क्या टैगोर की कविताओं पर ईसाइयत का असर था?
1913 में जब रवीन्द्रनाथ को नोबेल पुरस्कार मिला था तो नोबेल कमेटी की प्रशस्ति घोषणा में कहा गया: उन्होंने अपनी अंग्रेज़ी में व्यक्त अपने काव्यात्मक विचारों को पश्चिम के साहित्य का एक हिस्सा बना दिया है.
इतना ही नहीं, नोबेल कमेटी की प्रशस्ति में दावा किया गया कि इन कविताओं में निहित आध्यात्मिकता ईसाई धर्मभाव से प्रेरित है. भारत में ब्रिटिश शासन से फैले बौद्धिक व सांस्कृतिक उन्मेष को ऐसे साहित्य के उद्भव के लिये प्रेरणा कहा गया.
रवीन्द्रनाथ ने बाद में इन बकवासों का जवाब दिया था. अपनी प्रेरणा के स्रोत के रूप में भारत की परम्परा को रेखांकित करने के लिये उन्होंने कबीर के सौ दोहों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया था, ताकि दुनिया के पैमाने पर उनका परिचय दिया जा सके.
गीतांजलि की कविताओं पर कबीर का प्रभाव
गीतांजलि की कविताएँ लिखते समय रवीन्द्रनाथ किस हद तक कबीर की रचनाओं से परिचित थे या उनसे प्रभावित थे? दरअसल 1908 में क्षितिमोहन सेन (अमर्त्य सेन के नाना व बाद में विश्वभारती के उपाचार्य) शांतिनिकेतन में अध्यापक के रूप में आये थे. वह काशी में पले-बढ़े थे व काफ़ी समय से कबीर विमर्श में तल्लीन थे.
शांतिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ के साथ बाउल गीति व कबीर के बारे में उनकी बातचीत होती थी. इसकी शुरुआत इस तरह हुई कि उन्हीं दिनों रवीन्द्रनाथ गीतांजलि की कविताएँ लिख रहे थे और इन कविताओं को देखकर क्षितिमोहन ने उनसे कहा कि कबीर की रचनाओं में भी यही भाव दिखता है.
रवीन्द्रनाथ की प्रेरणा से गीतांजलि के प्रकाशन के कुछ महीनों के बाद उन्होंने बांगला में कबीर की वाणियों का अनुवाद प्रकाशित किया. नोबेल पुरस्कार से सम्बन्धित पूर्वोक्त प्रकरण के बाद रवीन्द्रनाथ को लगा कि पश्चिम के जगत को कबीर व उनकी परम्परा के बारे में जानकारी देना आवश्यक है. इसी पृष्ठभूमि में कबीर के सौ दोहों का अंग्रेज़ी में अनुवाद प्रकाशित हुआ.
इस प्रसंग में क्षितिमोहन सेन लिखते हैं: „गीतांजलि में मध्ययुग की वाणियों के कुछ संकेत देखकर मैंने ही उन्हें कबीर की वाणी के बारे में कहा था. और तभी मैं कवि के पास पकड़ गया. यह 1910 ईस्वी के सितम्बर में हुआ था. उसके कुछ समय बाद कबीर का मेरा प्रथम खंड प्रकाशित हुआ. कबीर की वाणी देखकर उन्होंने गीतांजलि नहीं लिखी थी. गीतांजलि देखकर मैंने उन्हें कबीर की वाणी दिखाई.“
गीतांजलि की कविताएँ 1908-09 से विभिन्न पत्रिकाओं में छप रही थी. 1910 में वह पहली बार पुस्तकाकार में प्रकाशित हुई. 1911 के आरम्भ में क्षितिमोहन सेन की कबीर वाणी का पहला खंड प्रकाशित हुआ. अंग्रेज़ी गीतांजलि का प्रकाशन 1912 में हुआ, जो बांगला गीतांजलि से काफ़ी हद तक अलग है.
इस सन्दर्भ में 9 खंडों में रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रशान्त पाल का कहना है – “कबीर के जीवन व उनकी रचनाओं से वह कुछ हद तक परिचित थे, इसके सबूत दुर्लभ नहीं हैं. क्षितिमोहन के अनुवाद से पहले 1880 ईस्वी के बाद से कई पुस्तकें आई थीं, जिनसे रवीन्द्रनाथ का परिचय असम्भव नहीं था.’
शायद कहा जा सकता है कि रवीन्द्रनाथ के लिये कबीर पूरी तरह से अपरिचित नहीं थे, लेकिन उनकी रचनाओं के बारे में उन्हें क्षितिमोहन के अनुवाद से ही ठीक से जानकारी मिली. जहाँ तक गीतांजलि पर प्रभाव का सवाल है तो हमें भूलना नहीं चाहिए कि उन पर ऐसी धाराओं के अन्य प्रतिनिधियों का भी गहरा प्रभाव था.
उनके पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ हाफ़िज़ व सूफ़ी संतों के भक्त थे और किशोरावस्था से ही रवीन्द्रनाथ पर उनका प्रभाव पड़ा था. बाद के वर्षों में ईरान की यात्रा के दौरान एक भाषण में उन्होंने कहा था:
मेरे पिता हाफ़िज़ के भक्त थे. उनसे मैं हाफ़िज़ की कविताएँ व उनका अनुवाद सुनता रहा. इस तरह फ़ारस का हृदय मेरे हृदय में आ बसा. इसके अलावा बांगला की वैष्णव पदावली के भक्तिकाव्य व बाउल गीति से भी वह अत्यन्त प्रभावित थे. इनमें भी निर्गुण प्रेम का सन्देश स्पष्ट है.
कबीर का प्रभाव बार-बार दिखता है
गीतांजलि पर कबीर का प्रत्यक्ष प्रभाव हो या न हो, इसके बाद की अवधि में रवीन्द्रनाथ के चिन्तन में कबीर की उपस्थिति बार-बार उभरकर सामने आती है.
प्रशान्त पाल की जीवनी से हमें पता चलता है कि भारतीय रहस्यवाद पर एज़रा पाउंड के साथ बातचीत के दौरान उन्होंने कबीर के बारे में बताया था. रवीन्द्रनाथ के वर्णन से एज़रा पाउंड इतने मोहित हुए कि हिन्दी या बांगला बिल्कुल न जानने के बावजूद कालीमोहन घोष की मदद से उन्होंने कबीर के दस दोहों का हिन्दी में अनुवाद किया.
1913 के मार्डर्न रिव्यु में certain Poems of Kabir/ Translated by Kali Mohan Ghos and Ezra Pound/ From the edition of Mr. kshiti Mohan sen शीर्षक से इन्हें प्रकाशित किया गया.
बहरहाल, ईसा से प्रेरित होने की पश्चिमी धारणा उनका पीछा नहीं छोड़ रही थी. 1912 में अमेरिका यात्रा के दौरान भी इस सिलसिले में उनसे अनेक सवाल किये गये. उन्होंने ठाना कि पश्चिम के जगत में कबीर की रचनाओं का परिचय दिया जाय. इस सिलसिले में उनकी मदद के लिये सामने आईं प्राच्यविद ईवलीन अंडरहिल.
अनुवाद पर विवाद
अंग्रेज़ी में कबीर के अनुवाद के साथ एक विवाद भी जुड़ा हुआ है. रवीन्द्रनाथ क्षितिमोहन के अनुवाद के आधार पर कबीर के दोहों के अनुवाद में जुटे, लेकिन काम कोई ख़ास आगे नहीं बढ़ा. इसी बीच उनके स्नेहास्पद अजित
कुमार चक्रवर्ती उनके निकट सहयोगी पियर्सन के साथ उड़ीसा के चाँदपुर में छुट्टी बिताने गये हुए थे. पियर्सन के सहयोग से अजित कुमार ने क्षितिमोहन के संग्रह से 114 दोहों का अनुवाद किया. रवीन्द्रनाथ व क्षितिमोहन इस काम में उनका उत्साह बढ़ा रहे थे. क्षितिमोहन ने रवीन्द्रनाथ को सुझाव दिया कि वह इन अनुवादों को मांझकर प्रकाशन के योग्य बनावें और इस काम में ईवलीन अंडरहिल की मदद ली जाय. अंडरहिल की पहल पर मैकमिलन कम्पनी इसे छापने के लिये तैयार हो गई. उन्होंने इसकी भूमिका भी लिखी.
रवीन्द्रनाथ ने इस सन्दर्भ में अजित कुमार के नाम एक पत्र में लिखा था: “तुम्हारे अनुवाद के संशोधन में रुपये में पंद्रह आना मेरा ही अनुवाद हो चुका है. फिर भी वह पैबन्द जैसा लगता है. मैं अकेले अनुवाद करता तो शायद बेहतर होता.”
माना जा रहा था कि यह अनुवाद दोनों के नाम से प्रकाशित होगा. अजित कुमार की शंकाओं का निवारण करते हुए रवीन्द्रनाथ ने एक पत्र में लिखा था कबीर ग्रन्थ के बारे में तुमने थोड़ा गलत सोचा है. “ईवलीन अंडरहिल की ऐसी कोई इच्छा नहीं है कि इस ग्रन्थ से तुम्हारा नाम हटाया जाय. दूसरी बात यह है कि मैं नहीं चाहता हूँ कि आर्थिक दृष्टि से तुम्हें और क्षितिमोहन को वंचित किया जाय.”
लेकिन जब किताब छपकर आई तो उसमें सिर्फ़ रवीन्द्रनाथ का नाम था. अपनी भूमिका में भी ईवलीन अंडरहिल ने अजित कुमार व क्षितिमोहन के प्रति सिर्फ़ आभार व्यक्त किया था.
रवीन्द्रनाथ ने कहा था कि उन्हें अन्त तक नहीं पता था कि अजित कुमार को नाम नहीं रहेगा. उन्होंने अनुवादक के रूप में दोनों का नाम भेजा था, लेकिन प्रकाशक मैकमिलन ने अजित कुमार का नाम काट दिया. रवीन्द्रनाथ ने कहा था कि यह पश्चिम की दुकानदारी है. वे साहित्य के दरबार में किसी को घुसने नहीं देते हैं.
इसमें कोई सन्देह नहीं कि अजित कुमार के कच्चे अनुवाद को साहित्य का रूप देना रवीन्द्रनाथ का काम था. साथ ही, उनकी ख्याति के बिना कबीर के अनुवाद का प्रकाशन सम्भव न होता. लेकिन अजित कुमार को दूध से मक्खी की तरह फेंक देना सरासर गलत था. इसके लिये रवीन्द्रनाथ की आलोचना भी हुई. अजित कुमार के अलावा क्षितिमोहन भी इस बात से नाराज़ थे. क्या रवीन्द्रनाथ इसके लिये ज़िम्मेदार थे? कहना मुश्किल है, लेकिन वह सन्देह के घेरे में तो रह ही जाते हैं. अनुवादक के रूप में रवीन्द्रनाथ का नाम आवश्यक भले ही रहा हो, लेकिन अजित कुमार का नाम जोड़ा ज़रूर जा सकता था.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किया कबीर को प्रतिष्ठित
बहरहाल, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कबीर को प्रतिष्ठित करना अजित कुमार की नहीं, बल्कि रवीन्द्र परियोजना थी.
बाद के वर्षों में उन्होंने कबीर पर कविताएँ भी लिखी. इस पूरी बहस से रचनाकर्म में परम्पराओं की भूमिका का सवाल भी प्रासंगिक हो उठता है. हमें अपनी परम्पराओं में जो रचनाकार मिलते हैं, उनके प्रभाव में रचनायें नहीं होतीं, बल्कि वे प्रेरणा के स्रोत होते हैं. और ऐसे स्रोत एक नहीं, अनेक होते हैं. उनका आकलन भी अदालती सबूत के स्तर पर नहीं, सौन्दर्यशास्त्रीय मापदंडों के आधार पर किया जा सकता है. रवीन्द्रनाथ की रचनाओं में भी ऐसे प्रभाव से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है इस विरासत की प्रेरणा से उत्पन्न उनकी अपनी रचनाशीलता का उन्मेष. और यह उन्मेष रवीन्द्रनाथ के समय, उनकी अपनी ज़मीन पर हुआ है. उनकी प्रासंगिकता रवीन्द्रनाथ के युग में, आधुनिक युग में, इस युग की आवश्यकताओं और मान्यताओं में ढूँढी जानी है.
कबीर के लेंस से रवीन्द्रनाथ को देखना उतना ही निरर्थक होगा, जितना कि रवीन्द्रनाथ के लेंस से कबीर को देखना.
उज्ज्वल भट्टाचार्य जर्मनी में रहते हैं जहाँ उन्होंने कई दशकों तक पत्रकारिता की। जर्मन और अंग्रेज़ी से ढेरों कविताओं के अनुवाद। हाल ही में उनकी लिखी रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक जीवनी प्रकाशित हुई है।