भारत में गुप्तचर तंत्र का इतिहास
कहा जाता है कि दुनिया का सबसे पुराना पेशा है देह-व्यापार. देह-व्यापार से उत्पन्न परिस्थितियों में ईर्ष्या-द्वेष बढ़ा. ऐसी हालत में खुद को महफ़ूज़ रखने के लिए इन्सान अपने दुश्मन की खोज-खबर लेने लगा।
इसके लिए उसे जरूरत पड़ी खुफिया ख़बरों की जो वक्त रहते उसे खतरों से आगाह कर सके। खुफिया खबरों को जुटाने वाले गुप्तचर या जासूस कहलाये और उनका पेशा जासूसी. इस तरह, दुनिया का दूसरा सबसे पुराना पेशा जासूसी हुआ।
वेदों में गुप्तचर तंत्र के सूत्र
दुनिया की सबसे पुरानी किताब ऋग्वेद में जासूसी की जोरदार चर्चा आई है। गुप्तचरों के अधिष्ठाता देवता वरुण से प्रार्थना की गयी है कि वह अपने गुप्तचरों, जिन्हें स्पश या चर कहा गया, को सर्वत्र नियुक्त करे।
वे हर जगह सब पर नजर रख सकें. वरुण के चर सावधानी से सब कुछ देखते रहते थे, सूचनाएँ एकत्र करने के लिए दूर-दूर तक यात्रा करते थे, और कोई भी क्षेत्र उनकी पहुँच के बाहर नहीं था। वरुण की सरमा नाम की महिला गुप्तचर अपराधियों की खोज में घूमती रहती थीं। इन्द्र ने भी उसकी सेवाओं का लाभ उठाया था। वरुण के गुप्तचरों की प्रशंसा में ऋषियों ने मुक्तकंठ से गीत गाया-
“शीघ्र गमन करने वाले, दुष्टों को बाँधने वाले गुप्तचर स्थान-स्थान पर हैं उनकी पलकें कभी नहीं झपकतीं. मधुर जिह्वा वाले, किसी से न मिल जाने वाले वे गुप्तचर, राष्ट्र के सहस्त्रों पुरुषों की सुरक्षा करने वाले हैं और विविध व्यवहार के केन्द्रों में दुष्टों को उपतप्त करते हैं”[i]
ऋग्वेदकालीन वरुण के चरों की परम्परा परवर्ती काल में न सिर्फ अविछिन्न रही, बल्कि और विकसित होती गयी. अथर्ववेद (अनुमानित काल 1000 ईपू – 800 ईपू) का समय आते-आते, जब समाज जटिल हो गया और छल-छद्म तथा जादू-टोने का प्राबल्य हो गया, तो गुप्तचर-सम्राट (स्पाईमास्टर) वरुण की महत्ता बहुत बढ़ गयी. उसे सहस्त्रनेत्र कहा जाने लगा. ऋषिगण उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए गीत गाने लगे[ii]
इन सबका बृहद अधिष्ठाता देख रहा ज्यों अति समीप से
जो कुछ भी जन जग में करते हैं देव जानते सपदि उसे
समझा करते व्यर्थ मूर्ख वे छिप सकते हैं छल कर उससे. (1)
जो ठहरा है, जो चलता है, छिपा छिपा जन जो फिरता है
गुप्त स्थान पर जा छुपता है – कुछ भी करे, नहीं बचता है.
दो जन गुप-चुप कहीं पर किया करते जो बैठ मंत्रणाएं
राजा वरुण तृतीय जानता, कोई कितना छिपे, छिपाए. (2)
है यह भूमि वरुण राजा की, और बृहत् गगन तारक-मंडित
बहुत दूर तक जो है फैला, वह भी है उससे ही शासित
ऊपर-नीचे के समुद्र ये उसकी काँखों बीच समाये
औ’ देखो वह खुद को है इस अल्प उदक में पड़ा छिपाये. (3)
भाग परे द्युलोक से जाए कोई भी, वह बच न सकेगा
राजा वरुण उसे सब स्थानों पर जाकर तत्क्षण पकड़ेगा
दूर गगन से नीचे आकर रहे गुप्तचर देख भूमि पर
उनके नयन हजारों, उनसे बच सकता न कोई नर. (4)
भूमि-द्युलोक-मध्य जो कुछ है, जो कुछ इससे परे कहीं पर
सब कुछ राजा वरुण देखता, सब पर उसकी पड़ रही नजर
जन जन के एक एक निमेष गिने हुए हैं उसके द्वारा
जैसे अक्ष जुआरी फेंके, वह जीते क्षण में जग सारा. (5)
वरुण, पाश तेरे फैले जो सप्त सप्त ये त्रिविध विघातक
छिन्न-भिन्न वे कर दें उसको, नर जो अनृत बोलता वंचक
और सत्यवादी को ये कुछ नहीं कहें, उसके हितकारक. (6)
नर नर की गति लखने वाले वरुण, सैकड़ों तेरे पाश
बाँध अन्रित्भाशी को ये लें, उसे न छोड़ें, करें विनाश
उदार नीच का ढलके नीचे, जैसे हो कोई मशक शिथिल
बिना बंधनों के हो लटकी कटी-फटी-सी विस्रस्त विफल. (7)
हैं विविध वरुण के पाश, बंधा सीधा कोई, विस्तृत कोई
बांधे कोई, फेंके कोई, दिव्य और मानववत कोई. (8)
उनसे बांधूं तुझे पुत्र अमुक पिता के व अमुक माता के
वे सब बंधन तेरे जैसे दुष्टों हित रखे हैं ला के. (9)
महाकाव्यों का समय आते-आते तो गुप्तचरों का खूब प्रयोग होने लगा. रामायण में राम भरत से जानना चाहते हैं कि क्या उन्होंने अपने पन्द्रह उच्च राजपदाधिकारियों और अन्य राजाओं के अठारह उच्च राजपदाधिकारियों पर नजर रखने के लिए गुप्तचर नियुक्त किये हैं.[iii]
रामायण में गुप्तचर तंत्र
रावण की लंका में गुप्तचर-व्यवस्था अपेक्षाकृत ढीली-ढाली थी. लगता है रावण अपने बल के अभिमान में गुप्तचरों को महत्व न देता था. तभी तो, नाक कट जाने पर उसकी बहन शूर्पणखा ने उसे धिक्कारते हुये कहा था-
“भैया, तुम बदतमीज और बेवफा मंत्रियों से घिरे बैठे हो. इसलिए तुम्हें गुप्तचर नियुक्त करने की सुध नहीं है. यही वजह है कि तुम्हारे रिश्तेदार मारे जा रहे हैं और तुम अनजान बने बैठे हो.”[iv]
उसने रावण को चेतावनी दी, “जो राजा अपनी प्रजा की सुरक्षा की जानकारी के लिए गुप्तचर नहीं नियुक्त करता, प्रजा उसे वैसे ही त्याग देती है जैसे नदी के कीचड़ में फंसे हुए हाथी को.”[v] रावण सोचने को मजबूर हो गया, “जो राजा अपने शत्रु की ताकत और कमजोरी का पता अपने गुप्तचरों द्वारा लगा लेता है, उसे युद्धभूमि में शत्रु को पराजित करने में बहुत कम श्रम की आवश्यकता होती है.”[vi] परिणामस्वरूप, उसने तुरंत अपनी गुप्तचर-व्यवस्था सुदृढ़ किया और राम के पीछे अपने जासूस लगा दिये.
राम की गुप्तचर-व्यवथा कहीं ज्यादा मजबूत थी. उनकी गुप्तचर-व्यस्था के प्रमुख थे महावीर हनुमान जो स्वयं एक मजे हुए गुप्तचर थे. किष्किन्धाकांड में राम लक्षमण को आते देख हनुमान सुग्रीव के आदेश पर ब्राह्मण का वेश बना कर आगंतुकों के बारे में पता करने पहुँच गये. वेश बदल लेने की हनुमान की इस प्रतिभा को देख कर ही राम ने उन्हें गुप्तचर कार्य सम्हालने की जिम्मेदारी सौंपी. यही कारण है कि रामदूत के रूप में वह लंका में एक गुप्तचर की भांति प्रवेश किये और पूरे नगर का त्वरित सर्वेक्षण कर लिया. उसी दौरान वह विभीषण में संपर्क-सूत्र बनने की सम्भावना देखकर उन्हें राम का स्थानिक गुप्तचर (एजेंट) बना लिया.
युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व रावण ने अपने कई गुप्तचर लंका के बाहर डेरा डाले राम की सेना की शक्ति का अनुमान लगाने के लिए भेजा. ये लोग भालू-बन्दर का रूप बना कर राम की सेना में घुस गये और गुप्तचरी का कार्य शुरू कर दिए.
सुक और सर नामक दो प्रमुख गुप्तचर विभीषण द्वारा पहचान लिए गये और पकड़ कर राम के सामने लाये गये. राम ने इन गुप्तचरों को न सिर्फ माफ़ कर दिया, बल्कि अपनी सेना की कुछ मुख्य विशेषताएँ भी उन्हें बतायीं ताकि वे रावण को राम की शक्ति का बोध करा सकें.
रणभूमि में लक्ष्मण जब घायल हो गये, तो विभीषण के बताये हुए पते से ही लंका से सुषेण वैद्य लाये गये. बाद में, विभीषण की दी हुई गुप्त सूचना कि रावण की नाभि में अमृत है के आधार पर ही राम रावण का वध कर पाये. किन्तु, अयोध्या में राजा बनने पर भद्रमुख नामक गुप्तचर द्वारा दी गयी सूचना ने राम के जीवन में भूचाल ला दिया और उन्हें अपनी पत्नी सीता का त्याग करना पड़ा.
महाभारत में गुप्तचर तंत्र
महाभारत का काल छल-छद्म और रक्तपात से भरा हुआ था. यही कारण है कि इस काल में गुप्तचरों की महत्ता और बढ़ गयी. वेदव्यास ने शांतिपर्व में गुप्तचरों का महत्त्व सेना के आठवें अंग के रूप में स्वीकार किया, वहीँ उद्योगपर्व में उन्हें राजा की आँखें कहा गया.
कृष्ण के गुप्तचर कौरवों की सेना में थे और दुर्योधन के ख़ुफ़िया कर्मी पाण्डवों की सेना में. कोई भी स्थान गुप्तचरों की उपस्थिति से बाहर न था. वे उद्यानों, मनोरंजन स्थलों, मदिरालयों, राजदरबारों, घरों, दुकानों, विद्वत्परिषदों और सामान्यजन के वासस्थानों – सभी जगह हाजिर रहते थे.
वे नगरों और प्रदेशों में राजा की नीति के प्रति जनता की प्रतिक्रिया का पता लगते थे. शत्रु के गुप्तचरों, दूतों और संदेशवाहकों के मन की बातें पता करने का काम भी इन्हीं के जिम्मे था. किन्तु, पाण्डवों के अज्ञातवास की अवधि में दुर्योधन के ख़ुफ़िया कर्मी पाण्डवों का पता न लगा पाए. वहीँ, कृष्ण के गुप्तचर महाभारत युद्ध के दौरान दुर्योधन के धिक्कारने पर भीष्म की प्रतिज्ञा कि कल पांच बाणों से पाँचों पाण्डवों को मार डालूँगा, का पता लगा लिए. गुप्तचरों की यह पूर्वसूचना पाण्डवों द्वारा व्यूहरचना में बड़ी काम आयी.
मौर्यकाल में चाणक्य का गुप्तचर तंत्र
भारतवर्ष में गुप्तचरों की उपस्थिति के ऐतिहासिक प्रमाण सर्वप्रथम चौथी शताब्दी ईसा पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में मिलता है. चन्द्रगुप्त का गुरु चाणक्य एक उच्चकोटि का कूटनीतिज्ञ, रणनीतिकार, प्रशासक और गुप्तचर तंत्र का कुशल संचालक था.
चाणक्य ने अपने ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ में गुप्तचरों के बारे में विस्तार से लिखा है. ‘अर्थशास्त्र’ के ‘गूढ़पुरुषोत्पत्ति’ नामक दसवें अध्याय में चाणक्य ने गुप्तचरों की नियुक्ति और ‘गूढ़पुरुषप्रणिधि’ नामक ग्यारहवें अध्याय में गुप्तचरों की प्रकृति के सम्बन्ध में चर्चा किया है. चाणक्य द्वारा स्थापित गुप्तचरों के आदर्श लगभग 2000 वर्षों बाद भी गुप्तचर प्रणाली में प्रासंगिक माने जाते हैं.
चाणक्य ने पूरे गुप्तचर तंत्र को दो भागों में बांटा था – ‘संस्था’, जिसके गुप्तचर राज्य से वित्तपोषित संस्थाओं में सक्रिय थे, और ‘संचार’, जिसमें वे गुप्तचर सम्मिलित थे जो आवश्यकता के अनुसार विभिन्न स्थानों में घूम-फिर कर सूचनाएँ एकत्र करते थे.
‘संस्था’ में पांच प्रकार के रूपधारी गुप्तचर थे – कापटिक (कपटवृत्ति छात्र), उदास्थित (उदासीन सन्यासी), गृहपतिक (गृहस्थ), वैदेहक (बनिया), और तापस (तपस्वी). ‘संचार’ में चार प्रकार के रूपधारी गुप्तचर थे – सत्रिन (अनाथ व्यक्ति), तीक्ष्ण (झगडालू प्रवृत्ति का व्यक्ति), रसद (विष देने में प्रवीण व्यक्ति), और भिक्षुकी या परिव्राजिका (निर्धन विधवा या ब्राह्मणी सन्यासिनी).
चाणक्य के गुप्तचर विभिन्न छद्मवेशों में काम करते थे. वे छत्रवाहक, पानपात्रवाहक, जलवाहक, पादुकावाहक, आसनवाहक आदि रूप में सक्रिय रहते थे. वे भृत्य, केशप्रक्षालक, शैय्या-सज्जक, नापित, परिचारक आदि रूप में लक्षित व्यक्ति के इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे. विषकन्यायें बहुतायत से प्रयुक्त होती थीं. कुछ चतुर व्यक्ति अन्धा या वधिर का छल द्वारा बहाना बना कर सूचनाएं एकत्र करते थे. मनोरंजन करने वाले – यथा नर्तक, अभिनेता, मदारी, जादू दिखाने वालों का रूप धर कर भी गुप्तचर सूचनायें जुटाते थे[vii]
तमिल साहित्य के महान ग्रन्थ ‘तिरुक्कुरल’, जिसकी रचना महान संत कवि तिरुवल्लुवर ने लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में की थी, में 10 कुरलों (दोहों) में गुप्तचरी पर अत्यन्त सारगर्भित बातें कही गयीं हैं. इनमें से पांच प्रमुख कुरल का भावार्थ इस प्रकार है :
- एक गुप्तचर द्वारा दी गयी सूचना को दूसरे गुप्तचरों के माध्यम से जांचना एवं पुष्ट करना चाहिए.
- साधु या तपस्वी का रूप धारण कर गुप्तचर को सूचना एकत्र करना सबसे उत्तम है. ऐसे गुप्तचर को किसी भी हालत में अपनी असलियत जाहिर नहीं करनी चाहिए.
- गुप्तचर को ऐसा रूप धारण करना चाहिए जो संदेह से परे हो. गुप्तचर को निर्भीक होना चाहिए और हर हालत में गुप्त सूचना को छिपाये रखने में समर्थ होना चाहिए.
चौथी शताब्दी आते-आते भारत में जासूसी अत्यंत विशिष्ट कौशल के रूप में विकसित हो चुकी थी. रामायण, महाभारत और पुराणों के अलावा, विभिन्न साहित्यकार अपनी रचनाओं में जासूसी की चर्चा विशेष रूप से कर रहे थे. पूरा पुराण-इतिहास युद्ध, कूटनीति, षड्यन्त्र और गुप्तचर्या के विवरणों से भर गया.
मनु, कामन्दक और याज्ञवल्क्य जैसे स्मृतिकारों के अलावा भास, कालिदास, माघ और बाण भी अपने-अपने साहित्य में गुप्तचरों का उल्लेख करने में पीछे न रहे. ‘अमरकोश’ में गुप्तचर की कई संज्ञाएँ आई हैं – यथार्हवर्ण, प्रणिधि, अपसर्प, चर, स्पश, चार व गूढ़पुरुष.[viii]
‘मनुस्मृति’ में मनु कहते हैं कि राजा दूसरे राज्यों में अपने दूत भेजे और अपने कार्यों को सम्पन्न करने पर विचार करे. उनका मानना है कि अन्तःपुर की गतिविधियों और दूसरे राज्यों में भेजे हुए गुप्त दूतों के कार्यों पर दृष्टि रखने के लिए राजा अपने दूसरे दूतों को नियुक्त करे.[ix]
शुक्राचार्य के अनुसार जो व्यक्ति शत्रु तथा प्रजा के व्यवहार को जानने के लिए यथार्थ बातों को कुशलतापूर्वक बताते हों, ऐसे ही लोगों को गूढाचार (गुप्तचर) पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए.[x]
कालिदास ने यद्यपि स्वतंत्र रूप से गुप्तचरों की चर्चा न की है, किन्तु अपने साहित्य में गुप्तचरों के कार्यों की ओर संकेत किया है. यही नहीं, दक्षिण भारत के तमिल संगम साहित्य में भी जासूसों की जोरदार चर्चा होती रही.
अर्थशास्त्र की रचना के कोई आठ सौ वर्षों बाद चौथी शताब्दी में, संस्कृत के महान नाटककार विशाखदत्त ने ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक में बड़ी कुशलता से चन्द्रगुप्त के संरक्षक चाणक्य और मगध साम्राज्य के महामात्य राक्षस के प्रतिस्पर्धी जासूसी कारनामों को नाटक का विषय बनाया. चाणक्य अपने कुशल जासूसों की मदद से राक्षस की खोई हुई अंगूठी को हथियार बना कर उसे मात दे देता है.
छठीं शताब्दी के संस्कृत कवि भारवि के महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम’ में राजा को चारचक्षुष[xi] कहा गया है, अर्थात् राजा अपने गुप्तचरों के माध्यम से देखता है. युधिष्ठिर का गुप्तचर उन्हें सचेत करता है, “गुप्तचरों की सूचना उचित और विशिष्ट होने पर भी महत्वहीन हो जाती है, यदि उसके आधार पर तुरंत और सशक्त कारवाई न की जाय.”[xii]
आठवीं शताब्दी के महान कवि माघ ने “शिशुपालवधम” नामक महाकाव्य में गुप्तचरी की प्रशंसा में लिखा है कि जैसे व्याकरणविहीन भाषा प्राणहीन होती है उसी प्रकार ख़ुफ़िया रहित राजनीति निर्जीव होती है।[xiii]
बाद के राजाओं ने कौटिल्य के सिद्धान्तों और प्रणाली को आधार बना कर अपने-अपने शासन काल में विभिन्न सूत्रों से मिली सूचनाओं की सत्यता परखने और अपने राजकर्मचारियों एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों पर नजर रखने के लिए गुप्तचरों का प्रयोग किया. कल्हण ने राजतरंगिणी में उल्लेख किया है कि कश्मीर का राजा यशस्कर अन्य स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं के सत्यापन में गुप्तचरों की सहायता लेता था.
मध्यकाल आते-आते भारतीय राजव्यवस्था विखंडित हो गयी और छोटे-छोटे राजाओं का उदय हुआ. इन राजाओं में आतंरिक संघर्ष और षड्यन्त्र शुरू हो गये. साथ ही, इनके क्षत्रपों के अपने-अपने क्षुद्र स्वार्थ व महत्वाकांक्षाएं उभर आयीं.
गुप्तचरों का उपयोग इन षड्यन्त्रों तक सीमित हो गया. इससे विभिन्न राज्यों की गुप्तचर प्रणालियाँ बिखर गयीं. विदेशी आक्रान्ताओं की खोज-खबर रखने के बजाय गुप्तचर गण अपने स्वामियों के निजी स्वार्थों की आपूर्ति हेतु सूचनाएं एकत्र करते रहे.
इसके विपरीत, विदेशी आक्रान्ताओं के जासूसों ने इन राज्यों में घुसपैठ शुरू कर दी. विदेशी व्यापारी और फकीरों के रूप में घूमते ये जासूस अपने आक्रान्ता स्वामियों के लिए न केवल गुप्त सूचनायें एकत्र करते थे, बल्कि विविध षड्यन्त्रों और छल-छद्मों द्वारा स्थानीय राजाओं के मनमुटावों, टकरावों और महत्वाकांक्षाओं को भड़काते थे. इससे विदेशी आक्रान्ताओं का कार्य आसान हो गया.
‘बरीद-ए-मुमालिक’ मध्यकाल का गुप्तचर प्रणाली
भारत में सुस्थापित होते ही दिल्ली सल्तनत (1206–1526) के शासकों ने ‘बरीद’ नाम से अपनी गुप्तचर प्रणाली स्थापित की, जिसका मुखिया ‘बरीद-ए-मुमालिक’ होता था. यह ‘बरीद-ए-मुमालिक’ प्रायः शाही परिवार से ही होता था और सुल्तान का सबसे खास आदमी माना जाता था. ‘बरीद-ए-मुमालिक’ के महत्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बाद में ऐसी ही किसी बरीद ने दक्खन में बारिदशाही साम्राज्य (1489-1619) स्थपित किया.
‘बरीद-ए-मुमालिक’ के नियन्त्रण में अनेक बरीद (ख़ुफ़िया अधिकारी) होते थे जो पूरे राज्य में फैले हुए थे. तत्कालीन राजनीतिक चिन्तक और विद्वान जियाउद्दीन बरनी (1285–1358) ने अपनी पुस्तक ‘तारीख-ए-फिरोज शाही’ में उल्लेख किया है कि “सिर्फ इमानदार और चरित्रवान व्यक्ति ही बरीद नियुक्त होता था. कई बार प्रसिद्ध विद्वानों को भी उनकी विद्वत्ता और चारित्रिक विशिष्टता के कारण, उनकी इच्छा के विरुद्ध भी लोकहित में, बरीद बना दिया जाता था.”
बरीद ‘मुनिहियाँ’ (सीक्रेट एजेंट्स) के माध्यम से गुप्त सूचनाएँ एकत्र कर बरीद-ए-मुमालिक के पास पहुंचाते थे, जिनका विश्लेष्ण व मूल्यांकन करके वह सुल्तान को सूचित करता था.
पानीपत के प्रथम युद्ध (1526) में भारत में पहली बार तोपखाने का प्रयोग करके बाबर ने मुगल साम्राज्य की नीव डाल दी. बाबर का एक बहादुर सेनानायक फरीद खां उर्फ़ शेर शाह सूरी, जिसे उसकी वीरता और योग्यता के कारण बिहार का सूबेदार बनया गया था, ने कई प्रशासनिक सुधार किये और शिथिल पड़ गयी गुप्तचर व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त किया.
उसने पूरे राज्य में ‘वाकयानवीस’ नियुक्त किये, जिनका कार्य बाजार-व्यवस्था सहित कई मामलों पर नजर रखना होता था और किसी भी गौर-तलब वाकये को बादशाह की नजर में लाना होता था. शेर शाह सूरी इतना चतुर था कि मुगलों की तोपखाना प्रणाली को उन्हीं के विरुद्ध प्रयोग करके उनके सम्राट हुमायूं को पस्त कर दिया. यह दीगर बात है कि बुंदेलखंड के कालिंजर किले को फतह करने के लिए लगाये गये तोपखाने के फटने से उसकी मृत्यु (22 मई, 1545) हो गयी.
अकबर की चतुष्कोणीय गुप्तचर प्रणाली
शेरशाह सूरी की गुप्तचर प्रणाली को बाद में अकबर ने अपने शासनकाल (1556-1605) में बरकरार रखा, यद्यपि उसने उसमें आवश्यक संशोधन और सुधार कर दिए. अकबर ने अपनी गुप्तचर प्रणाली को चतुष्कोणीय बनाया जिसमें चार प्रकार के खबरी (संवाददाता) होते थे –
1. वाकयानवीस – यह अपने हलके की घटना विशेष का मौका मुआयना करके लिखित रिपोर्ट सम्राट को भेजता था.
2. सवानेहनवीस – वह अपने हल्के की घटनाओं का लिखित दस्तावेज बना कर रखता था और वक्त-जरूरत पर निगरानी या इस्तेमाल के लिए पेश करता था.
3. ख़ुफ़ियानवीस – ये असली जासूस होते थे जो अपने हल्के में गुप्त सूचनाएँ एकत्र करके केन्द्रीय प्रशासन को मौखिक या लिखित रूप में प्रेषित करते थे.
4. हरकारा – ये संदेशवाहक या दूत होते थे जो मौखिक सन्देश पहुंचाते थे. मौखिक सन्देश की आड़ में हरकारा अक्सर गुप्त ख़बरें छुपा लेते थे और मौका पाकर प्राप्तकर्ता को चुपचाप बताते थे.
अकबर के दरबारी अबुल फ़जल फैजी ने अपने ‘आईने-अकबरी’ में इन चारो प्रकार के संवादाताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि अकबर ने चौदह योग्य व्यक्तियों को छांट कर वाकयानवीस नियुक्त किया था. ये वाकयानवीस अपने सूबे के सूबेदारों के दरबार में उपस्थित रहते थे और प्रतिदिन की कार्रवाई का विवरण लिखते थे और शाम को सूबेदार को दिखाते थे.
ये विवरण इकठ्ठा करके वे साप्ताहिक रूप से सम्राट के पास भेजते थे. यदि कोई अत्यंत संवेदनशील सूचना होती थी तो वे उसे बिना सूबेदार को बताये सीधे सम्राट को बताते थे. सूबेदार ख़ुफ़िया जानकारी जाहिर करने के लिए किसी वाकयानवीस को विवश नहीं कर सकता था. वाकयानवीस का पद बहुत संवेदनशील और महत्वपूर्ण था.
वह सीधे सम्राट के प्रति उत्तरदायी था. अतः स्वविवेक के आधार पर वह सूबेदार या वजीर को नजरअंदाज करके सीधे सम्राट को सूचित करता था. वह न केवल दीवानी मामलों, बल्कि फौजदारी मामलों और फ़ौज से जुड़े मुद्दों पर अपनी रिपोर्ट भेजता रहता था. राजदूतों और विशिष्ट व्यक्तियों के कहीं जाने पर उनके साथ-साथ जाने का भी उसे हक़ प्राप्त था ताकि वह उनकी गतिविधियों पर गुप्त नजर रख सके
परवर्ती मुगल सम्राटों ने भी कमोबेश इसी ख़ुफ़िया प्रणाली को अपनाए रखा. अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफ़र के शासनकाल (1837-1857) तक यह प्रणाली काम करती रही.
औपनीवेशिक भारत गुप्तचर तंत्र
इसी बीच ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में घुस आई, किन्तु उसे अपने कमजोर ख़ुफ़िया नेटवर्क के कारण शुरुआती दिनों में भारत में पैठ बनाने बहुत कठिनाई हुई.
लोगों और क्षेत्रीय विशेषताओं के बारे सटीक सूचनाएं न उपलब्ध होने कारण अंग्रेजों को 1778 से 1783 के बीच मराठों और मैसूर के विरुद्ध युद्ध में बहुत क्षति उठानी पड़ी. इससे सीख लेकर अंग्रेजों ने जगह-जगह अपने गुप्तचर नियुक्त किये. फिर भी गुप्तचरों का कोई सांगठनिक ढांचा वे न खड़ा कर सके और गुप्तचरी का सारा कार्य व्यक्तिगत प्रयासों से ही होता था.
इस दौरान मध्य भारत में सक्रिय ठगों के आतंक का उन्मूलन करने के लिए मेजर विलियम हेनरी स्लीमन (1788 –1856) ने गुप्तचरी का अत्यंत सफलतापूर्वक प्रयोग किया. उनकी देख-रेख में 1835 में जबलपुर में ठगी और डकैती डिपार्टमेंट की स्थापना की गयी.
यही मेजर स्लीमन ही भारत में आधुनिक गुप्तचर प्रणाली के जनक माने जाते हैं. इस बीच, 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से अंग्रेजों को गहरा आघात लगा. उनकी धन-जन की जबरदस्त क्षति हुई.
अंग्रेजों को समझ में आ गया कि भारत पर सिर्फ तलवार के बल पर शासन नहीं किया जा सकता. भारत में जड़ जमाने के लिए एक मजबूत गुप्तचर प्रणाली की आवश्यकता है. इस दिशा में छोटे-छोटे कई प्रयास हुए, किन्तु सबसे ठोस प्रयास तब हुआ जब तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन ने 15 नवम्बर, 1887 को सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया को लिखे एक पत्र में प्रस्ताव भेजा
जिसमे सुझाव दिया गया था कि भारत में गुप्त और राजनैतिक सूचनाओं के लिए एक सुव्यवस्थित गुप्तचर संगठन की आवश्यकता है. इस प्रस्ताव की स्वीकृति वायसराय को 23 दिसम्बर, 1887 को मिली. यही वह दिन था जिसे भारत की गुप्तचर संस्था – इंटेलिजेंस ब्यूरो – का जन्मदिन माना जाता है.
वायसराय को प्राप्त स्वीकृति के आधार पर 1887 में ठगी और डकैती डिपार्टमेंट की जगह एक सेंट्रल स्पेशल ब्रांच की स्थापना हुई, उसी साल प्रान्तों के पुलिस मुख्यालयों में प्रोविंशियल स्पेशल ब्रांचों की भी स्थापना हुई.
सेंट्रल स्पेशल ब्रांच की जिम्मेदारी प्रोविंशियल स्पेशल ब्रांचों से प्राप्त गुप्त और राजनैतिक महत्त्व की सूचनाओं के संकलित करने और विश्लेषण करने की निर्धारित की गयी. आगे चल कर 1904 में सेंट्रल स्पेशल ब्रांच का नाम सेंट्रल क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट कर दिया गया.
इसी संगठन का नाम 1920 में इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) रख दिया गया और गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1919 के सेक्शन 40(2) के अंतर्गत इसके उद्देश्य एवं कार्यों का संक्षिप्त उल्लेख किया गया. इसी के आधार पर 1924 में आईबी को भारत की सुरक्षा से सम्बंधित मामलों पर काम करने और सीधे गवर्नर जनरल को रिपोर्ट करने को कहा गया.
1935 में कुछ प्रान्तों के सेंट्रल इंटेलिजेंस ऑफिसर्स को आईबी के अधीन कर दिया गया. 1945 में यह स्पष्ट कर दिया गया कि (i) सुरक्षा सम्बन्धी मामलों के लिए आईबी भारत सरकार की गुप्तचर संस्था है, (ii) आईबी को कोई पुलिस पॉवर नहीं है, और (iii) इसकी शक्तियां इसके डायरेक्टर में निहित हैं जिसकी नियुक्ति गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 के अंतर्गत प्राप्त विशेषाधिकार के तहत गवर्नर जनरल द्वारा की जायेगी.
1950 में जब स्वतंत्र भारत का अपना संविधान लागू हुआ तो आईबी की केन्द्रीय और प्रांतीय इकाइयों की गुप्त फाइलें या तो नष्ट कर दी गयीं या उनमें से ज्यादातर इंग्लैंड भेज दी गयीं.
आजाद भारत का गुप्तचर तंत्र
आईबी का यही ढांचा आज भी काम कर रहा है. एक सतत संस्था के रूप में आईबी, जिसकी शुरुआत 1887 में हुई थी, संभवतः दुनिया में सबसे पुरानी गुप्तचर संस्था है जो वर्तमान में भी चल रही है.
देश की स्वतंत्रता के समय (1947) जो सेन्ट्रल इंटेलिजेंस ब्यूरो था, उसे ही कुछ आवश्यक संशोधनों के साथ इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के रूप में बरकरार रखा गया. देश के बंटवारे के बाद बची हुई मिलिटरी की इंटेलिजेंस यूनिट को कामचलाऊ परिवर्तनों के साथ चालू रखा गया. यही नहीं राज्यों के पुलिस की इंटेलिजेंस यूनिट को भी बरकरार रखा गया.
1951 में हिम्मत सिंघजी समिति ने सुझाव दिया कि राष्ट्र की सुरक्षा के आतंरिक मामलों के साथ-साथ आईबी बाहरी मामलों को भी देखे. पचास के दशक में जब पूर्वोत्तर भारत में आतंकवाद (इंसरजेंसी) बेकाबू होने लगी तो आईबी ने नागालैंड और मणिपुर में सब्सिडियरी इंटेलिजेंस ब्यूरो (एसआईबी) की शाखाएं स्थापित की और सेना तथा स्टेट इंटेलिजेंस की मदद से स्थिति को सामान्य करने में अभूतपूर्व योगदान दिया.
शुरुआती सालों में आईबी आतंरिक और बाह्य दोनों सुरक्षा के मामलों को देखती रही, किन्तु 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद सिक्यूरिटी सेट-अप में व्यापक परिवर्तन किये गये. इलेक्ट्रॉनिक इंटेलिजेंस (ELINT) और एयरस्पेस से प्राप्त इमेजरी इंटेलिजेंस की आवश्यकता को देखते हुए, डायरेक्टरेट जनरल ऑफ़ सिक्यूरिटी (DGS) के अंतर्गत एविएशन रिसर्च सेंटर (ARC) की स्थापना की गयी जिसका नियंत्रण एवं प्रभार डायरेक्टर ऑफ़ इंटेलिजेंस ब्यूरो (DIB) के हाथ में दिया गया.
सितम्बर 1968 में आईबी का बंटवारा हो गया. आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था आईबी के पास रह गया, जबकि बाह्य गुप्तचर का कार्य नवसृजित रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रा) को दे दिया गया. DGS और ARC भी रॉ के हिस्से में चले गये. जॉइंट इंटेलिजेंस कमिटी को भी आतंरिक और बाह्य के आधार पर दो फाड़ कर दिया गया, यद्यपि बाद में आतंकवादी गतिविधियों को ठीक से नियंत्रित करने के लिए जॉइंट इंटेलिजेंस कमिटी को फिर से एक कर दिया गया. रॉ सीधे प्रधानमंत्री के नियन्त्रण में रखा गया. अतएव यह PMO के अंतर्गत आ गया और कैबिनेट सेक्रेटेरिएट का हिस्सा बन गया.
आपात्काल समाप्त होने के बाद जब 1977 में केंद्र में मोरारजी देसाई की गवर्नमेंट आई तो आईबी और सीबीआई के तथाकथित दुरूपयोग की जांच के लिए एल पी सिंह समिति बैठाई गयी. इस समिति ने आईबी के कार्यों के चार्टर और विधिक प्रारूप की विस्तृत रूपरेखा तैयार की,
किन्तु तब तक केंद्र सरकार बदल गयी और वी पी सिंह की नयी सरकार ने इस मामले को देखने के लिए नेशनल सिक्यूरिटी कौंसिल (NSC) की स्थापना की. बाद की सरकारों की अनमनस्कता की वजह से NSC काम शुरू भी न कर पाई थी कि इसका नाम बदल कर कैबिनेट कमिटी फॉर सिक्यूरिटी (Cabinet Commiittee for Security/CCS) कर दिया गया.
बाद में अप्रैल 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने के सी पन्त की अध्यक्षता में एक टास्क फोर्स की स्थापना की. इस टास्क फोर्स ने NSC की अवधारणा को फिर से शुरू किया. NSC का एक सेक्रेटेरिएट भी विकसित किया गया. यही सेट-अप कमोवेश परिवर्तनों के साथ आज भी चल रहा है.
1980 के दशक के पूर्वार्ध में आईबी के मझोले दर्जे के गैर-आइपीएस अधिकारियों और कर्मचारियों ने तथाकथित शोषण के विरुद्ध ‘इंटेलिजेंस ब्यूरो एसोसिएशन’ (आईबीए) नामक एक संगठन बनाया और जबरदस्त आन्दोलन छेड़ दिया. ऐसा आन्दोलन किसी इंटेलिजेंस एजेंसी की कार्य संस्कृति के बिलकुल विपरीत होता है और वास्तविक ऑपरेटिव्स के आन्दोलन पर चले जाने से कोई भी इंटेलिजेंस आर्गेनाईजेशन एकदम पंगु हो सकता है. अतः बहुत कठोरता से इस आन्दोलन को दबाया गया.
1985 में राजीव गाँधी की सरकार ने संसद में संविधान के अनुच्छेद 33 में संशोधन करा कर इस प्रकार के आंदोलनों पर रोक लगाने के लिए इंटेलिजेंस आर्गेनाईजेशनस (रेस्ट्रीक्सन ऑफ़ राइट्स) एक्ट, 1985 बनवाया. इस कानून के तहत आईबी सहित सभी इंटेलिजेंस एजेसियों को संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों के मामले में सशस्त्र सेनाओं के समकक्ष बना दिया गया.
इसका प्रभाव यह हुआ कि आईबी और रॉ के कर्मचारियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित कई मौलिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया. इस प्रकार, अँधेरे में रहने को मजबूर गुप्तचर अधिकारियों के लिए अँधेरा और गहरा गया.
संदर्भ –स्त्रोत
[i] सहस्र्धारे·व ते समस्वरन्दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चत:
अस्य स्पशो न नि मिषन्ति भूर्णयः पदेपदे पाशिन: सन्ति सेतवः
ऋग्वेद 9.73.4
[ii] बृहन्नेषामाधिष्ठाता अन्तिकादिव पश्यति
य स्तायन्मन्यते चरन्तसर्वं देवा इदं विदु: -1
यस्तिष्ठति चरति यश्च वन्चति यो निलायं चरति य: प्रतन्कम
द्वौ सन्निषद्य यन्मंत्रयेते राजा तद् वेद वरुणस्तृतीय: – 2
उतेयं भूमिर्वरुणस्य राज्ञ उतासौ द्यौर्ब्रीहती दूरेअन्ता
उतो समुद्रौ वरुणस्य कुक्षी उतास्मिन्नल्पं उदके निलीनः – 3
उत यो द्यामतिसर्पात परस्तान्न स मुच्यातै वरुणस्य राज्ञः
दिव स्पशः प्र चरन्तीदमस्य सहस्राक्षा अति पश्यन्ति भूमिम् – 4
सर्वं तद् राजा वरुणो विचष्टे यदन्तरा रोदसी यद् परस्तात्
संख्याता अस्य निमिषो जनानामिवक्षानिवश्वघ्नी नि मिनोति तानि – 5
ये नो पाशा वरुण सप्तसप्त त्रेधा तिष्ठन्ति विषिता रुशन्तः
छिनन्तु सर्वे अनृतं वदन्तं यः सत्यवाद्यति तं सृजन्तु – 6
शतेन पाशैरभि धेहि वरुन वरुनैनम मा ते मोच्यनृतवांग नृचक्ष:
आस्तां जाल्म उदरं श्रंसयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमान: – 7
यः सामाम्योsवरुणो यो व्याम्योsय: सन्देश्योsवरुणो यो विदेश्यः
यो दैवो वरुणो यश्च मानुष: – 8
तैस्त्वा सर्वैरभिष्यामि पाशैरसावामुष्यायणामुष्या: पुत्र
तानु ते सर्वाननुसन्दिशामि – 9
- अथर्ववेद कांड 4, सूक्त
(हिन्दी पद्यानुवाद मोतीलाल बनारसीदास द्वारा प्रकाशित ‘प्राचीन भारती
[iii] काच्चिदष्टा दश्न्येषु स्वपक्षे दश पंचन:
तिमिरिस्त्राभिरवि ज्ञातै वैत्सि तीर्थनिचारणे:
रामायण, अयोध्याकाण्ड
[iv] अयुक्ताचारमं मन्थेत्वां म्राकृतै: सचिवैयुर्त:
स्वजनं च जनस्थानं निहतं नावबुध्यसे
रामायण, युद्धकाण्ड
[v] अयुक्ताचारमं दुदर्शमस्वाधीनं नराधिपम
बर्जयन्ति नरा दरान्नदीपंकमिव भिवा:
रामायण, युद्धकाण्ड
[vi] चारेण विदितः शत्रु: पंडित तैर्व सुधाधियै:
युद्धे स्वत्येन यत्नेन समासादय निरस्यते
रामायण, युद्धकाण्ड
[vii] परिचारकाः रसदाः कुब्जवामनकिरातमूकबधिरजडान्धच्छद्मानः
नटनर्तकगायकवादकवाग्जीवनकुशीलवाः स्त्रियाश्चाभ्यांतरं चारं विद्यु:
कौटिल्य, अर्थशास्त्र
[viii] यथार्हवर्णः प्रणिधिरपसर्वश्चरः स्पशः
चारश्च गूढपुरुषः …….
[ix] दूत सम्प्रेषणम चैव कार्यशेषम तथैव च.
अन्तःपुरप्रचारम च प्रणिधीनां च चेष्टितम.
मनुस्मृति – 7
[x] शत्रुप्रजा भृत्यवृत्तं विज्ञातुम कुश्लाश्च ये.
ते गूढाचाराः कर्त्तव्या यथार्थश्रुत बोधकाः.
शुक्रनीति, अध्याय 2
[xi] क्रियासु युक्तैर्नृप चारचक्षुषो न वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः ।
अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।।
-किरातार्जुनीयम 1.4
[xii] तदाशु कर्तुं त्वयि जिह्ममुद्यते विधीयतां तत्र विधेयमुत्तरम् ।
परप्रणीतानि वचांसि चिन्वतां प्रवृत्तिसाराः खलु मादृशां धियः ।।
किरातार्जुनीयम, 1-25
[xiii] अनुत्सूत्रपद्न्यासा सदवृति: सन्निबन्धना ।
शब्दविद्यैव नो भाति राजनीतिरपस्पशा ।।
शिशुपालवधम
अवकाश प्राप्त सरकारी अधिकारी और चाणक्य के जासूस,महाब्राह्मण, काशी कथा, प्रेम लहरी किताबों के लेखक