्शाता है जो हर रंगकर्मियों के लिए एक प्रेरणा से कम नहीं हैं।
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