पंडित जवाहरलाल नेहरू: आधुनिक भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के जनक
भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आधुनिक युग के जनक पंडित जवाहरलाल नेहरू ही हैं। स्वतंत्रता के तुरंत बाद, उन्हीं की प्रेरणा से विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास संभव हुआ। उस समय की परिस्थितियों में, किसी भी दूरदर्शी सार्वजनिक व्यक्ति के लिए यह स्वाभाविक था कि देश के विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी एक महत्वपूर्ण साधन सिद्ध होंगे।
नेहरू इस विचार के समर्थक थे, लेकिन उन्होंने विज्ञान पर जो बल दिया, वह केवल देश के औद्योगिकीकरण और कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता के पारंपरिक भूमिका से मुक्ति तक सीमित नहीं था। नेहरू ने जहाँ प्रौद्योगिकी की उन्नति पर जोर दिया, वहीं उन्होंने “वैज्ञानिक दृष्टिकोण” को अपनाने पर भी विशेष बल दिया। वास्तव में, उन्हें इस विचार का प्रवर्तक माना जाता है, और अब विश्वभर में कई लोग इस दृष्टिकोण को अपनाने लगे हैं।
नेहरू बुद्धिवादी थे, परन्तु शुष्क वृत्ति के बुद्धिवादी नहीं थे। वे कुछ अज्ञेयवादी तो थे, पर धार्मिक प्रवृत्तियों का सम्मान करते थे। अंधविश्वास और कर्मकांड में उनकी कोई आस्था नहीं थी, लेकिन भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता को अस्वीकार नहीं करते थे, जो रूढ़िवादिता से घिरी विचारधारा में समरसता बनाए रखती है। जैसे ही भारत को आजादी मिली, जवाहरलाल नेहरू ने देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की नींव रखी। वे इस आम धारणा के समर्थक थे कि भारत के अल्पविकास का मुख्य कारण विज्ञान के क्षेत्र में उसकी कमी है।
उन्होंने महसूस किया कि विज्ञान की कई प्रयोगशालाएँ स्थापित करना आवश्यक है, विभिन्न महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं और मिशनों के लिए समर्पित वैज्ञानिक संस्थान हों, और वैज्ञानिकों व इंजीनियरों को प्रशिक्षण देने के लिए कई विश्वविद्यालय और प्रौद्योगिकी संस्थान हों।
युद्ध के बाद के काल में कई प्रतिभाशाली वैज्ञानिक इस अभियान में शामिल हुए और पूरी निष्ठा से काम में जुट गए। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि नेहरू के रूप में उन्हें एक ऐसे सहयोगी का साथ मिला था, जो न केवल उनकी विचारधारा से सहमत था बल्कि उनकी भाषा भी समझता था।
नेहरू के समर्थन के बल पर प्रौद्योगीकरण की नीति का सूत्रपात हुआ
समग्र रूप में यह प्रयास सार्थक सिद्ध हुआ है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अधिकांश क्षेत्रों में योग्य व्यक्तियों का प्रभाव है, श्रेष्ठ स्तर का शोध और विकास हो रहा है, और वैज्ञानिकों में आत्मविश्वास है, जिसके बल पर वे तकनीकी क्षेत्र में बड़ी चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर रहे हैं। संभवतः और अधिक सफलता मिलती, यदि निर्णय और प्रशासन के क्षेत्र में भी समान रूप से सक्षम ढाँचे खड़े करके इस नवोदित कार्यक्षमता का समुचित उपयोग किया गया होता।
जवाहरलाल नेहरू के ही भारी समर्थन के बल पर प्रौद्योगीकरण की नीति का सूत्रपात किया। कहां तो यह अवस्था थी कि देश में एक पेंसिल अथवा टैग भी नहीं बनता था पर प्राज हम ऐसी सुखद स्थिति में हैं कि देश की जनशक्ति और देश में स्थापित प्रौद्योगीकरण आधार ढांचे के बल पर हम किसी भी औद्योगिक अथवा तकनीकी जरूरत को काफी हद तक पूरा कर सकते हैं।
इन सभी सफलताओं के बावजूद “वैज्ञानिक दृष्टिकोण” की क्या स्थिति है? हमने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को एक पुछल्ला बनाकर रख दिया है। इस नीति को अपनाने से कुछ हद तक सफलता मिली है, लेकिन इससे यह धारणा बनने लगी है कि विज्ञान की सीमित दुनिया केवल फैक्टरियों, उद्योगों, उर्वरकों और उच्च उत्पादन क्षमता वाली फसलों तक ही सिमटी हुई है।
देश में अभी भी पहले जैसा अंधविश्वास और रूढ़िवादिता बनी हुई है, और वैज्ञानिक भी इससे अछूते नहीं हैं। हम विज्ञान को केवल एक साधन मानने लगे हैं। विज्ञान के प्रति हमारा यह दिखावटी सम्मान ऐसा है जो किसी के व्यक्तित्व को कोई वास्तविक शक्ति नहीं देता; थोड़ी सी खरोंच आने पर इसकी चमक फीकी पड़ जाती है।
विज्ञान अब भी हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा नहीं है
हमने ऐसी ठोस प्रक्रिया नहीं अपनाई है, जिससे विज्ञान हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन जाए और ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण हो जो विज्ञान को पूरी तरह आत्मसात कर सके। इस प्रकार कहा जा सकता है कि देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का निर्माण करने का नेहरू का सपना अभी अधूरा है। लेकिन यह स्थिति केवल भारत की ही नहीं है। बड़ी प्रौद्योगिकीय सफलताओं के बावजूद विकसित देश भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आत्मसात नहीं कर पाए हैं। यह कहना अधिक उचित होगा कि ऐसी स्थिति केवल प्रौद्योगिकी की सफलता के बावजूद नहीं है, बल्कि उसके कारण है।
यहाँ तक कि अंतरिक्ष विज्ञान और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई उन्नति ने भी अलौकिक वस्तुओं, उड़न तश्तरियों और ग्रहों पर आधारित जन्म-कुंडलियों में विश्वास को और गहरा कर दिया है। होना तो यह चाहिए था कि चेतन हो या जड़, सभी तत्वों की सारभूत एकता का ज्ञान और अधिक बढ़ता। एक नए मनोविज्ञान का सहज विकास होता, जिसमें पृथ्वी को एक एकल यात्रा पर निकला अंतरिक्ष यान माना जाता; उसके सभी निवासी इसे अपना घर मानते, एक-दूसरे के साथ किसी प्रकार का झगड़ा नहीं करते और “वसुधैव कुटुंबकम्” के आदर्श को साकार करते।
“जीने” की क्रिया से विज्ञान का जीवंत समन्वय अनेक प्रकार से किया जा सकता है। इसके लिए ऐसे विकास की आवश्यकता है, जिसमें व्यक्ति संकेतों पर नाचने वाले रोबोट या रक्तहीन मस्तिष्क बनकर न रह जाए। एक नए प्रकार के मनोविज्ञान और धर्म का उदय हो सकता है—ऐसे धर्म का, जो मसीहाओं के इलहामों और संदेशों पर आधारित न होकर पूरी तरह व्यक्तिगत और सार्वभौमिक हो, और जिसमें मानव यह बेहतर समझ सके कि इस विश्व-मंच पर उसकी भूमिका क्या है। आइंस्टीन भी धर्म के बारे में कुछ इसी प्रकार के निष्कर्ष पर पहुंचे थे, जिसमें जादू और रहस्य से मुक्त एक आश्चर्य का भाव हो सकता है।
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आज विज्ञान के प्रति वितृष्णा बढ़ती जा रही है
प्रकृति के धर्म के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाज व्यवस्था के विश्लेषण के लिए एक समानुपाती सिद्धांत सिद्ध हो सकता है, जिसमें स्थिरता और प्रबंधन की भूमिका भी शामिल है। इससे यह सद्बुद्धि प्राप्त हो सकती है कि सर्वोत्तम नियंत्रण विकेंद्रीकृत सूचना-प्रबंधन द्वारा ही संभव है, जैसा कि जैविक प्रक्रियाओं या ग्रहों के विकास में देखा जाता है। वैज्ञानिक पद्धति की विशेषता यह है कि यह विभिन्न तत्वों के परस्पर संबंधों का विश्लेषणात्मक ज्ञान देती है। इस क्रमहीन और अज्ञेय जगत में, विज्ञान हमें दिशा और ज्ञान का बोध कराने में सक्षम है।
विज्ञान के प्रति वितृष्णा बढ़ती जा रही है। यह स्वाभाविक है कि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी के व्यावहारिक पक्ष पर बल देते हैं। लेकिन जहाँ तक प्रौद्योगिकी का संबंध है, वह मानव की शारीरिक क्षमता का विस्तार है और इस रूप में उसकी इच्छाओं का उपकरण भी है। यदि यह शक्ति सीमित होकर कुछ चंद हाथों में सिमट जाती है, तो निश्चित रूप से वही लोग सर्वेसर्वा होंगे और असमानताएँ बढ़ेंगी। यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि क्षमता के हर विस्तार में बुराई ही निहित है। लेकिन वितृष्णा का मुख्य कारण यह है कि मानव विज्ञान द्वारा प्रदत्त भौतिक साधनों के पीछे तो लगा हुआ है, परंतु उसकी आत्मा को नहीं समझ पाया है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह समाज की सौंदर्यपरक और सांस्कृतिक परंपराओं की अवहेलना करे। समस्त प्रकृति का सौंदर्य, संगीत, और आनंद उसके व्यक्तित्व में समाहित हो सकता है। जहाँ वह तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाता है, वहीं वह इलेक्ट्रॉन, अणु, और परमाणु के नृत्य पर भी ताल दे सकता है।
मेरे विचार में, जवाहरलाल की ‘वैज्ञानिक वृत्ति’ का यही अर्थ है। उनसे जो मैंने सुना, उसके आधार पर मैंने यही समझा। दुनिया की मंजिल अभी भी बहुत दूर है, और हमारी मंजिल तो और भी लंबी है; न जाने यह वृत्ति कब सर्वसुलभ होगी?
संदर्भ
16 मई 1982 आकाशवाणी पत्रिका में प्रकाशित
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में