मेहनकतकश लोगों और किसानों के लिए समर्पित जीवन- गोदुताई
“गोदुताई” ठाणे-पालघर क्षेत्र में पुराने वर्ली लोगों के बीच एक प्रसिद्ध नाम है। यह एक उपनाम था, जो प्यार से गोदावरी पारुलेकर को दिया गया था, जो एक अच्छी तरह से काम करने वाली परिवार की एक शिक्षित महिला थीं, जिन्होंने 1940 के दशक में आदिवासी समुदाय पर थोपे गए दर्द को लड़ा और महसूस किया।
गोदावरी पारूलेकर की नज़रों में स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ़ देश की आज़ादी ही नहीं, बल्कि समाज के लाखों मेहनतकश लोगों को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय दिलाना भी था। उन्होंने अपने जीवनकाल में ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ कई आन्दोलनों में हिस्सा लिया। प्रसिद्ध वर्ली किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया तथा अंत तक मेहनकतकश लोगों और किसानों के लिए संघर्ष करती रही।
जन्म, शिक्षा और व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सेदारी
अपना पूरा जीवन मेनतकश लोगों और किसानों को समर्पित कर देने वाली गोदावरी पारूलेकर एक स्वतंत्रता सेनानी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थी।
14 अगस्त 1907 को पूना में जन्मी गोदावरी का जन्म समान्य मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। फर्ग्यूसन कॉलेज से अर्थशास्त्र और राजनीति की पढ़ाई पूरी की और फिर कानून की पढ़ाई की। वह महाराष्ट्र में पहली महिला कानून स्नातक थी।
कॉलेज के दिनों में ही गोदावरी अंग्रेजों के खिलाफ छात्र आन्दोलनों से जुड़ चुकी थी। कई व्यक्तिगत सत्याग्रहों का हिस्सा रही। इन सत्याग्रहों के कारण 1932 में जेल की सजा हुई।
जो उनके उदारवादी परिवार को पसंद न नहीं आया, क्योंकि उनका परिवार ब्रिटिश शासन के साथ सहजता महसूस करता था। फिर उन्होंने घर छोड़ दिया और मुंबई में समाज सेवा में शामिल होने का फैसला किया।
सामाजिक कार्यो में भागीदारी
गोदावरी सर्वेट्स आंफ इंडिया सोसाइटी में शामिल हो गई। वह पहली महिला आजीवन सदस्य थी। 1937 में उन्होंने महाराष्ट्र में साक्षरता अभिमान चलाया। 1938 में उन्होंने घरेलू कामगारों को श्रामिक वर्ग के एक हिस्से का रूप में संघबद्ध किया।
1938-39 में उन्होंने महाराष्ट्र के ठाणे जिले में किसानों को संगठित किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात शामराव पारुलेकर से हुई। वे भी सर्वेट्स आंफ इंडिया के सदस्य थे। 1939 में दोनों से शादी कर ली।
गोदावरी और शामराम पारुलेकर की विचारधारा सर्वेट्स आंफ इंडिया सोसाइटी से मेल नहीं खाती थी। उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के युद्ध प्रयासों का विरोध किया। कुछ विवादों के बाद, उन्होंने संगठन छोड़ दिया और 1939 में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गई।
गोदावरी का मानना था कि श्रमिक वर्ग और किसानों को संगठित करने ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंका जा सकता है। उन्होंने मुबंई में मजदूरों की पहली युद्ध विरोधी हड़ताल का आयोजन किया।
अन्य नेताओं के पकड़े जाने के बाद भी, उन्होंने विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। 1940-42 तक जेल में रही। फिर उन्होंने अपना ध्यान किसानों को संगठित करने पर केंद्रित किया। वे अखिल भारतीय किसान सभा में शामिल हुई और इसकी शाखा के रूप में महराष्ट्र राज्य किसान सभा की स्थापना की।
वारली आदिवासी विद्रोह का नेतृत्व और संघर्ष
इसके बाद उन्होंने अपना जीवन ठाणे में वार्ली समुदाय के संघर्ष में समर्पित कर दिया, जिन्हें धनी जमीदारों द्वारा जबरन और बंधुआ मजदूरी में धकेला जा रहा था। उन्होने अपने पति शामराव के साथ 1945-47 तक वारली आदिवासी विद्रोह का नेतृत्व किया। अपनी पुस्तक जेव्हा मानुस जगा होतो में उन आन्दोलन के हर घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया।
“उन्होंने [वार्ली] न केवल महसूस किया कि हम अलग थे, उन्होंने देखा कि हम खुद को उनमें से एक मानते हैं। इसने हमें उनका विश्वास जीतने में मदद की। इस किताब ने उन्हें गर्व दिलाया जहाँ वे पहले समाज द्वारा केवल आश्चर्य थे … वे आश्चर्यचकित थे और आंतरिक रूप से खुश थे कि हम उनके साथ खाएंगे और सोएंगे … जो लोग कभी इंसानों की तरह व्यवहार नहीं करते थे वे मानवता और समर्थन के लिए इतने भूखे थे।”
उन्होंने वारली लोगों के बारे में होने वाली हर दुर्दशा का जीवंत चित्रण अपनी किताब में किया है जिसमें उन्हें जीवित दफनाए जाने से लेकर यौन उत्पीड़न तक किए गए भयानक अत्याचारों को चित्रित किया है।
उन्होंने एक ऐसी घटना सुनाई, जिसमें एक महिला का एक मकान मालिक द्वारा यौन उत्पीड़न किया गया था। इस अन्याय का विरोध करने की कोशिश करने वाले उसके पति को दफनाया गया था और यद्यपि एक मामला दर्ज किया गया था, लेकिन दफन स्थान की जांच करने वाले डॉक्टर ने कहा कि हड्डियाँ किसी जानवर की थीं।
पारुलेकर ने वार्लियों के लिए कोई सरकार नहीं होने का हवाला देकर कहानी का समापन किया। क्या यह तथ्य पिछले 50 वर्षों में बदल गया है?
उनकी किताब में ऐसी कई घटनाओं में महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे अत्याचार, जादू टोना का आरोप, उपर्युक्त जैसे व्यापक दिन के उजाले में हत्याएँ शामिल हैं। उन्होंने आधे नंगे वारली बच्चों के बारे में भी बात की, जो अपने पूरे बचपन में आधे-अधूरे भरे पेट के साथ बिस्तर पर जाने के आदी थे जबकि उन्हें अपने पिता द्वारा लाई गई चॉकलेट खाने का सौभाग्य मिला था।
आजादी के बाद भी गोदावरी वारली और आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ती रही। उन्होंने 1961 में शामराव के साथ मिलकर आदिवासी प्रगति मंडल की स्थापना की। 1965 में शामराव के निधन के बाद गोदावरी सीपीआई (एम) का नेतृत्व जारी रखा। 1986 में वे अखिल भारतीय किसान सभा की पहली महिला अध्यक्ष बनी।
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साहित्य अकादेमी और अन्य सम्मान से सम्मानित
गोदावरी ने अपने संघर्षों को अपनी किताब में दर्ज किया। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक जेव्हा मानुस जगा होतो को 1972 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला।
इस किताब को जवाहरलाल नेहरू और सोवियत लैंड पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इसका अनुवाद कई भाषाओं में हुआ। उनकी अन्य पुस्तकें आदिवासी विद्रोह: संघर्ष में वारली किसानों की कहानी और बांदीवासची आठ वर्ष (कारावास के आठ वर्ष) हैं।
गोदावरी को भारत के हाशिये पर रहने वालों और दलित समुदायों के प्रति उनकी सेवा के लिए लोकमान्य तिलक पुरस्कार और सवत्रीबाई पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इतिहास के सुनहरे पन्नों में लिखी गई क्रांतिकारी गोदावरी पारुलेकर का प्रेरणामय जीवनगाथा आगे आने वाली पीढ़ी तथा समाज को हमेशा प्रेरित करती रहेगी।
संदर्भ
GODAVARI PARULEKAR, NEETHIRAJAN, ADIVASIS REVOLT: The Story of Warli Peasants in Struggle, South Vision Books; 2022
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री