क्या बीफ़ का समर्थन करते थे सावरकर?
गाय को लेकर दक्षिणपंथी बेहद संवेदनशील हैं। भारतीय समाज में गाय का एक अलग सम्मान भी है।
सावरकर गाय की गधे और कुत्ते से तुलना करते थे। गोहत्या को सामान्य मानते यह और बीफ़ खाने से उन्हें कोई समस्या नहीं थी। सावरकर ने कहा था गोमांस से समस्या नहीं, कई हिन्दू खाते हैं बीफ सावरकर नहीं चाहते थे कि गाय को भगवान माना जाए, लेकिन वो ये मानते थे कि गाय मानव जाति के लिए उपयोगी है और हमें उसका पूरा फायदा उठाना चाहिए।
उनका कहना था कि रक्षा के लिए पूजा वाली बात सही है, लेकिन किसी की पूजा करना और रक्षा करा भूल जाना ठीक नहीं है।
सावरकर के गाय पर विचार
[सावरकर समग्र के खंड 7 में विनायक दामोदर सावरकर के गाय सम्बन्धी दो लेख मिलते हैं जिनमें उनके गाय, गोमूत्र और गो हत्या को लेकर विचार परंपरावादियों से काफ़ी अलग हैं।]
पहला लेख है – गोपालन हो, गो पूजन नहीं! इस लेख में वह शुरुआत में ही सवाल करते हैं – गाय एक उपयोगी पशु है, इसलिए हमें प्रिय लगती है यह बात निर्विवाद है किन्तु जो गो भक्त उसे कृतज्ञता से देवी समझ कर पूजते हैं उन्हें भी वह पूजा योग्य है क्या?
इस सवाल का जवाब नकारात्मक में देते हुए वह कई बातें कहते हैं – मनुष्य को गाय का अधिकाधिक प्रत्यक्ष उपयोग यदि करना है तो उसे देवी समझकर गोपूजन की भावना पूर्णतः त्याज्य है, यह हमें मानना होगा।
गाय तो प्रत्यक्ष पशु है। मनुष्यों मने निर्बुद्ध लोगों जितनी बुद्धि भी जिसमें नहीं होती ऐसे किसी पशु को देवता मानना मनुष्यता का अपमान करना है।
मनुष्य की तुलना में सद्गुणों में और सद्भावना में जो उच्चतर होते हैं ऐसे प्रतीक को एक बार देव कहा जा सकता है; परंतु नोकदार सिंग, गुच्छदार पूँछ इनके अलावा जिस पशु (गाय) में मनुष्य से भिन्न बताने योग्य कोई आधिक्य नहीं, मनुष्य को उपयुक्त करके जिसका गौरव मनुष्य को लगती है ऐसी गाय को या किसी पशु को देवता मानना मनुष्यता का ही नहीं अपितु देवत्व को भी पशु के अपेक्षा हीन मानना है।
वह फिर एक सवाल करते हैं –
गोशाला में खड़े-खड़े घास, चारा खाने वाले, खाते समय ही निःसंकोचता से माल-मूत्र करने वाले, थकान आते ही जुगाली करके उसी मल-मूत्र में बैठने वाले, पूँछ के द्वारा वह कीचड़ अपने ही बदन पर उछालने वाले और फिर वैसे ही फिर गोशाला में बँधने वाले उस पशु को, शुद्ध और निर्मल वस्त्र पहने हुए ब्राह्मण या महिला द्वारा हाथों में पूजापत्र लेकर गोस्थान में पहुँचकर उसकी पूँछ का स्पर्श करते हुए अपनी पवित्रता को बाधा न देते हुए उसका गोबर और गोमूत्र चाँदी के पात्र में घोलकर पीने से आपका जीवन निर्मल हो गया- ऐसा मानना कहाँ तक उचित है?
इसके आगे वह गाय को देवता मानने को राष्ट्र के लिए भयावह और नुकसान का कारण बताते हैं। वह लिखते हैं दस मंदिर, मुट्ठी भर ब्राह्मण और पाँच-दस गायें मारने का पाप टालने के लिए राष्ट्र को मरने दिया गया। गोहत्या पाप नहीं है
सावरकर पूछते हैं
गोहत्या का पाप, गोपूजन का पुण्य बस! गो हत्या ही पाप क्यों? भैंस हत्या या गधे की हत्या पाप क्यों नहीं? विस्तार से विवेचना करते हुए उनका निष्कर्ष है कितना भी उपयुक्त हो गाय एक पशु है, उसे देवता मानने से सामान्य लोक उसका पालन उत्कटता से करेंगे, इसलिए उसे देवता मानेंगे, गोपूजन को धर्म मानना चाहिए, यह समझ एक मूर्खता की है, समाज की बुद्धिहत्या के कारण होती है।
गाय से अधिक उपयोगी कुत्ता है
सावरकर तर्क देते हैं कि कृषि युग और गोपालन के पहले से गाय की तुलना में मनुष्य के अधिक निष्ठावान सेवक घोड़ा और कुत्ता थे। युद्ध गाय नहीं घोड़ों के भरोसे लड़े गए। यीशू का उदाहरण देते हुए वह बताते हैं कि गधा आज भी बच्चों, बूढ़ों की सवारी है और अधिक उपयोगी है।
वह लिखते हैं
कुत्ता अति उपयुक्त, प्रत्यकाश दत्तात्रेय भगवान का प्यारा; इसलिए कुत्ते को ही देवता समझ लो, श्वान हत्या को ‘पाप’ मानें।
इस लेख में वह स्पष्ट कहते हैं कि गाय एक पशु है इसलिए उसको देवता समझकर हम यह पागलपन जो गाय के सम्बन्ध में करते हैं वह सब केवल मूर्खता नहीं है क्या?
दूसरा लेख : गोग्रास
इस लेख में सावरकर अधिक कटु हैं। गाय को ग्रास खिलाने के आडंबर का वह मज़ाक उड़ाते हैं और योरप में वैज्ञानिक विधि गाय पालन की तारीफ़ करते हैं। वह यहाँ तक कहते हैं कि
सही माने में आज यदि पृथ्वी पर गोकुल होगा तो वह गोमांसभक्षक अमेरिका में है जहाँ गाय को एक पशु मानकर चला जाता है। वह गाय की देह में देवताओं के वायस जैसे विश्वास का भी खुलकर मज़ाक उड़ाते हुए कहते हैं कि ‘अगर कोई आवारा गाय की पीठ पर, वैसे ही दूहते समय गाय के लात मारते ही उसे पीटता है तो दस-पाँच देव तो स्वर्गवासी हो ही जाते हैं।
गोमूत्रपान मूर्खता है इस अध्याय के अंत में सावरकर ने गोमूत्र पान पर प्रहार किया है। वह पूछते हैं –
माता के लिए भी जो पदार्थ असेव्य मानते हैं वे भी गाय के लिए सेव्य मानकर, पवित्र मानकर, उसका गोबर और गोमूत्र समारोहपूर्वक पीना, इसे आचार कहें या अत्याचार?
उनकी मान्यता है कि
हमें ऐसा लगता है कि गाय का गोबर कहना और गोमूत्र पीना कभी किसी समय एक उपमर्दकारक निंदाव्यंजक सजा दी जाती होगी। पापी की पूँछ उड़ाना, गधे पर बैठाना आदि सार्वजनिक बदनामी के समान उसे सजा मान गाय का गोबर और मूत्र सेवन करना पड़ता होगा। प्रायश्चित में भी गोमय, गोमूत्र की स्पष्टता यही दर्शाती है। आगे चलकर उस सजा का ही धर्मीकरण हो गया।
तो ‘हिन्दू राष्ट्र’ के प्रस्तावक गाय को लेकर क़तई भावुक नहीं थे।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में