गुजराती महिलाओं की पीढ़ियों के लिए आदर्श: विद्यागौरी नीलकंठ
विद्यागौरी नीलकंठ न तो पितृसत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोही थी न ही एक उत्साही नारीवादी, जैसा आज हम इस शब्द से समझते है। वह एक ऐसे युग में पैदा हुई थीं जब भारतीय महिलाओं को कुछ भी अधिकार प्राप्त नहीं थे और उन्हें शिक्षा,आत्म-अभिव्यक्ति और आत्म-पूर्ति के अवसरों से वंचित रखा गया था। विशेष रूप से उच्च जातियों में महिलाओं का अलगाव और अधीनता आम थी।
घर के बाहर के दुनिया से उनका संपर्क कम था। विद्यागौरी नीलकंठ अपनी आत्मकथा लिखने के खिलाफ थी, उनके बारे में अधिकांश जानकारी शारदा मेहता के आत्मकथा जीवनसंभावना(रेमीनीसीन्स: द मेरोरियर्स आंफ शारदाबेन मेहता) और दस्तावेजों में उपलब्ध संदर्भों से पता चलता है। अपर्णा बसु और मालविका कार्लेकर ने अपनी किताब In So Many Words: Women’s Life Experiences from Western and Eastern India में विद्यागौरी नीलकंठ के बारे में विस्तार से लिखा है।
विद्यागौरी और उनकी बहन शारदा ने एक-एक करके इन सभी बाधाओं को न केवल तोड़ा, आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत बनी। मसलन, विद्यागौरी को सांरगी बजाना बहुत पसंद था जो उन दिनों महिलाओं के लिए सम्मानित वाद्ययंत्र नहीं समझा जाता है। विद्यागौरी और शारदा ने सार्वजनिक मंच पर वाद्ययंत्र बजाए, अहमदाबाद में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान वंदे मातरम गाया, जिसकी काफी सनसनी रही।
विद्यागौरी ने गुजरात के प्रथम ग्रेजुएट महिला होकर समाज के इस मान्यता को भी तोड़ा, जिसमें लोग मानते थे कि शिक्षित महिलाएं अपेक्षाकृत अच्छी माताएं और पत्नियाँ सिद्ध नहीं होती है। उन्होंने महिलाओं के हक़ में इस बात को जोड़ा कि शिक्षा महिलाओं के लिए उस दीपक के समान है जो महिलाओं के जीवन में अज्ञानता और अंधकार को दूर करता है।
परिवार की सुधारवादी परंपरा को महिलाओं के पक्ष में मोड़ा..
विद्यागौरी का जन्म गुजरात के एक सुधारवादी परिवार में हुआ था। उनके दादा भोलानाथ साराभाई अहमदाबाद में गुजरात प्रार्थना समाज के संस्थापकों में से एक थे। जिन्होंने उस समय के धार्मिक और सामाजिक रूढ़िवादिता को चुनौती दी थी और ये विद्यागौरी के जीवन और विचार पर प्रारंभिक प्रभाव थे। उनका विवाह भी सुधारकों के परिवार में हुआ था। उसके ससुर महिपत्रम और पति रमनभाई भी प्रार्थना समाजी थे।
विद्यागौरी का जन्म अहमदाबाद में 1 जून 1876 को उनके नाना भोलाबाथ साराभाई की हवेली में हुआ था। भोलानाथ को धार्मिक और सामाजिक दोनों प्रकार के सुधारों में दिलचस्पी थी। विद्यागौरी का बचपन सत्येंद्रनाथ टैगौर, प्रतापचंद मजुमदार, गोपाल हरि देखमुख जैसे सुधारकों के बीच में बीता, जिसका असर विद्यागौरी पर बचपन से ही देखने को मिलता है।
विद्यागौरी ने अपने परिवार के सुधारवादी परंपरा को जारी रखा और न केवल विधवा पुर्नविवाह के ख़िलाफ़ सार्वजनिक रूप से बात की बल्कि सक्रिय रूप से विधवाओं को पुर्नविवाह के लिए प्रोत्साहित किया, और अक्सर ये विवाह उनके ही घर में संपन्न होते थे।
उन्होंने बाल विवाह के ख़िलाफ़ भी बात की, शादी की उम्र बढ़ाने के लिए शारदा अधिनियम को परित कराने के लिए कड़ी मेहनत की और व्यक्तिगत रूप से कई विवाह होने से रोके। उनकी किसी भी बेटी की शादी 21 साल से पहले नहीं हुई।
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गुजरात की पहली स्नातक महिला
ऐसे समय में जब लड़कियाँ शायद ही कभी प्राथमिक स्तर से आगे पढ़ती थीं, विद्यागौरी नीलकंठ और उनकी बहन शारदा मेहता गुजरात की पहली दो महिला स्नातक थीं। । वास्तव में 1880 के दशक में अहमदाबाद में लड़कियों के लिए कोई हाई स्कूल नहीं था। इन दोनों बहनों ने शादी के बाद अपनी शिक्षा जारी रखी, मैट्रिक किया और सह-शिक्षा कॉलेज में गई तथा 1902 में स्नातक की उपाधि हासिल की।
विद्यागौरी ने लिखा-
1894 में, हम दो बहनो ने कॉलेज में प्रवेश किया, उस समय कॉलेज में लड़कों को लड़कियों की आदत नही होती थी। प्रोफेसर भी नहीं थे। हमारे मन के स्थिति की कल्पना करो।
शारदा मेहता ने अपनी आत्मकथा जीवनसंभावना(रेमीनीसीन्स: द मेरोरियर्स आंफ शारदाबेन मेहता) में एक सर्व-पुरुष कॉलेज में केवल दो महिलाओं के होने की भावना का वर्णन किया:
हमारे सिर के चारों और लिपटी हमारी पारंपरिक साड़ियो में, हम कक्षा में तभी प्रवेश करते थे, जब छात्र हमारे प्रोफेसर के पीछे बैठ जाते थे। छात्र भद्दे कमेट्स करते थे अक्सर हमारे बैंच पर गाय के गोबर डालते थे। बहनों का उपहास उड़ाने के लिए सार्वजनिक सभाएं आयोजित की गई। हम बहनों ने इन सबों को नज़रअंदाज किया और कॉलेज जाने जारी रखा। दोनों बहने आजीवन महिला शिक्षा की हिमायती बनी और उनका मानना था कि सामाजिक परिवर्तन एक शक्तिशाली माध्यम है।
गुजरात की प्रथम ग्रेजुएट महिला के रूप में विद्यागौरी और शारदा, बम्बई की पहली महिला ग्रेजुएट कौर्नेलिया सोराबजी और पुणे में पंडिता रमाबाई इन सबों ने मिलकर एक महिला क्लब की स्थापना की। इस क्लब में यह अक्सर मिलती और आम महिलाओं के जीवन में बदलाव कैसे हो सकता है, इसपर विचार-विमर्श करती, बहसें करती और योजनाएं बनाती। इस महिला क्लब ने इन युवा ग्रेजुएट महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में मुखर होने की ताक़त दी।
विद्यागौरी और शारदा गुजराती महिलाओं की पीढ़ियों के लिए रोल मॉडल बन गईं, न केवल इसलिए कि उन्होंने महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा का द्वार खोला(पहली दो महिला स्नातक होने के नाते) बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने उन दिनों व्यापक रूप से मान्यता को खारिज़ दिया कि शिक्षित महिलाएं पश्चिमीकृत हो जाएंगी और अपने घरेलू कर्तव्यों की उपेक्षा करती है। दोनों बहनों ने पहनावे, खान-पान और रहन-सहन में अपनी भारतीय पहचान बनाये रखा।
विद्यागौरी ने अपने पति के साथ मिलकर ज्ञानसुधा, बद्धिप्रकाश नामक एक गुजराती पत्रिका का संपादन भी किया। विद्यागौरी ने गुणसुंदरी, स्त्री-बोध, शारदा, पत्रिकाओं में लेखन भी किया। अपनी बहन शारदा के साथ मिलकर उन्होंने आर.सी.दत्त के लेक ऑफ पाम्स का अनुवाद भी किया। [i]भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1906) के सूरत अधिवेशन में, मदन मोहन मालवीय और मोतीलाल नेहरू दोनों बहनों से बहुत प्रभावित हुए।
स्वदेशी के लिए शहादत देने वाले बाबू गैनू सय्यद को भूल गया देश
स्नातक होने के कुछ साल के बाद का सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष
विद्यागौरी की सार्वजनिक गतिविधियाँ 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान शुरू हुई जब उन्होंने युद्ध राहत कोष के लिए विभिन्न गतिविधियों का आयोजन किया। वह 1917 में मार्गरेट कजिन्स, सरोजनी नायडू और भारत की अन्य प्रमुख महिलाओं द्वारा महिलाओं के वोट मांगने के अधिकार के लिए राज्य सचिव लार्ड मेटिंग को सौंपे गए ज्ञापन की हस्ताक्षरकर्ता थी।[ii]
गुजरात के कई स्कूल-कॉलेज, संगठनों में वह सक्रिय सदस्य रही। वह अहमदाबाद नगरपालिका परिषद में नामंकित होने वाली पहली महिला थी और नगर पालिका की उपाध्यक्ष और नगरपालिका स्कूल बोर्ड की अध्यक्ष थीं। उन्होंने और अपनी बहन के साथ अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की गुजरात शाखा शुरू की, जिसकी वह वर्षों तक अध्यक्ष रहीं और 1933 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनी गईं और उस वर्ष पटना में आयोजित इसके सत्र की अध्यक्षता की।
विद्यागौरी महिलाओं के शिक्षा के लिए गहराई से प्रतिबद्ध थीं। वह महिलाओं के बीच उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए गुजराती स्त्री केलवनी मंडल (1922 में) संस्थापकों में से एक थी। इसने लालशंकर उमाशंकर महिला पाठशाला का अधिग्रहण किया, जो कर्वे विश्वविद्यालय से सम्बद्ध लड़कियों का कॉलेज था, जिसे बाद में एसएनडीटी विश्वविद्यालय के रूप में जाना गया; विद्यागौरी इसकी सचिव, उपाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष रहीं। उन्होंने कई बार मानद क्षमता में इस कॉलेज में पढ़ाया। वह एसएनडीटी विश्वविद्यालय के सीनेट की सदस्य भी थीं।[iii]
राजनीति में, विद्यागौरी ने अपने पति का अनुसरण किया, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी वर्ग के थे। हालांकि, विद्यागौरी ने न ही असहयोग आन्दोलन में भाग लिया और न ही खेड़ा या बारडोली के सत्याग्रहों में।
परंतु, पति के मृत्यु के बाद 1930 के दशक में सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय हुई। जब पुलिस ने वीरमगाम में महिलाओं पर घोड़े चढ़ा दिए और अहमदाबाद में गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल में राष्ट्रीय ध्वज फहराने वाली लड़कियों पर लाठीचार्ज किया, तो उन्होंने बहुत से सार्वजनिक प्रदर्शन किए, गुस्से में आकर अहमदाबाद नगर निगम के लिए कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और भारी बहुमत से जीत हासिल की।
1936 में विद्यागौरी के इस जीत पर महात्मा गांधी का संदेश मिला-
विद्याबेन के सम्मान में जितने भी समारोह किए जाए वह कम ही रहेंगे क्योंकि वे तो भारतीय नारीत्व की शोभा है। हम उनका जितना अधिक सम्मान करें उतना ही अच्छा है। वे एक उत्कट सुधारक हैं परंतु उसके साथ ही वे हमारी परंपराओं का भी पालन करती है।[iv]
1939 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वतंत्र भारत के लिए एक राष्ट्रीय योजना तैयार कराने के प्रयोजन से जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में राष्ट्रीय योजना समिति मनोनीत की थी। उसकी ओर से महिलाओं की योजनाएं बनाने के लिए रानी लक्ष्मी राजवाड़े के सभापत्तित्व में एक उप-समिति नियुक्त की गई। विद्यागौरी उस उप-समिति की सदस्या थी, उन्होंने शारदा अधिनियम को सख्ती से लागू करने और हिन्दू कोड बिल के पक्ष में कार्य किए।
एक शिक्षाविद, समाज-सुधारक, लेखिका तथा समर्पित समाज सेविका के समृद्ध जीवन जीते हुए, 1958 में उनका देहांत हुआ।
संदर्भ
[i]AparnaBasu, Malavika Karlekar, In So Many Words: Women’s Life Experiences from Western and Eastern India, page no, 35-55
[ii]वही से,
[iii]सुशीला नायर, कमला मनकेनर, भारतीय पुनर्जागरण में अग्रणी महिलाएं, नेशनल बुक ट्रस्ट, पेज न98-104
[iv]वही से
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री