शहादत दिवस पर बापू को याद करती हुई सरोजिनी नायडू
गांधी जी का रिश्ता. और सरोजिनी नायडू एक आदर्श गुरु शिष्या के रूप में विकसित हुईं-एक गुरु जिसमें अपने शिष्य के प्रति अत्यधिक विचारशीलता और स्नेह था। शिष्य के मन में अपने गुरु के प्रति हार्दिक श्रद्धा के अलावा और कुछ नहीं होता। उनकी शानदार हाजिरजवाबी. और कभी-कभार आनंददायक भर्त्सनाएं द्वेष के किसी भी निशान से पूरी तरह मुक्त थीं। पूरी तरह से निःस्वार्थ और पारदर्शी, दोनों महान बुद्धि और ज्ञान से संपन्न थे।
जब पहली बार गांधीजी से मिली सरोजिनी नायडू
सरोजिनी की गांधीजी से पहली मुलाकात भी एक तरह से गोपाल कृष्ण गोखले के माध्यम से ही हुई थी, जब उन्होंने गांधीजी को दक्षिण अफ्रीका से लंदन होते हुए भारत लौटने का निमंत्रण दिया था। लेकिन जब गांधीजी लंदन पहुंचे, तो गोखले को अप्रत्याशित रूप से कुछ दिनों के लिए पेरिस में रोक लिया गया। तब संयोग से सरोजिनी बीमारी से उबरने के लिए लंदन में थीं। बाद में सरोजिनी ने गांधीजी के साथ अपनी पहली मुलाकात का वर्णन इस प्रकार किया:
“यह दिलचस्प बात है कि महात्मा गांधी के साथ मेरी पहली मुलाकात 1914 के महान यूरोपीय युद्ध की पूर्व संध्या पर लंदन में हुई थी। जब वह दक्षिण अफ्रीका में अपनी जीत से ताज़ा होकर पहुंचे थे, जहां उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध के अपने सिद्धांत की शुरुआत की थी और जीत हासिल की थी उनके देशवासी, जो उस समय मुख्य रूप से गिरमिटिया मजदूर थे, निस्संदेह जनरल स्मट्स के स्थान पर, मैं आगमन पर उनके जहाज से नहीं मिल सका। लेकिन अगली दोपहर, मैं केंसिंग्टन के एक अज्ञात हिस्से में उनके आवास की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा।
एक पुराने, गैर-फैशनेबल घर की खड़ी सीढ़ियों पर चढ़ गया, एक खुले दरवाजे पर एक छोटे से आदमी की जीवित तस्वीर लगी हुई थी, जिसका सिर मुंडा हुआ था, जो एक खाली जेल की छत पर फर्श पर बैठा था। उसके चारों ओर सूखी जमीन के कुछ टूटे-फूटे टुकड़े फैले हुए थे। – सूखे केले के आटे के मेवे और बेस्वाद बिस्कुट। मैं एक प्रसिद्ध नेता की मनोरंजक और अप्रत्याशित दृष्टि पर सहज रूप से हँसी में फूट पड़ा, जिसका नाम पहले से ही हमारे देश में एक घरेलू शब्द बन गया था।
“उन्होंने अपनी आंखें उठाईं और मुझ पर हंसते हुए कहा: ‘आह, आप श्रीमती नायडू होंगी! और कौन इतना अपमानजनक होने की हिम्मत कर सकता है। ‘अंदर आओ,’ उन्होंने कहा, ‘और मेरा भोजन साझा करो।’
‘नहीं, धन्यवाद। मैंने उत्तर दिया , सूँघते हुए, ‘यह कितनी घृणित गड़बड़ी है’।
“इस तरह और उसी क्षण हमारी दोस्ती शुरू हुई, जो वास्तविक कामरेडशिप में विकसित हुई, और एक लंबे, वफादार शिष्यत्व में फलीभूत हुई, जो भारत की स्वतंत्रता में तीस साल से अधिक की सामान्य सेवा के दौरान एक घंटे के लिए भी नहीं डिगी। विदेशी शासन से।”
श्रीमती के रूप में पद्मिनी सेन गुप्ता ने सरोजिनी नायडू की जीवनी में लिखा है,
“लंदन में यह पहली मुलाकात एक यादगार दिन थी, एक ऐसी घटना जिसने सरोजिनी नायडू के जीवन की पूरी दिशा बदल दी, जो उन्हें विद्वानों और कवियों के मधुर ड्राइंग रूम से दूर ले गई।” और उसे एक भिखारी-संत के सामने रख दिया। तब से, अपने चुंबकत्व के साथ, उसने उसका लगभग पूरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया”।
सरोजिनी नायडू इस पहली मुलाकात को कभी नहीं भूलीं और बार-बार इसका जिक्र करती रहीं।
महात्मा गांधी के शहादत पर श्रद्धाजंली देते हुए सरोजिनी ने कहा
जिन्होंने अपने जीवन, आचरण, त्याग, प्रेम, साहस और निष्ठा से संसार को सिखाया है कि यथार्थ वस्तु आत्मा है, शरीर नहीं और आत्मा की शक्ति संसार की सारी सेनाओं की संयुक्त शक्ति से, युगों की संयुक्त सेनाओं की शक्ति से अधिक है, कैसे मर सकते हैं? जो इतने छोटे, दुर्बल और धनहीन थे, जिनके पास अपना तन ढकने के लिए समुचित वस्त्र भी न थे, जिनके पास सुई की नोक बराबर जमीन तक न थी, वह हिंसा की शक्तियों से, संसार की ताकत से और संसार की जूझती शक्तियों की भव्यता से इतने अधिक शक्तिशाली कैसे थे? क्या कारण है कि यह छोटा सा नन्ना-सा, बच्चे से शरीर वाला आदमी, जो इतना आत्मत्यागी था और स्वेच्छा से इसलिए भूखा रहता था कि गरीबों के जीवन के ज्यादा पास रह सके, वह सारे संसार पर ऐसी सत्ता कैसे रखते थे, जैसी कि बादशाह भी कभी न रख सके?
यह इसलिए था कि उन्हें प्रशंसा की चाह न थी, निंदा की परवाह न थी। उन्हें केवल सत्य मार्ग की परवाह थी। उन्हें केवल उन्हीं आदर्शों की चिंता थी, जिसकी वह शिक्षा देते थे और जिस पर वह स्वयं चलते थे। मनुष्य के लोभ और हिंसा से जनित बड़ी-से-बड़ी दुर्घटनाओं के समय भी, जब सारे संसार की निंदा का रणभूमि में झड़ी पत्तियों और फूलों की भांति ढेर लग जाता था, आहिंसा के आदर्श में उनकी निष्ठा नहीं डिगी। उनका विश्वास था कि चाहे संसार अपना वध कर डाले, चाहे सारे संसार का लहू बह जाए, लेकिन फिर उनकी अहिंसा संसार की नई सभ्यता की वास्तविक नींव बनेगी। उनकी मान्यता थी कि जो जीवन के फेर में पड़ा रहता है, वह उसे खो देता है और जो जीवन का दान करता है वह उसे पा लेता है।
1924 में उनका पहला उपवास, जिससे मैं भी संबंधित थी, हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए था। उसे पूरे राष्ट्र की सहानुभूति प्राप्त थी। उनका अंतिम उपवास भी हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए था, लेकिन इसमें सारा राष्ट्र उनके साथ नहीं था। वह इतना बंट गया था, वह इतना कटुतापूर्ण हो गया था, वह घृणा और संदेह से इतना परिपूर्ण हो गया था, वह देश के विभिन्न धर्मों की शिक्षाओं से इतना विमुख हो गया था कि एक छोटा-सा भाग ही महात्माजी को समझ सका, उनके उपवास के अर्थों को जान सका। यह बिल्कुल स्पष्ट था कि इस उपवास से राष्ट्र की निष्ठा उनके प्रति बंटी हुई थी।
यह भी स्पष्ट था कि उनकी ही जाति के अतिरिक्ति और कोई जाति ऐसी नहीं थी, जिसने उनको इतना नापसंद किया और अपनी नाराजगी और असंतोष को इतने निंदनीय ढंग से व्यक्त किया। हिंदू जाति के लिए कितने दुख की बात हैकि सबसे बड़ा हिंदू जो धर्म के आर्दश और दर्शन का इतना पक्का और सच्चा था, एक हिंदू के ही हाथ से मारा जाए।
वास्तव में यह हिंदू धर्म के लिए एक समाधि लेख जैसे बात कि एक हिंदू के हाथ से, हिंदू अधिकारियों और हिंदू संसार के नाम पर उस हिंदू का बलिदान हो, जो उन सबसे महान था। लेकिन यह कोई खास बात नहीं। हम में से कई के लिए, जो उन्हें भूल नहीं सकते, वह एक व्यक्तिगत दु:ख है, जो हर दिन और हर बरस खटकेगा, क्योंकि तीस साल से भी ज्यादा जीवन एक-दूसरे का अविभाज्य अंग बन गया था। बास्त में हम में से बहुतों की निष्ठा मर चुकी है। उनकी मौत में हम में से कुछ के अंग भी काटकर अलग कर दिए हैं क्योंकि हमारे पुट्ठे, शिरा, ह्रदय और रक्त-सब उनके जीवन से जुड़े हुए थे।
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यदि हम हतोत्साहित हो जाए तो यह कृतध्य भगोड़ों जैसा काम होगा
लेकिन, जैसा कि मैं कहती हूं, यदि हम हतोत्साहित हो जाए तो यह कृतध्य भगोड़ों जैसा काम होगा। अगर हम सचमुच ही यह विश्वास कर लें कि वह नहीं रहे, अगर हम मान लें कि क्योंकि वह चले गए हैं, इसलिए सब कुछ खत्म हो गया है, तो हमारा प्यार और विश्वास किस काम आएगा? अगर हम यह समझ लें कि क्योंकि उनके शरीर हमारे लिए नहीं रहा है, इसलिए अब क्या बचा है तो उनके प्रति हमारी निष्ठा किस काम आएगी?
क्या हम उनके वारिस, उनके आत्मिक उत्तराधिकारी, उनके महान आदर्शों के रखवाले, उनके बड़े कार्य को चलाने वाले नहीं है? क्या हम उस काम को पूरा करने के लिए, उसे बढ़ाने के लिए और अपने संयुक्त्य प्रयासों से उनके अकेले से जो हो सकता है, उसे अधिक सफल बनाने वाले नहीं हैं, इसलिए मैं कहती हूं निजी शोक का समय बीत गया। छाती पीटने और हाय-हाय करने का वक्त बीत गया। यह समय है कि हम उठे और महात्मा गांधी का विरोध करने वालों से कहे-
हम चुनौती स्वीकार करते हैं। हम उनके जीवित प्रतीक हैं। हम उनके सिपाही हैं। हम संसार के आगे उनके ध्वजवाहक है। हमारा ध्वज सत्य है। हमारी ढाल अहिंसा है। हमारी तलवार आत्मा की वह तलवार है, जो बिना खून बहाए जीत जाती है। भारत की जनता उठे और अपने आंसू पोंछ, उठे और अपनी सिसकियां खत्म करे, उठे और आशा और उत्साह से भरे।
आइए, हम उनके व्यक्तित्व के ओज, उनके साहस के शौर्य और उनके चरित्र की महानता उनसे ग्रहण करें और ग्रहण क्यों करें? वे तो स्वयं हमें दे गए हैं। क्या हम अपने नेता के पद-चिन्हों पर नहीं चलेंगे? क्या हम अपने पिता के निर्देश को नहीं मानेंगे? क्या हम, उनके सिपाही, उनके युद्ध को सफल नहीं बनाएंगे? क्या हम संसार को महात्मा गांधी का परिपूर्ण संदेश नहीं देंगे? यद्यपि उनका स्वर अब नहीं निकलेगा, तथापि संसार को, केवल संसार और अपने समकालीनों को ही क्यों, बल्कि संसार की युग-युग तक आने वाली संतानों तक उनका संदेश पहुंचाने के लिए क्या हमारे पास लाखों-करोड़ों कंठ नहीं है? क्या उनका बलिदान व्यर्थ जाएगा? क्या उनका रक्त शोक के व्यर्थ कार्य के लिए ही बहाया जाएगा? क्या हम उस खून से संसार को बनाने के लिए उनके शांत सैनिकों के चिन्ह की तरह अपने माथे पर तिलक नहीं लगाएंगे?
इसी वक्त और इसी जगह पर, मैं सारे संसार के आगे, जो मेरी कंपित वाणी सुन रहा है, अपनी तरफ से और आपकी तरफ से, जिस प्रकार मैंने 30 साल से भी पहले शपथ की थी, अमर महात्मा की सेवा का व्रत ग्रहण करती हूं। मृत्यु क्या है? मेरे पिता ने, अपनी मृत्यु के ठीक पहले, जब वे मरणोन्मुख थे और मौत की छाया उन पर गिर रही थी, कहा था-
न जन्म होता है, न मृत्यु होती है। केवल आत्मा सत्य की उच्चतर अवस्थाओं को खोजती रहती है।
महात्मा गांधी, जो इस संसार में सत्य के लिए ही रहते थे, उस सत्य की उच्चतर अवस्था में परिवर्तित हो गए हैं, जिसे वह खोजते थे, यद्यपि वह कृत्य हत्यारे के हाथों हुआ। क्या हम उनका स्थान नहीं लेंगे? क्या हमारी सम्मिलित शक्ति इतनी नहीं होगी कि हम संसार को दिए उनके महान संदेश को फैला सकें तथा उनका अनुसरण कर सकें? यहां पर मैं उनके सबसे साधारण सैनिकों में से एक हूं। लेकिन मैं जानती हूं कि मेरे साथ जवाहरलाल नेहरू और उनके प्रिय शिष्य, उनके विश्वासपात्र अनुगामी और मित्र सरदार पटेल, महीह के ह्रदय में संत जांन की भांति राजेंद्र बाबू तथा वे सहयोगी भी हैं जो घड़ी भर की सूचना पर उनके चरणों में अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित करने केलिए भारत के कोने-कोने से दौड़ आए हैं।
क्या हम सब उनके संदेश को पूरा नहीं करेंगे?
भगवान! मेरे नेता, मेरे बापू की आत्मा शांति से विश्राम न करे, बल्कि उनकी अस्थियों में जीवन आए और चंदन की जली लकड़ियों की राख औ रुनकी अस्थियों के चूर्ण से वह जीवन और उत्प्रेरणा उत्पन्न हो कि उनकी मृत्यु के बाद सारा भारत स्वतंत्रता की यथार्थता में पुनर्जीवित हो उठे! मेरे बापू, सोओ मत! हमें मत सोने दो! हमें अपने व्रत से मत डिगने दो!
हमें अपने उत्तराधिकारियों को, अपनी संतानों को, अपने सेवकों को, अपने स्वप्नों के अभिरक्षकों को, भारत के भाग्य विधाताओं को- अपना प्रण पूरा करने की शक्ति दो! तुम, जिनका जीवन इतना शक्तिशाली था, अपनी मृत्यु से भी हमें ऐसा ही शक्तिशाली बनाओ, जो उदेश्य तुम्हें सबसे अधिक प्रिय था और उसके लिए महानतम शहादत ने नश्वता को पीछे छोड़ दिया है।
संदर्भ
गांधी दर्शन-सं. यशपाल जैन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में