जब चौरीचौरा के बाद गांधीजी ने रद्द किया असहयोग आंदोलन
जलियावाला बाग़ हत्याकांड ने देशभर में लोगों के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष पैदा कर दिया था। 08 मार्च 1919 को रॉलेट एक्ट को काला कानून पास किया गया जिसके तहत ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर बिना मुकदमा चलाए जेल में बंद कर सकती थी। महात्मा गांधी ने लोगो के इस गुस्से को भांपते हुए 1 अगस्त 1920 से पूरे भारत में असहयोग आंदोलन शुरू किया। महात्मा गांधी के आह्वान पर बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया, वकीलों ने कोर्ट-कचहरी जाना छोड़ दिया, मजदूरों ने फैक्ट्रियों में काम करना बंद कर दिया। लोगों ने विदेशी सामानों बहिष्कार कर दिया ।
जब गांधीजी ने सविनय अवज्ञा शुरू करने का फैसला लिया
29 जनवरी 1922 को बारदोली में हुई एक बड़ी सभा में सविनय अवज्ञा शुरू करने का फैसला लिया गया। सूरत में 31 जनवरी को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में बारदोली के लोगों को आंदोलन शुरू करने के लिए अधिकृत किया गया। बारदोली के लोगों द्वारा सविनय अवज्ञा शुरु करने के फैसले की जानकारी गांधीजी ने वायसराय को पत्र लिखकर दी। साथ ही उन्होंने यह भी लिखा की मौजूदा स्थितियों में देश को अभिव्यक्ति की आजादी, संगठन बनाने-चलाने की आजादी और मुक्त प्रेस समेत अपनी मांगों की पूर्ति के लिए किसी- न- किसी अहिंसक आंदोलन की जरूरत थी। उन्होंने वायसराय से सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने का मांग की।
सरकार ने गांधीजी की मांगें नहीं मानीं। वायसराय ने भारतीय लोगों द्वारा दिखाई जा रही गैर-कानूनी गतिविधियों की स्थिति में दमनकारी नीतियों को जायज ठहराया। गांधी बारदोली में अभियान का नेतृत्व करने पहुंचे थे। उन्होंने वही से देश भर में चल रहे दमनकारी कदमों की जानकारी दी। लोगों को उम्मीद थी कि अब गांधीजी देशभर में आंदोलन शुरू करने का आह्वान करेंगे, तभी 8 फरवरी के अखबारों में गोरखपुर जिले के चौरी चौरा में 5 फरवरी को हुई हिंसा की खबरें दी। जब उनकी गोलियां समाप्त हो गई तो वे भागकर थाने में छुप गए। गुस्से से भरी भीड़ ने थाने को घेरकर आग लगा दी और 21 पुलिसवाले जिंदा जल गए। यह सुनकर गांधीजी सदमें में आ गए। उन्होंने 11 फरवरी को कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के सामने अपनी चिंता और शंका रखते हुए आंदोलन को स्थगित करने की अपनी योजना रखी। गरमा-गरम बहस हुई।
अनेक सदस्य गांधी से असहमत थे, पर आखिरकार गांधीजी चली और सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया। 12 फरवरी से गांधीजी ने पांच दिन का उपवास आत्मशुद्धि के लिए रखा। उनका कहना था कि देश के लोग अहिंसक आंदोलन के लिए तैयार नहीं हैं। उनका यह गलत फैसला था और उसका प्रायश्चित जरूरी है; पर उन्होंने दूसरों को उपवास नहीं करने दिया। यंग इंडिया के 16 फरवरी के अंक में उन्होंने अपनी भावनाएं इस तरह व्यक्त की-
मेरे ऊपर ईश्वर का बहुत आर्शीवाद रहा है। उसने मुझे तीसरी बार चेताया है कि भारत में अभी भी वह सच्चा और अहिंसक वातावरण नहीं बना है, जिस के सहारे और सिर्फ उसी के सहारे कोई आम आंदोलन, जिसे नागरिक आंदोलन कहा जा सकता है, चलाया जा सकता है। ऐसे आंदोलन को स्वैच्छिक, स्नेहयुक्त, विनम्रता पूर्ण, जानकारी वाला माना जाना चाहिए, आपराधिक और घृणापूर्ण नहीं।
कांग्रेस के अधिकांश नेताओं ने गांधीजी का विरोध किया
कांग्रेस के अधिकांश नेता जेलों में बंद थे और उन्हें आंदोलन स्थगित किए जाने की खबर मिली तो वह हैरान रह गए। कई एकदम सीझ गए। मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास, लाला लाजपत राय और कई अन्य नेताओं ने फैसले का विरोध करते हुए पत्र लिखे। मोतीलाल नेहरू ने लिखा-
अगर केप कैमरून के पास कोई गांव अहिंसा का पालन नहीं पाया तो हिमालय की तलहटी में बसे शहर को उसकी सजा क्यों? चौरी चौरा और गोरखपुर को छोड़िए, पर सविनय अवज्ञा आंदोलन जारी रखिए।
आंदोलन स्थगित करने के फैसले से सरकार का हौसला बढ़ गया। ब्रिटिश गृहमंत्री मांटेग्यू ने बयान दिया- अगर हमारे साम्राज्य के वजूद को चुनौती दी गई तो भारत के प्रति ब्रिटश सरकार की जिम्मेदारियों के निवार्ह में बाधा आई और यह सोचकर मांगे रखी गई, मानो हम भरत से निकलने की सोच रहे हैं, फिर तो भारत दुनिया के सबसे दृढ़्निश्चयी लोगों को चुनौति देने का साहस नहीं कर सकता, क्योंकि वह लोग फिर अपनी ताकत और निश्चय के साथ इस चुनौती का जवाब देंगे।
अंग्रेजों द्वारा दी गई चुनौती के बारे में गांधीजी ने 23 फरवरी 1922 के यंग इंडिया के अंक में लिखा- जब तक ब्रिटिश शेर हमारे चेहरे पर अपने डरावने पंजे घूमता रहेगा, तब तक कैसे कोई समझौता हो सकता है?
लार्ड बर्कनहेड और मिस्टर मांटेग्यू, दोनों ही शायद नहीं जानते हैं कि भारत समुद्र के रास्ते आने वाले सारे हार्ड फाइबर के लिए तैयार है। सत्ता के रेड वाइन के नशे और कमजोर नस्लों की लूट वाला कोई साम्राज्य दुनिया में लंबे समय तक नहीं टिका है और अगर ईश्वर है तो दुनिया की कमजोर नस्लों को संगठित ढंग से लूटने वाला और निरंतर क्रूरता पर टिका ब्रिटिश साम्राज्य टिक नहीं सकता।
24 फरवरी को दिल्ली में कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई और उसमें गांधीजी को विरोध और आलोचना झेलनी पड़ी। उन्होंने मोतीलाल नेहरू और लाजपत राय की चिठ्ठियां पढ़ी और कहा- जो जेल गए है, वह नागरिक के रूप में उतने समय के लिए अदृश्य ही हैं और वे न तो कोई दावा कर सकते हैं , न ही उनसे बाहरवालों को सलाह देने की उम्मीद कर सकते हैं। बैठक में गांधीजी के हल में फैसला हुआ, पर उन्हें लगता रहा कि बहुमत पूरे मन से उनके साथ नहीं है। इस मौके पर हुई उनकी गिरफ्ताई से सब कुछ बदल दिया।
यंग इंडिया में 9 मार्च 1922 के अंक में अगर मैं गिरफ्तार किया गया शीर्षक से गांधी ने लिखा-
अगर सरकार असहयोग आंदोलन की, व्यक्तिगत या सामूहिक, स्थायी रूप से खत्म करना चाहती तो मुझे गिरफ्तार करना कैसे छोड़ सकती है? सरकार द्वारा खून की नदियां बहा देना भी मुझे नहीं डरा स्कता। संक्षेप में कहें तो असहयोग आंदोलन पूरे देश में जोर-शोर और अनुशासन के साथ जारी रहेगा, अगर लोगों ने इस कार्यक्रम के अनुरूप काम किया तो वह जीतेंगे।
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गांधीजी की गिरफ्तारी और मुकदमा
गांधीजी ने आंदोलन तो स्थगित कर दिया था, लेकिन सरकार की दमनकारी नीतियों की आलोचना और निंदा करना जारी रखा। गांधीजी का विरोध हो रहा था और उनका समर्थन घट गया है, यह मानकर सरकार ने उनके यंग इंडिया के लेख को बहाना बनाकर उन्हें और पत्रिका के प्रकाशक शंकरलाल बैंकर को 10 मार्च 1922 को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें साबरमती जेल ले जाया गया। सेशन जज ने 18 मार्च 1922 को उनके मुकदमे की सुनवाई शुरू की। उन दोनों पर तीन लेखों के जरिए सरकार के प्रति असंतोष फैलाने का आरोप धारा 124ए के तहत लगाया गया। गांधीजी और शंकरलाल बैंकर दोनों ने अपना अपराध कबूल किया।
अपने लिखित बयान में गांधीजी ने कहा-
मुझे भारतीय लोगों और इंग्लैंड के लोगों को यह बताना होगा कि साम्राज्य का एक पक्का समर्थक और सहयोगी नागरिक होने के बाद मैं क्यों असहयोगी और पक्का असंतुष्ट बन गया हूं? रौलेट एक्ट कानून के रूप में हिंदुस्तानी लोगों की सारी वास्तविक आजादी को छीनने वाला था। इसके बाद पंजाब की डरावनी घटना और ब्रिटिश सरकार द्वारा खिलाफत को लेकर दिए गए वचन से मुकरना मुझे असंतुष्ट करती है। पंजाब वाले अपराध पर पर्दा डालने की कोशिश हुई और अधिकांश अपराधी ने सिर्फ सजा से बच गए, बल्कि सरकारी सेवा में भी बने रहे और कुछ हिंदुस्तान के पैसे से पेंशन भी दी जाती रही। कई को तो पुरस्कृत किया गया।
मैं मानता हूं कि सरकार ने पिछली किसी राज की तुलना में हिंदुस्तान कमजोर हुआ है। इस व्यवस्था से प्रेम करना मैं अपराध मानता हूं और मुझे यह सौभाग्य हासिल है कि मैंने पिछले अनेक लेखों में उसके प्रमाण समेत तर्क दिए हैं।
शंकरलाल बैंकर ने कहा कि उन्हें ये लेख छापने का अभिमान है। उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों को स्वीकार किया।
जज ब्रूमफील्ड ने सजा सुनाते हुए गांधीजी की तारीफ की। उसने कहा-
कानून व्यक्तियों के बीच भेद नहीं करता, फिर भी इस को नजरअंदाज करना असंभव है कि मैंने जितने लोगों के खिलाफ मुकदमें सुने हैं या आगे सुनूंगा, आप उन सबसे अलग हैं। इस तथ्य को भुलाना मुश्किल है कि अपने करोड़ों देशवासियों की नजरों में आप महान देशभक्त है और उनके नेता हो। राजनीति में आपसे असमति रखनेवाले भी मानते हैं कि आपके विचार काफी ऊंचे और अच्छे हैं तथा आपका जीवन संत जैसा है। आपके खिलाफ सजा देते हुए मैं 12 साल पहले मिस्टर बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ इन्हीं धाराओं में चले मुकदमे का अनुसरण कर रहा हूं। मुझे लगता है कि खुद को मिस्टर तिलक के साथ रखे जाना आपको बुरा नहीं लगेगा और आपको धारा तोड़ने पर दो-दो साल अर्थात कुल छल साल की सजा दी जाती है और मैं यह भी कहना चाहता हूं कि हिंदुस्तान की आगे की घटनाओं के क्रम में अगर सरकार आपकी सजा की अवधि कर करे या आपको छोड़ दे तो मुझसे अधिक खुशी किसी और को नहीं होगी।
गांधी ने जज के इस शिष्टाचार पर कहा-
मैं सिर्फ एक शब्द कहूंगा। चूंकि आपने मेरे मुकदमे के सिलसिले में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का नाम लिया, सो मैं यहीं कहूंगा कि उनके साथ यह जुड़ाव मेरे लिए सबसे अभिमान करने योग्य और विशेष क्षण था।
शंकरलाल बैंकर को एक साल की कैद और हजार रुपए का जुर्माना देने की सजा हुई। जुर्माना न चुकाने पर सजा छह महीने और बढ़नी थी। शंकरलाल बैंकर ने जुर्माना नहीं भरा।
इन खास कैदियों को जल्दी ही यरवदा जेल, पुणे भेज दिया गया। गांधीजी पर जेल के नियम सख्ती से लागू किए गए। उन्हें साल में सिर्फ चार पत्र लिखने की इजाजत मिली। पहले दो पत्र उन्होंने कस्तूरबा गांधी और अजमत खान को लिखे, जिसे बंबई सरकार ने सेंसर कर दिया। उसने पत्र के आपत्तिजनक हिस्से को हटाने को कहा गया। उन्होंने इसको अस्वीकार कर दिया और आगे कोई पत्र नहीं लिखा।
संदर्भ
जे.बी. कृपलानी, आंखो देखी आजादी की लड़ाई, अनुवाद अरविंद मोहन, प्रभात प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में