श्यामाप्रसाद मुखर्जी के एक देश में दो विधान के नारे का असली मतलब
गाँधी की हत्या के बाद अलग-थलग पड़ चुके हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथ के लिए आज़ाद हिन्दुस्तान का इकलौता मुस्लिम बहुल प्रदेश कश्मीर ख़ुद को प्रासंगिक बनाने के लिए सबसे मुफ़ीद ज़रिया बना और श्यामा प्रसाद मुखर्जी तथा बलराज मधोक ने प्रजा परिषद के साथ ख़ुद को झोंक दिया।
चूँकि, 370 के कारण ही भारतीय संविधान के ‘संपत्ति के अधिकार’ का क़ानून लागू कर मुआवज़ा दिलाने की उम्मीद ख़त्म हुई थी इसलिए भूमि सुधारों के विरोध की जगह 370 का विरोध शुरू किया गया।
आर्थिक मोर्चे से अधिक ताक़तवर धर्म का मुद्दा
आर्थिक मोर्चे से अधिक ताक़तवर धर्म का मुद्दा होता है और देशभक्ति अक्सर वह सबसे मज़बूत आड़ होती है जिसके पीछे आर्थिक शोषण की प्रणाली को जीवित रखा जा सकता है तो संविधान सभा में 370 पर कोई आपत्ति न करने वाले श्यामा प्रसाद “एक देश में दो विधान/ नहीं चलेगा” के नारे के साथ अपने 3 सांसदों के साथ देशभक्ति के हिंदुत्व आइकन बनकर उभरे।
शेख़ और नेहरू से लम्बी ख़त-ओ-किताबत के बाद[1] 1953 के मई महीने में उन्होंने टकराव का रास्ता चुना था तो यह कश्मीर के मुद्दे को राष्ट्रीय बनाने के लिए ही था।
इस मुद्दे पर जनसंघ के साथ खड़े हुए अकाली नेता मास्टर तारा सिंह का कश्मीर को लेकर जो स्टैंड है वह उस दौर में साम्प्रदायिक शक्तियों के कश्मीर को लेकर रवैये को तो बताता ही है साथ ही यह समझने में मदद करता है कि शेख़ अब्दुल्ला और कश्मीर के लोग राज्य की स्वायत्तता को लेकर इतने संवेदनशील क्यों रहे हैं. लखनऊ के एक भाषण में मास्टर तारा सिंह कहते हैं-
‘कश्मीर पाकिस्तान का है. यह एक मुस्लिम राज्य है. लेकिन मैं इस पर दावा उस संपत्ति के बदले करता हूँ जो रिफ्यूजी पश्चिमी पाकिस्तान में छोड़ आए हैं. कश्मीरी मुसलमानों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए जहाँ के वे असल में हैं.’[i]
श्यामा प्रसाद मुखर्जी से जुड़े घटनाक्रम पर लौटें तो एक इंटरव्यू में शेख़ बताते हैं कि भारत सरकार ने कश्मीर को युद्ध क्षेत्र घोषित कर डिफेन्स ऑफ़ इण्डिया रूल के तहत कश्मीर में आवागमन पर पाबन्दी लगा दी गई थी। मुखर्जी को डल के पास निशात बाग़ के एक निजी घर में रखा गया था।
शेख़ इसके लिए तत्कालीन गृहमंत्री बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद और जेल तथा चिकित्सा मंत्री श्यामलाल सर्राफ़ को जिम्मेदार बताते हैं, हालाँकि प्रधानमंत्री के रूप में सामूहिक जिम्मेदारी से इंकार भी नहीं करते। वह बताते हैं कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद उन्होंने उनके निजी चिकित्सक बी. सी. रॉय को कश्मीर आकर जाँच का प्रस्ताव भी दिया लेकिन रॉय नहीं आए.[ii] मुखर्जी की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी. वह हृदयरोग से ग्रस्त थे और उनके लिए कश्मीर का मौसम एकदम ठीक नहीं था।
मधोक को पढ़कर लगता है कि योजना बनाने वालों को यह लगा था कि उन्हें जम्मू की सीमा पर भारतीय सेना द्वारा गिरफ़्तार कर दिल्ली लाया जाएगा लेकिन उनकी गिरफ़्तारी कश्मीर में होने से ऐसा नहीं हो पाया।हालाँकि मधोक बताते हैं कि मुखर्जी के साथ उनके एक निजी चिकित्सक वैद्य गुरुदत्त भी थे.[iii]
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवनीकार तथागत रॉय बताते हैं कि उनके दाहिने पैर में लगातार दर्द था और उनकी भूख ख़त्म हो गई थी।19 जून की रात उन्हें सीने में दर्द और तेज़ बुखार की शिक़ायत हुई तो डॉ अली मोहम्मद और अमरनाथ रैना को भेजा गया। लेकिन ज़ाहिर तौर पर ‘स्ट्रेप्टोमाय्सिन’ देने का गुनाह अली मोहम्मद के माथे मढ़ा गया।
वैसे मुखर्जी की जिद पर उन्हें एक हिन्दू नर्स भी उपलब्ध कराई गई थी जिसकी सुनाई गई कथित कहानी में भी यह स्पष्ट है कि उसने आख़िरी इंजेक्शन दिया था और तबियत बिगड़ने पर डॉक्टर ज़ुत्शी तुरंत पहुँचे थे ! हालाँकि अगले तीन दिनों के घटनाक्रम को रॉय काफी नाटकीय तरीके से पेश करते हैं लेकिन यह स्पष्ट लगता है कि मुखर्जी की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी।
षड्यंत्र कथाएँ बहुत सी बनाई गई हैं जिसमें एक पण्डित की भविष्यवाणी से लेकर 20 जुलाई को संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर की वह रिपोर्ट भी शामिल है जिसमें कोई स्रोत नहीं दिया गया है. रॉय यह अलग से लिखते हैं कि श्रीनगर से कोलकाता भेजे जाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि मुखर्जी की मृत देह किसी मुसलमान से न छू जाए![iv]
कश्मीर के क्रांतिकारी भूमि सुधारों से नाख़ुश थे
ख़ैर, नेहरू के शासनकाल में भारत के विदेश सचिव रहे वाय. एस. गुंडेविया बताते हैं कि जहाँ कश्मीर के क्रांतिकारी भूमि सुधारों से नेहरू ख़ुश थे वहीं पटेल इसको लेकर नाराज़ थे। शेख़ को लेकर उनकी नाराज़गी और हरि सिंह के साथ सहानुभूति बहुत स्पष्ट थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उस वक़्त इंटेलीजेंस विभाग में सहायक निदेशक बी एन मलिक की किताब ‘माय इयर्स विथ नेहरू –कश्मीर’ पढ़ते मिलता है. वह लिखते हैं –
शेख़ अब्दुल्ला के निजी बातचीत में दुश्मनाना रुख अपनाने की रिपोर्टें लगातार दिल्ली पहुँच रही थीं । कुछ इंटेलीजेंस ब्यूरो को, कुछ सीधे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को और हालात बेहद पेचीदा बने हुए थे । प्रधानमन्त्री और गृहमंत्री ने कश्मीर के हालात का स्वतंत्र जायज़ा लेने के लिए अलग-अलग लोगों को भेजा लेकिन उनकी रिपोर्टें अकसर मनोगत होती थीं।
प्रधानमंत्री द्वारा भेजे गए लोग आमतौर पर शेख़ के पक्ष में रिपोर्ट देते थे और गृहमंत्री के भेजे गए लोग उनके विरोध में । इसके अलावा बड़ी संख्या में कश्मीरी पण्डित और जम्मू के डोगरा, जिनकी सीधी पहुँच प्रधानमंत्री और गृहमंत्री तक थी, अपने विचार पहुँचा रहे थे जो आमतौर पर शेख़ के ख़िलाफ़ होते थे…गृहमंत्री और प्रधानमंत्री दोनों इस बात को लेकर उत्सुक थे कि कश्मीर की वास्तविक स्थिति का एक आकलन होना चाहिए । मुझे यह अध्ययन करके अपनी रिपोर्ट पेश करने को कहा गया ।
मैं अगस्त,1949 के अंत में कश्मीर गया और लगभग 10 दिन वहाँ रुका …मै तीन-चार बार शेख़ अब्दुल्ला से मिला और बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद, जी एम सादिक़, शामलाल सर्राफ़ और डीपी धर सहित अन्य नेताओं से भी मिला । मैं बड़ी संख्या में आधिकारिक और अनाधिकारिक दोनों तरह के दूसरे हिन्दू और मुस्लिम लोगों से भी मिला ।
मैं मेज़र जनरल थिमैया से मिला और हम उरी सेक्टर के कई मिलेट्री पोस्ट्स पर गए …दो बार शेख़ अब्दुल्ला ने अपने घर खाने के लिए बुलाया जहाँ मैं उनकी बेग़म और बेटियों से मिला तथा और भी दूसरे लोगों से। हमने ख़ूब बातें की और मुझे कहना पड़ेगा कि शेख़ अब्दुल्ला ने इस यात्रा में मुझ पर बहुत अच्छा प्रभाव डाला ।
जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय परिस्थितियों के दबाव में नहीं था
मुझे यह एहसास हुआ कि जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय का निर्णय किसी जल्दबाज़ी में नहीं लिया गया था और परिस्थितियों के दबाव में नहीं था ; लोग जितना समझते थे उससे कहीं अधिक उनकी गहरी विचारअनुच्छेदत्मक एकता भारत और भारत के नेताओं से थी…शेख़ अब्दुल्ला पण्डित नेहरू की मित्रता और विचारों की एकता के लिए ईमानदार भाव रखते थे जबकि एम ए जिन्ना के प्रति उनके भाव केवल भय, अविश्वास और घृणा का था ।
…मैंने भारत-कश्मीर रिश्ते के बारे में दूसरे नेताओं से बात की, ख़ास तौर पर बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद और डी.पी. धर से बात की । उस समय उन्हें इस बात पर कोई शक़ नहीं था कि शेख़ के विचार भारत के प्रति ईमानदार थे और भारत के पक्ष में उनके अपने विचार भी उतने ही सुदृढ़ थे, हालाँकि वे वैसे मज़बूत विचारअनुच्छेदत्मक आधार पर नहीं थे …उस समय युवराज को भी, जिनसे मैंने उस समय विस्तृत बातचीत की, शेख़ अब्दुल्ला पर कोई शक़ नहीं था हालाँकि वह अपने पिता के साथ हुए व्यवहार को लेकर ख़ुश नहीं थे ।
…दिल्ली लौटकर मैंने एक इन्हीं आधारों पर एक रिपोर्ट बनाई और अपने निदेशक को भेजी जिन्होंने इसे गृह सचिव एच ।वी । आयंगर को भेज दिया …गृह सचिव ने इसे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को । मैं इस बात से अवगत नहीं था न ही इस तथ्य से कि प्रधानमंत्री ने इस रिपोर्ट को कश्मीर की वर्तमान स्थिति का एक निष्पक्ष आकलन माना था और इसकी प्रतियाँ विदेश में सभी भारतीय दूतावासों तथा संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि को भेज दिया था ।
सरदार वल्लभ भाई पटेल ख़ुश नहीं थे । मेरी यह रिपोर्ट स्पष्टतः उनके कश्मीर के संदर्भ में और ख़ासतौर पर शेख़ के बारे में विचारों के विपरीत थी । उन्हें शक़ था कि शेख़ ईमानदार नहीं थे और नेहरू को बहका रहे थे तथा इस बात से ख़ुश नहीं थे कि इस रिपोर्ट को इतने बड़े पैमाने पर प्रसारित किया गया ।
…अगले दिन मुझे सरदार से मिलने के लिए समन किया गया । वह बीमार थे और बिस्तर पर लेटे हुए थे । काफी देर तक वह मुझे देखते रहे । फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या ये रिपोर्ट मैंने लिखी है? मैंने हाँ में जवाब दिया । उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने उनसे बात किये बिना जवाहरलाल को क्यों भेज दी?
मैंने उन्हें बताया कि मैंने यह रिपोर्ट निदेशक को दी थी …सरदार ने फिर कहा कि वह आमतौर पर कश्मीर के हालात के और ख़ासतौर पर शेख़ अब्दुल्ला के मेरे आकलन से सहमत नहीं थे …फिर सरदार ने मुझे शेख़ अब्दुल्ला के बारे में अपने विचार बताये । उनको लगता था कि शेख़ अब्दुल्ला अंततः जवाहरलाल नेहरू और भारत को नीचा दिखाएँगे और अपने असली रंग में आयेंगे, हरि सिंह के प्रति उनकी निष्ठुरता उनके महाराजा होने कारण नहीं बल्कि डोगरा होने के कारण है और वे डोगराओं को भारत के बहुसंख्यक समाज के साथ जोड़कर देखते हैं …उन्होंने कहा कि मुझे जल्द ही अपनी ग़लती का एहसास होगा और इसके साथ ही मुझे इस रिपोर्ट लिखने के लिए किये गए श्रम के लिए बधाई भी दी ।
यह सरदार की महानता थी । मेरे विचारों से असहमत होते हुए भी उन्होंने इसे व्यक्त करने के मेरे अधिकार का सम्मान किया । यहाँ हमारी मुलाक़ात समाप्त हुई। मुझे आई बी से निकाला नहीं गया और जल्द ही मुझे लगभग 30 वरिष्ठों पर वरीयता देकर प्रोन्नत कर निदेशक बना दिया गया ।
उस दिन मैं यह सोचता हुआ अपने दफ़्तर लौटा कि क्या मैंने वाकई कश्मीर के आकलन में ग़लती की और क्या सरदार ने जो कहा वह सचमुच सही था ।[v]
अक्सर उद्धृत किये जाने वाला यह लंबा उद्धरण बहुत गौर से पढ़े जाने की ज़रूरत है । मलिक ने कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला, युवराज करण सिंह, थिमैया और कश्मीर के लगभग सभी वर्गों के बारे में बात करके शेख़ के बारे में जो राय बनाई थी वह पटेल के पूर्वाग्रहों के आगे महत्त्वपूर्ण नहीं रह गई । पटेल डोगरा शासन को एक सामंती ढाँचे की तरह नहीं बल्कि एक हिन्दू राजा की तरह देख रहे थे और शेख़ को उसके एक मुस्लिम प्रतिद्वंद्वी की तरह।
शेख़ और नेहरू के बीच किसानों और श्रमिकों के प्रति एकता थी
मलिक अपने इस आकलन में शेख़ और नेहरू के बीच जिस विचारधारात्मक एकता की बात कर रहे थे पटेल उसके बाहर थे । यह विचारधारात्मक एकता दो स्तरों पर थी. पहली तो भूमि सुधारों जैसे क्रान्तिकारी बदलावों के लिए किसानों और श्रमिकों के प्रति प्रतिबद्धता।
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि भूमि सुधार ख़ुद कांग्रेस के एजेंडे में आज़ादी की लड़ाई के दौरान बहुत ऊपर रहे लेकिन आज़ादी के बाद या तो एक तो इनके प्रति कोई विशेष उत्साह नहीं दिखाया गया और दूसरे जहाँ यह आधी-अधूरी लागू भी हुई वहाँ भारी रक़म मुआवज़े के रूप में देने के कारण सामाजिक समता के क्षेत्र में कुछ विशेष करने की जगह राजकीय खज़ाने पर बोझ अधिक बनी. दूसरे जनसंघ जैसे संगठनों को लेकर नेहरू और शेख़ दोनों ही की समझ एक जैसी थी।
नेहरू ने 1964 में एक आधिकारिक बैठक के दौरान स्पष्ट कहा था कि भारत को खतरा वामपंथ से नहीं बल्कि हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथी संगठनों से है. वामपंथ ऐसा क्या दे सकता है जो हम नहीं दे सकते? शेख़ के भी जनसंघ को लेकर यही विचार थे.[vi]
लेकिन उस दौर में न केवल पटेल बल्कि कांग्रेस के भीतर उस दौर में दक्षिणपंथी नेताओं की एक बड़ी संख्या थी जिनके मन में जनसंघ और आरएसएस को लेकर एक सॉफ्ट कॉर्नर था. 1949-50 के बीच कांग्रेस के भीतर की साम्प्रदायिक लॉबी ने अपना प्रभाव काफी बढ़ा लिया । प्रधानमंत्री पद उसकी पहुँच से बाहर था लेकिन उनके इर्दगिर्द घेरा बनाया जा सकता था ।
21 जून 1948 को माउंटबेटन की विदाई के बाद नेहरू ने सी राजगोपालाचारी को गवर्नर जनरल बनाया, वह उन्हें पहला राष्ट्रपति भी बनाना चाहते थे । लेकिन पटेल के नेतृत्व में कांग्रेस संसदीय दल ने राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनवा दिया । नतीजतन जब हिन्दू कोड बिल[2] लाया गया तो सरदार पटेल और साम्प्रदायिक ताक़तों के साथ राजेन्द्र प्रसाद ने भी उसकी राह में रोड़े अटकाए ।[vii] इसके बाद पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए जिन्हें नेहरू ने खुले तौर पर साम्प्रदायिक कहा था ।
टंडन के अध्यक्ष चुने जाने पर नेहरू ने बयान देकर कहा था कि ‘इस निर्णय से साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी ताक़तें ख़ुलेआम ख़ुशियाँ मना रही हैं ।”[viii] ऐसे में पटेल को लेकर शेख़ की आशंका और उसके कारण बेहद स्पष्ट थे ।विभाजन के समय रजवाड़ों के भारत में विलय में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता लेकिन इस प्रक्रिया में उनकी साम्प्रदायिक भूमिका का ज़िक्र अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है ।
ज्ञानेंद्र पाण्डेय ने अपनी किताब रिमेम्बरिंग पार्टीशन में ऐसी एक घटना का ज़िक्र किया है । वह बताते हैं कि अलवर स्टेट के एक पूर्व कैप्टन ने बताया कि “मैं तब अलवर के महाराज तेज़ सिंह का एडीसी था । यह तय किया गया था कि अलवर को मुसलमानों से ख़ाली कर दिया जाए । आदेश सरदार पटेल के यहाँ से आये थे । हमने सबको मार डाला । एक एक मुसलमान को ।[ix]
शेख़ अब्दुल्ला ने भी अपनी जीवनी में 5 नवम्बर 1947 को जम्मू में हुए मुसलमानों के हत्याकांड के ठीक एक दिन पहले सरदार पटेल के जम्मू में होने और महाराजा, महाजन तथा रक्षामंत्री बलदेव सिंह की बैठक का ज़िक्र किया है । सच जो भी हो लेकिन पटेल और शेख़ के बीच का यह अविश्वास लगातार बढ़ता गया और अंततः वे स्थितियाँ बनीं जिनमें शेख़ गिरफ़्तार हुए ।
शेख़ लिखते हैं – सरदार पटेल ने केन्द्रीय गुप्तचर एजेंसियों और सेना की गुप्तचर एजेंसियों का उपयोग जवाहरलाल के मन में संदेह पैदा करने के लिए किया । बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद, करण सिंह और डीपी धर ने उनका हर तरह से सहयोग किया । वे इंदिरा गाँधी, फ़ीरोज़ गाँधी, विजयलक्ष्मी पण्डित और एम ओ मथाई का भरोसा जीतने में सफल रहे ।[x]
इसके पहले वह नेहरू के निजी सचिव पण्डित द्वारका नाथ खाचरू, काशीनाथ बमज़ाई और ब्रिगेडियर बी एच कौल (तीनो कश्मीरी पण्डित) पर नेहरू को उनके ख़िलाफ़ भड़काने का आरोप लगाते हैं ।[xi]
करण सिंह के नेहरू से पत्राचार का जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं जिसमें साफ़ नज़र आता है कि बहुत सफाई और सावधानी से वह नेहरू के मन में शेख़ के लिए ज़हर भरने की कोशिश कर रहे हैं. द्वारकानाथ खाचरू की संदिग्ध भूमिका की बात प्रतिष्ठित कश्मीरी विद्वान आग़ा अशरफ़ अली भी करते हैं ।[xii]
तो जो रिपोर्ट नेहरू के लिए पूरी दुनिया में प्रसारित करने योग्य थी पटेल के लिए वह अपनी योजनाओं के प्रतिकूल थी और बावज़ूद इसके रिपोर्ट बनाने वाले मलिक को 30 से अधिक वरिष्ठों पर वरीयता देकर प्रोन्नति दे दी । पटेल की इस ‘महानता’ का जो प्रभाव मलिक पर पड़ा था वह अल्पजीवी नहीं था ।
कश्मीर को सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पहलू के साथ देखना होगा
इस घटना के बाद शेख़ को लेकर उनके आकलन और उनके निदेशक बनने के बाद आई बी का रवैया, दोनों पूरी तरह बदले हुए नज़र आते हैं । गुंडेविया बताते हैं कि मलिक का उद्देश्य इसके बाद शेख़ और उनके लोगों को पूरी तरह नष्ट कर देना रह गया था. मलिक और गृह मंत्रालय ने शेख़ को भारत का शत्रु बनने पर बाध्य कर दिया. वह लिखते हैं –
ऐसा लगता है कि खेल एक विनीत कनिष्ठ इंटेलीजेंस अधिकारी को कश्मीर भेजकर शुरू हुआ जिसका काम वैसे तो राज्य में पाकिस्तानी गतिविधियों पर नज़र रखना था लेकिन असल में शेख़ अब्दुल्ला की जासूसी करना था।शेख़ को इस आईबी अधिकारी की गतिविधियों का पता चला तो नेहरू की सहायता से जल्दी ही उसे बाहर निकाल दिया गया।
लेकिन गृह मंत्रालय का इंटेलीजेंस ब्यूरो इतनी आसानी से मानने वाला नहीं था। उनका इकलौता लक्ष्य यह था कि कश्मीर से आने वाली विभिन्न रिपोर्टें नेहरू और कांग्रेस की नज़र में शेख़ के प्रति संदेह पैदा करें और उनका दूसरा उद्देश्य शेख़ के समर्थकों के बीच मतभेद पैदा करना था।
वे धीरे धीरे सफल हुए और जब दूसरी बार शेख़ ने शिक़ायत की तो नेहरू ने वैसा उत्तर नहीं दिया…दक्षिणपंथी प्रोपेगेंडा, कानाफूसी द्वारा दुष्प्रचार और राजनैतिक धोखेबाज़ी …तथा इन सबको ‘इंटेलीजेंस रिपोर्टों’ द्वारा, जो गृह मंत्रालय में पहले सम्पादित की जाती थीं और फिर प्रधानमंत्री को भेजी जाती थीं, पूरी तरह से समर्थन ने, मनचाहा असर दिखाया…
1953 की जुलाई आते आते नेहरू के दिमाग़ को पर्याप्त विषाक्त किया जा चुका था…शेख़ अब्दुल्ला की बर्ख़ास्तगी गृह मंत्रालय के “प्रतिक्रियावादी तत्वों” द्वारा बिग स्टेट अबोलिशन एक्ट के ‘कोई मुआवज़ा नहीं’ वाले हिस्से के कश्मीरी संविधान द्वारा संस्तुति के पहले ही उन्हें सत्ता से बाहर करने की साजिश थी.[xiii]
अक्सर हिन्दू-मुस्लिम, देशभक्ति-देशद्रोहिता जैसे सरलीकरणों में समेट दी जाने वाली इन परिघटनाओं के पीछे गहरे और अक्सर बेहद उलझे सामाजार्थिक तथ्य होते हैं. कश्मीर के मामलों में मुस्लिम बहुल होने के कारण सरलीकरणों में फँसना और भी आसान होता है और कम से कम कश्मीरी पण्डितों के संदर्भ में अक्सर यही किया गया है. लेकिन एक सही और सम्पूर्ण समझ के लिए इन सामाजिक-आर्थिक तथ्यों को सांस्कृतिक पहलू के साथ रखकर देखना होगा।
साभार
अशोक कुमार पांडेय, कश्मीर और कश्मीरी पंडित, राजकमल प्रकाशन,2020,नई दिल्ली, पेज- 227-237
संदर्भ
[1] नेहरू-शेख़-मुखर्जी की यह ख़तो-किताबत आर्काइव डॉट ओआरजी पर उपलब्ध है.
[2] हिन्दू कोड बिल और उस पर चले विवाद को गहराई से समझने के लिए पाठक चित्रा सिन्हा की किताब “डिबेटिंग पैट्रियार्की: द हिन्दू कोड बिल कंट्रोवर्सी इन इंडिया (1941-56), प्रकाशक : ओ यू पी इंडिया- 2012 पढ़ सकते हैं.
[i] देखें, पेज 47, नेहरू-मुखर्जी-अब्दुल्ला करिस्पांडेस, जनवरी-फरवरी, 1953
[ii] देखें, पेज़ 42, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974
[iii] देखें, पेज़ 126, बंगलिंग इन कश्मीर, बलराज मधोक, हिन्द पाकेट बुक्स, दिल्ली- 1974
[iv] देखें, पेज़ 387-90, श्यामा प्रसाद मुखर्जी : लाइफ एंड टाइम्स, तथागत रॉय, पेंग्विन, दिल्ली- 2018
[v] देखें, पेज़ 14-16, माई डेज़ विथ नेहरू, बी एन मलिक, अलाइड पब्लिशर्स, दूसरा संस्करण, दिल्ली- जुलाई, 1971
[vi] देखें, पेज़ 110, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974
[vii]देखें,पेज़ 426, डॉ अम्बेडकर : लाइफ एंड मिशन, धंनजय कीर, पॉपुलर प्रकाशन, पुनर्मुद्रित संस्करण, मुंबई-1990
[viii] देखें, पेज़ 145, कश्मीर : बिहाइंड द वेल, एम जे अकबर, रोली बुक्स, छठां संस्करण, दिल्ली – 2011
[ix] देखें, पेज़ 196, रिमेम्बरिंग पार्टीशन, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय, कैम्ब्रिज़ यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली- 2012
[x] देखें, पेज़ 112, फ्लेम्स ऑफ़ चिनार, शेख़ अब्दुल्ला, शेख़ अब्दुल्ला (अनुवाद – खुशवंत सिंह), पेंगुइन- दिल्ली- 1993
[xi] देखें, पेज़ 111, वही
[xii] देखें, पेज़ 30, कश्मीर : द अनटोल्ड स्टोरी, हुमरा क़ुरैशी, पेंग्विन, दिल्ली-2004
[xiii] देखें, पेज़ 111-12, द टेस्टामेंट ऑफ़ शेख़ अब्दुल्ला, पालित एंड पालित पब्लिकेशन, दिल्ली -1974
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री