एक संपादक के रूप में महात्मा गांधी
आत्मसंवाद के जरिए संसार से संवाद करने के माध्यम के रूप में महात्मा गांधी ने साप्ताहिक अखबार इण्डिन ओपीनियन की संपादकीय जिम्मेदारियों का वहन किया। बाद में न केवल इंडियन ओनीनियन, बल्कि हरिजन, यंग इंडिया, दैनिक नवजीवन और हरिजनसेवक जैसे पत्रों के माध्यम से वह पाठकों के कठोर से कठोर सवालों का सजहता से जवाब देने नियमित रूप से जारी ही नहीं रहा। प्रेस के स्वतंत्रता जैसे प्रश्नों पर भी खुलकर अपने विचार अभिव्यक्त किया।
गांधीजी ने एक स्वतंत्र समझ की पत्रकारिता विकसित की
महात्मा गांधी अपने जीवनकाल में विशेष दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौटने के बाद अपने समय में महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के साथ संवाद ही नहीं, वाद-विवाद के केंद्र में रहे। असंख्य शब्द लिखे और उससे ज्यादा बेहिसाब शब्द उन्होंने बोले।
जैसे-जैसे वह भारतीय राजनीति में प्रासंगिक होने लगे, उन्होंने अपनी पत्रकारिता में जिनका संपादन उनके नेतृत्व में हो रहा था, अपने आप-पास तमाम सक्रिय शक्तियों के बीच एक स्वतंत्र समझ की पत्रकारिता करने का प्रयास किया। महात्मा गांधी का मानना था कि कलम की निरंकुशता खतरनाक हो सकती है। आज उस पर व्यवस्था का अंकुश हद से ज्यादा है, इसे इंकार नहीं किया जा सकता है, व्यवस्था के इस अंकुश को गांधीजी ने खतरनाक कहा था।दक्षिण अफ्रीका के अपने अखबार के बारे में गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखा है
समाचार-पत्र सेवाभाव से ही चलाने चाहिए। समाचार-पत्र में एक जबर्दस्त शक्ति है: लेकिन जिसप्रकार निरंकुश पानी का प्रभाव गाँव के गाँव को डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है। उसी प्रकार निरंकुश कलम का प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। अगर वह अंकुश ए बाहर आता है तो वह निरंकुशता से अधिक विषैला सिद्ध होता है। अकुंश अंदर का ही लाभदायक हो सकता है।
गांधीजी पत्रकारिता से जुड़ी जिम्मेदारियों के विषय में संकेत दे रहे है। आज मौटे तौर पर हम यह मानकर चलते हैं कि शासन के प्रतिनिधियों को चूंकि जनता ने स्वयं अपने लिए चुनकर भेजा है, इसलिए जनता को सवाल पूछने का अधिकार है और जब जनता के पास सवाल पूछने के औपचारिक और प्रत्यक्ष साधनों और मंचों का अभाव हो तो प्रेस या पत्रकारिता ही वह माध्यम है जो शासन के बीच सवालों और जवाबों के घर्षण से पैदा हुए विचारों को प्रसारित करने का भी एक स्वाभाविक दावेदान बन जाता है।
परंतु, मौजूदा दौर में स्थिति थोड़ी उलट हो चुकी है। मीडिया ही शासन के मुखपत्र के तरह काम कर रही है। मीडिया ने शासन से सवाल पूछने के अपनी जिम्मेदारी जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसको दी गई है, उसका भार वहन करने से दूर भाग रही है। फिर जनता के सवालों को पूछने की बुनियादी जिम्मेदारी किसके पास है यह सवाल यक्ष प्रश्न के तरह खड़ा है।
गांधीजी टेलीविजन या डिजिटल पत्रकारिता की दुनिया को देखकर क्या महसूस करते
इस बात का अन्दाज लगाना मुश्किल है कि गांधीजी आज के टेलीविजन या डिजिटल पत्रकारिता की दुनिया को देखकर क्या महसूस करते, जो जल्दीबाजी में एक ऐसे कैप्सूल में तब्दील हो चुकी है जिसका उद्देश्य फटाफट लोगों क पेट भरना है। मिशेल फूकों के शक्ति के सिद्धांत का संदर्भ ले तो मूल विषय पर बहस करते हुए मूल विषय को बहस से बाहर करना ही है।
मौजूदा समय में मीडिया जिस भूमिका में है वहाँ एक सवाल पब्लिक डोमेन में पूछा जाना चाहिए कि क्या जनता के सवाल पूछने का अधिकारी मौजूदा मीडिया का जो संस्थागत रूप है, वह है?
आज चाहे छपने वाला मीडिया हो या प्रसारित होने वाला मीडिया यसकी सरचना में पाठकों या दर्शकों से परस्पर संवाद करने की शैली कम हुई। अगर वह थोड़ी बहुत बची हुई भी है तो वह भी मीडिया के अपने एजेंडे के शर्तों पर।महात्मा गांधी अपने अख़बार इण्डियन ओपीनियन के बारे में अपनी आत्मकथा में लिखते है-
अख़बार के द्वारा मुझे मनुष्य के रंग-बिरंगे स्वभाव का बहुत ज्ञान मिला। संपादक और ग्राहक के बीच का निकट का और स्वच्छ सम्बंध स्थापित करने की धारणा होने से मेरा पास ह्रदय खोलकर रख देने वाले पत्रों का ढ़ेर लग जाता है। उसमें तीखे, कड़वे, मीठे, भांति-भांति के पत्र मेरे नाम आते थे। उनको पढ़ना उनपर विचार करना, उनके उत्तर देना यह सब मेरे लिए शिक्षा का उत्तम साधन बन गया था। मुझे ऐसा अनुभव हुआ मानो इसके द्वारा में समाज में चल रही चर्चाओं और विचारों को सुन रहा हूँ।
महात्मा गांधी समाचार पत्रों के विषैली पत्रकारिता के विषय में 28 मई 1931 को यंग इंडिया में लिखते है कि–
अखबारों की नफरत पैदा करने वाली बालों से भरी हुई कुछ कतरनें मेरे सामने पड़ी हैं, इनमें सांप्रदायिक उत्तेजना, सफेद झूठ और खून-खराबे के लिए उसकानेवाली राजनीतिक हिंसा के लिए प्रेरित करने वाली बातें हैं। निसंदेह सरकार के लिए मुकदमें चलाना या दमनकारी अध्यादेश जारी करना बिल्कुल आसान है। पर ये उपाय क्षणिक सफलता के सिवाय अपने लक्ष्य में विफल ही रहते है;
ऐसे लेखको का ह्रदय परिवर्थन तो कतई नहीं हो सकता है क्योंकि जन उनके हाथ में अख़बार कैसा प्रकट माध्यम नहीं रह जाता, तो वे अक्सर गुप्त रूप से प्रचार का सहारा लेते है। इसका वास्तविक इलाज तो वह स्वस्थ लोकमत है जो विषैले समाचार-पत्रों को प्रश्रय देने से इंकार करता है।
पत्रकारिता में सामाजिक गैरबराबरी के भागीदारी का सवाल आज महत्वपूर्ण है
मौजूदा पत्रकारिता में सामाजिक गैरबराबरी के भागीदारी का सवाल एक महत्त्वपूर्ण सवाल है। यह सवाल काफी हद तक एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य सवाल है। महात्मा गांधी के पत्रकारिता के दौर में यह सवाल अधिक सक्रिय नहीं रहा था। परंतु, उस दौर में वंचितो और दमित समुदाय हाशिये से उठकर केंद्न में अपनी सतह का विस्तार कर रहा था,
इसकी जरूरत समझते हुए ही महात्मा गांधी ने हरिजन पत्र का संपादन किया। वंचित और दमित समुदाय के सवालों को महात्म गांधी किस तरह से अभिव्यक्त कर रहे थे, इसपर कई शोध मौजूदा समय में उपलब्ध है, जो अनुभूति और अनुभव के आधार पर आलोचना के दायरे से बाहर नहीं है। इस विशःय पर गांधीजी की कही यह बात याद कर सकते है
स्व-विनियमन या आत्म-नियंत्रण) का यह तर्क यदि सच हो तो दुनिया के कितने समाचार-पत्र इस कसौटी पर खरे उतर सकते हैं? लेकिन निकम्मों को बंद कौन करे? कौन किसे निकम्मा समझे? भलाई और बुराई की तरह उपयोगी और निकम्मे अख़बार भी साथ-साथ चलते रहेंगे। लोगों को उनमें से अपनी-अपनी पसंद चुननी होगी।’
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में