
सफ़दर हाशमी : न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
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1 जनवरी 1989, दिल्ली के पास साहिबाबाद।
सफ़दर जन नाट्य मंच की अपनी टीम के साथ थे। ‘हल्ला बोल’ होना था नुक्कड़ पर। ताम-झाम स्टेज रौशनी से आगे वह नाटक को जनता तक ले जाने के लिए बज़िद थे। उनका नाटक ग़रीब-वंचित-मज़दूरों के लिए था और उन्हीं के बीच में होता था, उन्हीं के सहयोग से।
नए साल में वह उसी जोश-ओ-जुनून के साथ गए थे। लेकिन लौटे तो खून में तर-ब-तर। सत्ताओं को जनता की आवाज़ पसंद नहीं आती। गुंडों ने हमला कर दिया था और सफ़दर ने सबसे आगे रहकर झेले वार। एक दिन जूझने के बाद मौत के आगे हार गए सफ़दर। अगले दिन उनकी हमसफ़र मलयश्री हाशमी उसी टीम के साथ दुबारा गईं उसी जगह और पूरा किया वह अधूरा नाटक। एक रौशन ज़िंदगी चली गई थी, अंधेरी राहों पर बेशुमार लाइटहाउस छोड़ गई थी।
एक आम इंसान का खास सफ़र
1954 में सफ़दर का जन्म हुआ था। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ते हुए IPTA से जुड़े और वामपंथी विचारधारा से परिचय हुआ। फिर नाटकों का सिलसिला शुरू हुआ। 1973 में IPTA से अलग होकर जननाट्य मंच का गठन किया। यह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा थियेटर समूह था जिसके कर्ताधर्ता सफ़दर ही थे।
इमरजेंसी लगी और नाटक करना मुश्किल हुआ तो गढ़वाल, श्रीनगर और दिल्ली में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाया लेकिन मन तो नाटकों में ही था तो इमरजेंसी हटते ही नौकरी छोड़ी और पूरी तरह से नाटकों में रम गए।
जन नाट्य मंच (जनम)
यह सिर्फ़ नया नाम ही नहीं था। इसके साथ जन्म हुआ था एक अभियान का जिसमें नाटकों को मंचों से दूर जनता के बीच ले जाना था। सफ़दर और उनके साथियों ने इसके लिए नुक्कड़ नाटक का फॉर्मैट चुना। जनता के बीच जाकर जनता के मुद्दों पर नाटक। सत्ता से सवाल। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़।
ज़ाहिर था कि उनकी आवाज़ ऐसे लोगों को पसंद नहीं आती जिनके हितों पर चोट पहुँचती थी। उन पर कई बार हमले हुए लेकिन सफ़दर निर्भय अपना काम करते रहे और अंततः शहीद हो गए।
हम लड़ेंगे साथी
लेकिन इंसानों के मरने से आवाज़ें कहाँ दबा करती हैं!
सफ़दर के चाहने वाले आज भी लड़ रहे हैं सत्ता के खिलाफ़, भेदभाव के खिलाफ़। उनको याद करना इस लड़ाई को ज़िन्दा रखने की मुहिम का ही हिस्सा है।
आज उनके शहादत दिवस पर हम उन्हें सलाम पेश करते हैं और अन्याय के खिलाफ़ लगातार संघर्षरत रहने का संकल्प लेते हैं।
बकौल फ़ैज़
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
