अम्मू स्वामीनाथन जो नेहरू से भी लड़ गई थीं
संविधान सभा में अहम भूमिका निभाने वाली महिला: अम्मू स्वामीनाथन
अम्मू स्वामीनाथन संविधान तैयार करने के लिए 425 सदस्यीय संविधान समिति में शामिल 15 महिलाओं में से एक थी।
24 नवंबर 1949 को संविधान के मसौदे पर चर्चा के दौरान अपने भाषण में अम्मू स्वामीनाथन ने कहा- बाहर के लोग कह रहे हैं कि भारत ने अपनी महिलाओं को बराबर के अधिकार नहीं दिए हैं। अब हम कह सकते हैं कि जब भारतीय लोग स्वयं अपने संविधान को तैयार कर रहे हैं तो उन्होंने देश के हर दुसरे नागरिक के बराबर महिलाओं को अधिकार दिए हैं। [i]
मां के व्यत्तित्व का प्रभाव अम्मू पर पड़ा
अम्मू स्वामीनाथन का जन्म केरल के पालघाट में अनाकारा जिले में नायर गोविंदा मेनन, जो एक स्थानीय अधिकारी के घर परिवार में 22 अप्रैल 1894 में हुआ। बालपन में ही पिता गोविंद मेनन के निधन के बाद, मां के संरक्षण में हुआ।
अम्मू कभी स्कूल नहीं जा सकी क्योंकि उस समय लड़कियों को लड़को के तरह घर से दूर स्कूल भेजने की व्यवस्था नहीं थी। घर में मां ने अम्मू को मलयालम में समान्य पढ़ना-लिखना और घर के कामों में दक्ष किया जिससे वह वैवाहिक जीवन के लिए तैयार हो सके। जाहिर है अम्मू के व्यत्तित्व पर उनकी मां का प्रभाव पड़ा।
मद्रास के प्रसिद्ध वकील सुब्बाराम स्वामीनाथन से कम उम्र में विवाह के बाद, अम्मु का जीवन पति के संरक्षण में पूरी तरह से बदल गया। उस जमाने में ब्राह्मण की शादी नायर महिला से असंभव जैसी बात थी। स्वामीनाथन परंपरागत मान्यताओं के सख्त विरोधी थे।
दोनों के 1908 में शादी की और विलायत जाकर कोर्ट मैरिज भी की। ब्राह्मण समाज कें इस शादी का काफी विरोध हुआ। पति के प्रोत्साहन ने उनको पढ़ने-लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। शिक्षा ने अम्मू स्वामीनाथन को आत्मविश्वासी ही नहीं बनाया, उनके व्यक्तित्व में दृढ़ इच्छाशक्ति भी विकसित की।
औपनिवेशिक और स्वतंत्र भारत में महत्वपूर्ण भूमिका
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अम्मू महात्मा गांधी की अनुयायी बन गई। 1934 के दशक में वह तमिलनाडु में कांग्रेस का प्रमुख चेहरा थी। इससे पहले महिला अधिकारों और सामाजिक स्थितियों के जिम्मेदार कारणों को दूर करने में भी सक्रिय रही।
एनी बेसेंट, डोरोथी जिन राज दास, मालती पटवर्धन, श्रीमति दादा भाई एवं श्रीमति अम्बुजम्मल के साथ मिलकर अम्मू स्वामीनाथन से 1917 में वीमेंस इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की।[ii] 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के वजह से उन्हें वेल्लोर जेल भी जाना पड़ा।
स्वतंत्रता के बाद विभाजन का दंश झेल चुकी महिलाओं के सामने बहुत बड़ी समस्या थी। कानून में उन्हें विकल्प चुनने का अधिकार नहीं दिया था। जो दो आजाद मुल्कों के व्यक्तियों और नागरिकों के रूप में महिलाओं को मिलने चाहिए थे। दोनों देश इस बात पर सहमत थे कि एक निश्चित तारीख के बाद, जबरन धर्म-परिवर्तनों और विवाहों को मान्यता नहीं दी जाएगी। तब क्या किया जाता, जब कोई औरत अपने सम्बन्धों के स्वैच्छिक होने का दावा करें?
अम्मू स्वामीनाथन ने कहा- मुझे दुख है कि कुछ सदस्यों ने बदला लेने की बात कही। मैं समझती हूं यह सबसे अधिक अमानवीय कार्य है क्योंकि आखिर, यदि दोनों सरकारें एक दूसरे से सहमत नहीं हो रही हैं, तो यह निर्दोष लड़कियों की गलती नहीं है जो क्रूर परिस्थितियों का शिकार रही हैं। हमें बदला लेने की बात तो सोचनी भी नहीं चाहिए…..।[iii]
अम्मू को भारत के संविधान सभा के सदस्य के रूप में चुना गया। यह उनकी योग्यता, अंग्रेजी भाषा कौशल का प्रतिफल तो था ही, साथ ही साथ उनके मुखर व्यक्तित्व और उनकी दूरदर्शिता का भी प्रतिफल था। जिसको उन्होंने अपने स्वयं के जीवन-संघर्ष और आंदोलन के संघर्षों के दौरान अर्जित किया था।
संविधान का डाफ्ट तैयार करने में और उसमें महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने की बहसों में वह काफी सक्रिय रही। 1952 में उन्होंने अपने संसदीय राजनीति डिंडिंगुल लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर किया, 1954 में राज्यसभा का सदस्या चुना गया। वह अपने क्षेत्र में तेज तर्रार गांधीवादी नेता के रूप में उभरी।
1959 में जब सत्यजीत राय फेडरेशन आंफ फिल्म सोसाइटी के प्रेसिडेंट थे तब अम्मू इसकी वाइंस प्रेसिडेट थी। बाद में उन्होंने सीबीएफसी, भारत स्काउट्स एंड गाइड का भी नेतृत्व किया। अम्मू को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के उद्घाटन पर 1975 में मदर आंफ द ईयर के रूप में भी चुना गया।
उनका एक पुत्र गोविन्द स्वामीनाथन और दो पुत्री लक्ष्मी सहगल, मृणालिनी साराभाई थी। गोविन्द स्वामीनाथन एक कानूनी विद्वान, मृणालिनी साराभाई एक नृत्यांगना थी और लक्ष्मी सहगल स्वतंत्रता सेनानी एवं आज़ाद हिन्द फौज की सिपाहियो में से एक थी। जाहिर है उन्होंने सभी बच्चों को समान शिक्षा और समान अवसर प्रदान किया, सभी को अपनी पसंद का करियर चुनने की आजादी भी दी।
नेहरूजी के पंडित जी कहलाने पर नोक-झोक
अम्मू ने अपने वैवाहिक जीवन में जातिवाद का गहरा दंश झेला था, नायर जाति के होने के कारण। उनकी बेटियों को घर के बरामदा में खाना खाने की अनुमति नहीं थीं क्योंकि उनके पति के परिवार के अनुसार वे संपूर्ण ब्राह्मण नहीं थी। इसका विरोध अम्मू ने जीवन भर किया और इस तरह के रीतियों के खिलाफ अभियान भी चलाया।
उन्होंने पंडित जी कहलवाने पर नेहरूजी की भी निंदा की थी क्योंकि यह टाइटल उनके उच्च जाति को दर्शता था। हालांकि बाद में जवाहरलाल नेहरू ने इसकी वजह दी थी कि वह किसी से पंडित कहने को नहीं कहते, लोग उन्हें कहते हैं पर फिर भी अम्मू को इस बात से परेशानी थी कि वो पंडित जी कहे जाने पर कोई प्रतिक्रिया क्यों देते हैं?
4 जुलाई 1978 को केरल में उनका निधन हुआ। उनका पूरा जीवन गलत के खिलाफ आवाज उठाने के लिए मजबूत प्रेरणा देता है। साथ ही साथ अपनी बात को मुखरता से कहना, आपके व्यक्तित्व को असीम संम्भावनाओं से भर सकता है। वह संम्भावनाएं जो एक आम स्त्री के अंदर दबकर रह जाती है।
संदर्भ स्त्रोत
[i] आशारानी व्होरा, महिलाएं और स्वराज, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली
[ii] आर. के.शर्मा, नेशनलिज्म, सोशल रिफार्म एंड इंडियन वीमेन्स, जानकी प्रकाशन, पटना, 1981, पेन न०-118
[iii] उर्वशी बुटालिया, भारत विभाजन की अनकही कहानियां, वाणी प्रकाशन, 2002, दिल्ली, पेज न०162
जे एन यू से मीडिया एंड जेंडर पर पीएचडी। दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। स्वतंत्र लेखन।
संपादक- द क्रेडिबल हिस्ट्री