गोवा मुक्ति युद्ध के नायक : सेनापति बापट
[गोवा मुक्ति दिवस पर पढ़िए इसके एक नायक सेनापति बापट की दिलचस्प और प्रेरणादायी कथा]
18 मई 1955 को जब सत्याग्रहियों का पहला जत्था गोवा पहुँचा तो पुर्तगालियों में चर्चा थी कि उसमें कोई सेनापति यानी की जनरल है। उन्हें लगा था कोई फौजी होगा तो हथियार वगैरह की पूरी तैयारी थी।
सत्याग्रही तो गाँधीवादी थे। अहिंसक और अनुशासित। लेकिन इस डर से गोवा के पुर्तगाल सैनिकों ने उनके साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार किया। उस टुकड़ी के अधिकारी मोनतेयर ने कड़क स्वरों में पूछा- कौन है सेनापति?
और जब सेनापति बापट निडर होकर सामने आए तो सब आश्चर्य में डूब गए। 75 साल के दरम्यानी क़द के सफ़ेद बालों वाले निर्भय सेनापति बापट खद्दर के कपड़ों में लिपटे मुस्कुरा रहे थे।
कौन थे सेनापति बापट?
पांडुरंग महादेव बापट पुणे के दकन कॉलेज से इतिहास और अर्थशास्त्र में ग्रेजुएट होने के बाद श्री मंगलदास नाथूभाई छात्रवृत्ति लेकर सावरकर से तीन साल पहले लंदन पहुँचे थे। 14 जनवरी 1906 में को एडिनबर्ग में ‘ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ पर एक भाषण दिया था। वहाँ वह श्यामजी कृष्ण वर्मा के संपर्क में आए।
ब्रिटिश शासन की तीखी आलोचना के कारण उनकी छात्रवृत्ति रोक दी गई।
वहाँ से बापट पेरिस चले गए जहाँ हेमचन्द्र दास से उनका संपर्क हुआ और वहाँ बम बनाना सीखकर 1908 में भारत लौटे तो कलकत्ता में बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय हो गए। मुज़फ्फ़रपुर बम कांड में 1913 में उनकी गिरफ़्तारी हुई लेकिन आरोप सिद्ध न होने से उन्हें जमानत मिल गई और वह पारनेर में परिवार के साथ रहने लगे।
क्रांतिकारी समाज सुधारक
मांडले जेल से रिहा होने के बाद तिलक उन्हें पुणे लेकर आए जहाँ उन्होंने पहले चित्रमयजगत और फिर केसरी में काम किया।
पारनेर में रहते हुए ही उन्होंने महार बस्तियों में जाकर पढ़ाने का काम शुरू किया और साफ़-सफ़ाई सिखाने के लिए बस्तियों में झाड़ू लगाना तथा नालियाँ साफ़ करना शुरू कर दिया था। यह काम उन्होंने पुणे में भी जारी रखा। तिलक के साथ काम करते हुए भी उन्होंने अपने स्वतंत्र विचार नहीं छोड़े तथा असहमतियाँ होने पर उनसे बहसें की।
लेनिन मिक्चर
रूस में क्रांति सम्पन्न होने पर उन्होंने केसरी के अपने साथियों को भेल बांटी और इसे लेनिन मिक्चर कहा। तिलक की मृत्यु के बाद तिलकपंथियों से अपनी असहमति के कारण वह मतभेदों के बावजूद महात्मा गांधी के साथ जुड़ गए।
मुलशी सत्याग्रह के बाद जनता ने दी ‘सेनापति’ की उपाधि
मुलशी सत्याग्रह के बाद पूरे महाराष्ट्र में उन्हें ‘सेनापति’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। यह बड़े बांधों के खिलाफ भारत में हुआ पहला आंदोलन था।
मुलशी नामक स्थान पर टाटा द्वारा बांध बनवाए जाने से किसानों की ज़मीन छीने जाने के विरोध में किए उनके इस सत्याग्रह के कारण उन्हें 12 जून, 1925 को 7 साल की जेल की सज़ा दी गई।
24 मई 1931 को वह रिहा हुए लेकिन उसके तुरंत बाद आंदोलन में सक्रिय हो गए और सात महीनों के अंदर उन्हें दूसरी बार सात साल के लिए जेल भेज दिया गया।
अनशन-रिहाई-गिरफ़्तारी
1932 में जब गांधी ने कम्यूनल अवॉर्ड के मुद्दे पर येरवडा जेल में अपना अनशन शुरू किया तो सेनापति बापट ने भी उनके समर्थन में आमरण अनशन शुरू कर दिया था।
1937 में कांग्रेसी सरकारें आने पर सेनापति बापट बेलगाम ज़िले की हिंडालगा जेल से तयशुदा अवधि से एक साल पहले 23 जुलाई, 1937 को रिहा हुए।
नेताजी के साथ
द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की फॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हो गए। स्वाभाविक था कि वह अंग्रेजों की निगाह में आते। सावरकर ने अपने संस्मरण में उन्हें अपना क़रीबी बताने की कोशिश की है।
यह सच है कि सावरकर की नजरबंदी के दौरान सेनापति उनसे मिलने रतनगिरी गए थे, लेकिन जब आज़ाद होने के बाद सावरकर हिन्दू महासभा में शामिल हुए तो बापट ने उनका साथ देने की जगह कांग्रेस और फॉरवर्ड ब्लॉक का साथ दिया और आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। जब सावरकर ब्रिटिश सेना में भर्तियाँ करवा रहे थे तो बापट नेताजी की फॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हो आज़ादी की मांग कर रहे थे।
राजद्रोह के आरोप में 6 अप्रैल, 1940 को उन्हें फिर एकसाल के लिए जेल भेज दिया गया। बाहर आकर वह कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन में ज़ोर-शोर से शामिल हुए।
राजनीति नहीं समाजसेवा
आज़ादी के बाद उन्होंने राजनीति की जगह समाजसेवा का क्षेत्र चुना। 75 साल की उम्र में उन्होंने गोवा मुक्ति संघर्ष के अहिंसक सत्याग्रह में हिस्सा लिया। और 28 नवंबर, 1967 को 87 साल की उम्र में अंतिम सांस ली।[1]
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री