अजीमुल्लाह खान: 1857 के क्रांतिदूत और नाना साहब के वकील
अज़ीमुल्लाह खान, नाना साहब के बचपन के साथी, उनके सचिव और बाद में दीवान बने बाद में जब नाना साहब ने अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोला तो यही अज़ीमुल्लाह खान उनके क्रांतिदूत भी बने।
अज़ीमुल्लाह खान बने क्रांतिदूत
कानपुर के दक्षिण में स्थित बिठूर कस्बा 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रमुख केंद्र बना था। यहाँ पर मराठा राज के आखिरी पेशवा बाजी राव द्वितीय को अंग्रेजों ने निर्वासित कर रखा था। बाजी राव 1818 में अंग्रेजों से हार गए थे जिसके चलते देश में मराठा साम्राज्य का अंत हो गया था। इस हार में मराठों के बीच की आपसी फुट ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई जिसका फायदा ईस्ट इंडिया कंपनी को हुआ।
1851 में पेशवा बाजी राव द्वितीय की मृत्यु हो गई जिसके बाद उनके दत्तक पुत्र (गोद लिए हुए बेटे) नाना साहब को बिठूर की जागीर सौंपी जानी थी। 1818 की हार के बाद यह तय हुआ था कि निर्वासन के बदले अंग्रेज उन्हें बिठूर की जागीर और अस्सी हजार पाउन्ड की पेंशन देंगे।
लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड डलहौज़ी ने भांप लिया था कि कमजोर राजाओं का राज्य आसानी से हड़पा जा सकता है। इसके लिए एक नीति बनाई गई- Doctrine of Lapse, जिसके अनुसार यदि किसी राज्य के पास वारिस नहीं होता या वहाँ का शासक राज्य करने के अयोग्य या अक्षम है तो वह राज्य कंपनी के अधीन चला जाएगा। अयोग्यता की परिभाषा भी अंग्रेज खुद तय करते थे।
अतः चूंकि नाना साहब बाजी राव के खुद के पुत्र नहीं थे इसीलिए उन्हें पेंशन देने या बिठूर पर उनका अस्तित्व स्वीकार करने से मना कर दिया गया।
नाना साहब इस अपमान से बहुत तिलमिलाए- वे अकेले नहीं थे। अंग्रेजों के ज़ुल्म-ओ-सितम और भारतीय शासकों को अपमानित कर उनका राज्य हड़प कर लेने की इस लगातार शृंखला ने कई राजाओं, जागीरदारों और आम जनता को भी अंग्रेजों के खिलाफ कर दिया था। किसानों पर अनुचित लगान, बुनकरों के हाथ काट देना और देश के आर्थिक शोषण ने अंग्रेजों के विरुद्ध एक बड़े विद्रोह की नीव तैयार कर दी थी। लेकिन उसमें अभी वक्त था।
नाना साहब ने पहले ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया व लंदन की सरकार से कंपनी के व्यवहार की शिकायत करने के लिए अपना एक दूत भेजा जिसने नाना साहब की भरसक वकालत की। वे थे नाना साहब के बचपन के साथी, उनके सचिव और बाद में दीवान बने अज़ीमुल्लाह खान। बाद में जब नाना साहब ने अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोला तो यही अज़ीमुल्लाह खान उनके क्रांतिदूत भी बने।
जन्म, तालीम और नाना साहब के यहां नौकरी
अज़ीमुल्लाह खान का जन्म 1830 के आस-पास माना जाता है। कहा जाता है कि उनके बचपन में 1837-38 के दौरान आए किसी अकाल से ईसाई मिशनरी उन्हें और उनकी माँ को बचा लाए थे। कानपुर के ईसाई प्रतिष्ठान में उन्हें शरण दी गई जहां अज़ीम ने अंग्रेजी और फ्रेंच सीखी।
उस जमाने में किसी भी भारतीय के लिए इन दोनों भाषाओं का ज्ञान दुर्लभ था और यह विद्या उनके जीवन में बहुत काम आई। उस दौरान वे किसी पादरी के लिए खिदमतगार का काम करते थे जिसके लिए उन्हें 3 रुपये मासिक दिए जाते थे।
दस साल बाद अज़ीम को ब्रिगेडीयर जॉन स्कॉट के यहाँ मुंशी की नौकरी मिल गई। वहाँ उन्होंने पियानो बजाना और प्रख्यात जर्मन संगीतकार मोत्जार्ट को सुनना शुरू किया और प्रख्यात अंग्रेजी नाटककार शेक्सपियर को उर्दू में अनुवाद करके सुनाना भी सीखा।
उनकी सीखने इस ललक और ब्रिटिश समाज के तौर-तरीकों से परिचय उनके तब काम आया जब नाना साहब पेशवा बिठूर में पेंशन और जागीर के लिए लड़ रहे थे।
नाना साहब की नजर में अज़ीम चढ़ गए और फौरन उन्हें सेक्रेटरी बना दिया गया। लेकिन अज़ीमुल्लाह खान रोजमर्रा के कामों से कहीं अधिक प्रतिभावान थे। इसीलिए नाना साहब ने उन्हें लंदन भेज दिया ताकि वे उनकी पैरवी कर सकें। उनके साथ रोहेलखंड के एक और जागीरदार मोहम्मद अली खान भी इस प्रतिनिधि मण्डल का हिस्सा बने।
ब्रिटेन में नाना साहब का पक्ष रखने के लिए अज़ीमुल्लाह खान ने वहाँ की राजनीति और समाज के कुलीन वर्ग के साथ संपर्क स्थापित कर शुरू किए। इसके लिए उन्होंने यह भी प्रचारित किया था कि वे खुद एक ब राज परिवार के सदस्य हैं।
ब्रिटेन में भारतीय राजाओं को लेकर कई तरह के मिथक प्रचलित थे और चूंकि अज़ीम लंदन के महल तक अपनी बात पहुंचना चाहते थे, इसीलिए संपर्क बढ़ाने के लिए वे एक चतुर राजनीतिज्ञ का परिचय दे रहे थे। लंदन में उनकी सबसे घनिष्ठ मित्रता वहाँ के एक संभ्रांत परिवार की लेडी लूसी डफ से हुई। लेडी डफ के मार्फत वे मशहूर दर्शनशास्त्री और राजनेता जॉन स्टुअर्ट मिल से मिले, और संभवतः उनकी मुलाकात प्रसिद्ध उपन्यासकारों चार्ल्स डिकिन्स एवं विलियम थैकरे से भी हुई।
हालांकि अपने प्रयासों के बावजूद अज़ीमुल्लाह जिस काम के लिए आए थे उसमें असफल ही रहे। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के खुद के अधिकारियों के ब्रिटेन की सत्ता और कुलीन समाज में बहुत अच्छे संबंध थे। दूसरा कारण यह भी था कि संभवतः वहाँ के सर्वोच्च सदन प्रिवी काउन्सिल, जिसमें प्रधानमंत्री व विपक्ष के नेता एवं महारानी खुद शामिल थीं, को कंपनी ने रिश्वत देकर खरीद लिया था।
अपनी शख्सियत से जादू बिखेरने वाले अज़ीमुल्लाह खान
कहा जाता है कि अज़ीमुल्लाह ब्रिटेन में अपनी शख्सियत का जादू बिखेरने के बावजूद खुश नहीं थे चूंकि नाना साहब की सुनवाई नहीं हुई। कई लोगों का मानना है कि यहीं से लौटते समय उनके मन में भारत से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने का विचार बना।
उस समय के तुर्की के साम्राज्य की राजधानी कुस्तुंतुनिया (Constantinople, या आज का इस्तांबुल शहर) में रुकने के दौरान अज़ीम को पता चला कि ब्रिटेन, तुर्की और रूस के बीच क्रीमिया का युद्ध चल रहा है। उस समय के कई अंग्रेजी अफसर और लेखक जो अज़ीमुल्लाह से बेहद चिढ़े हुए थे, ने बाद में कई जगह यह दर्ज किया है कि उनकी रूस के जासूसों से तुर्की में मुलाकात हुई और उन्होने अंग्रेज सेन की कमज़ोरियाँ पता लगाने की कोशिश की।
1856 के आस-पास अजीमुल्लाह खान भारत लौट आए और नाना साहब ने उन्हें अपना दीवान बना दिया। 29 मार्च 1857 के दिन बंगाल प्रेसिडेन्सी के सिपाही मंगल पांडे ने अंग्रेजों की नीतियों से तंग आकर् और कारतूसों में गाय और सूअर की चमड़ी का संतोषजनक खंडन न किए जाने से नाराज होकर विद्रोह कर दिया।
अगले महीनों में यह विद्रोह मेरठ, दिल्ली, आगरा, लखनऊ, कानपुर, ग्वालियर, झांसी, पश्चिमी बिहार और सुदूर उत्तर पश्चिम में अफगानिस्तान की सीमा से लगे पठानों के इलाके में भी फैल गया। जगह-जगह पहले सिपाहियों ने वर्षों से उनके साथ अंग्रेज अफसरों द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ झण्डा उठाया, और कालांतर में आम जनता ने इस विद्रोह को एक विशाल स्वरूप दिया। शुरुआती ब्रिटिश इतिहासकारों में इस विद्रोह को मात्र सिपाहियों में फैली गड़बड़ी की तरह दिखाने की कोशिश की, लेकिन एरिक स्टोक्स जैसे वहीं के बाद के शोधकर्ताओं ने यह स्पष्ट किया है कि यह ऐसे लोगों का विद्रोह था जो कंपनी राज में सबसे ज्यादा शोषित थे।
1857 के क्रांति में अज़ीमुल्लाह खान
नाना साहब की जागीर बिठूर के पास अंग्रेजों की महत्वपूर्ण छावनी कानपुर थी। कानपुर ऐतिहासिक ग्रांड ट्रंक रोड पर पड़ता था जो सड़क दिल्ली और कलकत्ता को जोड़ती थी। यहाँ अंग्रेज जनरल ह्यू वीलर को लगता था कि विद्रोह नहीं होगा। लेकिन मई 1857 में पास के फतेहगढ़ से विद्रोह की खबर आने के बाद अंग्रेजों में डर बढ़ गया और वे किलेबंदी करने लगे। सिपाहियों में यह खबर फैल गई कि अंग्रेज अफसर उनके हथियार छीन लेंगे और उन्हें शायद मार भी दें।
31 मई की रात एक नशे में धुत्त अंग्रेज अफसर ने किलेबंदी के बाहर मौजूद एक हिन्दुस्तानी चौकीदार पर गोली चलाई। उसे पकड़ कर जेल में डाल दिया गया लेकिन अगले ही दिन एक नाममात्र की अदालती कार्यवाही करके इल्जाम से बरी कर दिया गया। इससे बहुत रोष पनपा और 5 जून को कानपुर में विद्रोह शुरू हुआ।
जल्द ही नाना साहब बिठूर से अपनी सेना लेकर कानपुर आ गए। वे अंग्रेजों की दगाबाजी से बहुत खफा थे। अतः उन्होंने उन्हीं की भाषा में कंपनी को सबक सिखाने की ठानी। पहले यह वायदा किया कि वे इस विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देंगे, लेकिन कानपुर के खजाने पर कब्जा कर विद्रोहियों के साथ मिल जाने का ऐलान कर दिया।
नाना साहब के दीवान होने के नाते इन सब रणनीतियों में अज़ीमुल्लाह खान की भागीदारी रही। नाना साहब शुरुआत में फौज को लेकर दिल्ली जाना चाहते थे जैसा मेरठ के सिपाहियों ने किया, ताकि बहादुर शाह ज़फ़र से मुलाकात कर सकें। ऐसा कहा जाता है कि अज़ीमुल्लाह खान ने ही उन्हें यह विचार दिया कि कानपुर में ही रहकर मराठा शक्ति को पुनर्जीवित किया जाए। अतः वे कानपुर में ही रहे।
अपने दम पर संभाला मोर्चा
क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को घेर लिया और आत्मसमर्पण की मांग करने लगे। अज़ीम ने मोर्चा संभालते हुए अपने अंग्रेजी के ज्ञान के दम पर इसके लिए बातचीत शुरू की। कालांतर में अंग्रेज काफी सिपाही खोने व किले में रसद की कमी पड़ने के चलते समपर्पण को राजी हो गए। बदले में नाना साहब ने सभी बचे सिपाहियों और औरतों एवं बच्चों को इलाहाबाद गंगा में नाव के रास्ते ले जाने की पेशकश की।
तय हुआ था कि सत्ती चौरा घाट से अंग्रेज दल नावों के रास्ते जाएगा। लेकिन घाट पर कुछ ऐसा हुआ कि भारतीय और अंग्रेज पक्ष में फायरिंग शुरू हो गई और कई अंग्रेज मारे गए। अंग्रेजों का हमेशा यह मानना रहा कि नाना साहब ने जानबूझकर झूठ बोला था और साजिश के तहत अंग्रेजों की हत्या कर दी।
लेकिन कई इतिहासकारों का मत है कि सत्ती चौरा घाट पर हुई घटना क्रांतिकारियों और अंग्रेज दल के बीच नाव पर चढ़ते समय हुई गलतफहमी का नतीजा थी जिसकी वजह से अचानक एक तरफ से गोली चली और फिर इस मारकाट को रोकना असंभव हो गया।
क्रांति को खत्म करने के लिए अंग्रेजों ने जो ज़ुल्म-ओ-सितम मासूम जनता पर किए उसकी मिसालें कम ही मिलती हैं। नाना साहब की फौज बहादुरी से लड़ी लेकिन हार गई। ऐसा सभी जगह हुआ चूंकि एक तो कई राजाओं और नवाबों ने इस युद्ध में कंपनी का साथ दिया।
दूसरा, भारतीय पक्ष का नेतृत्व बिखरा हुआ था और एक कमांड सेंटर न होने से वे अंग्रेजों की संगठित रणनीति से पार नहीं पा सके। तत्पश्चात अंग्रेजों ने सबक सिखाने के लिए मासूम जनता को भी नहीं छोड़ा। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अंग्रेजों या उनके पक्ष में लड़ने वाले भारतीयों से कहीं ज्यादा जानें जनता और क्रांतिकारियों की गईं थीं।
गाँव के गाँव जला दिए गए, पकड़े गए लोगों को जमीन चाटने पर मजबूर किया गया और फिर तोप के मूँह में रखकर उड़ा दिया गया। अंग्रेजों का काम सिर्फ विद्रोह खत्म करना न होकर भारतीयों को मनोवैज्ञानिक रूप से सीख देना था, और उसके लिए इस तरह की हैवानियत जरूरी थी।
ये वही अंग्रेज थे जो वैसे कानून, सभ्यता और संस्कृति की दुहाई दिया करते थे। यह बात अलग है कि फिर भी भारतीयों के अंदर राष्ट्रवादी चेतना बढ़ती ही गई।
हार के बाद नाना साहब और अज़ीमुल्लाह नेपाल की ओर निकाल गए जहां संभवतः1859 में बीमारी से उनकी मृत्यु हो गई। कानपुर में हुए नरसंहार के कारण अज़ीमुल्लाह खान अंग्रेजों की नजर में विलन बन चुके थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि अज़ीमुल्लाह ने ही हत्याकांड के लिए नाना साहब को उकसाया।
एक तथ्य यह भी है कि अंग्रेज अज़ीमुल्लाह द्वारा अंग्रेजी और फ्रेंच के ज्ञान के जरिए अपने ही क्षेत्र में चुनौती देने के कौशल से बहुत खफा थे। कई उपन्यासों एवं संस्मरणों में अज़ीमुल्लाह की छवि को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया। लेकिन इससे भी उनकी वैचारिक बुद्धिमत्ता का अंदाज हो जाता है।
संदर्भ- स्त्रोत
1909 में छपी अपनी किताब 1857 का स्वातंत्र्य समर में विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा:
स्वतंत्रता की उस लड़ाई को वैचारिक रूप देने में जिन प्रखर बुद्धिजीवियों व विद्वानों का योगदान है, उनमें अजीमुल्लाह खान को महत्वपूर्ण स्थान देना होगा।
(The Indian War of Independence of 1857, अंग्रेजी में, पृष्ठ 28)
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।