जब रख्माबाई ने किया बचपन की शादी को मानने से इंकार
[भारत की पहली बहुजन महिला चिकित्सक रख्माबाई के जीवन-संघर्ष से जुड़ी यह रोचक और प्रेरणादायक कहानी]
भारत का पहला केस जब स्त्री-पुरुष के बीच सम्बन्ध के लिए ‘कंसेंट’ का सवाल उठा
साल 1884 था। जगह थी ब्रिटिश भारत की एक अदालत। एक बहुजन स्त्री को उसका पति वहाँ तक इसलिए घसीट लाया था कि उसने बचपन में हुए विवाह से और पति के घर जाने से इसलिए इनकार कर दिया था क्योंकि विवाह उसकी मर्ज़ी से नहीं हुआ था। उसका कहना था कि जिस छोटी आयु में उसका विवाह हुआ वह ‘कंसेंट’ देने की अवस्था में नहीं थी और इसलिए इस विवाह को मानने के लिए राज़ी नहीं थी।
क्या था मामला?
रख्माबाई का विवाह 11 की अवस्था में हो गया था लेकिन वह उसके साथ नहीं रहना चाहती थी। उसका साफ़ कहना था कि इस विवाह में मेरी सहमति नहीं ली गई थी। इसलिए ऐसे पुरुष के साथ विवाह की पुनर्स्थापना का कोई मामला ही नहीं बनता जिसके पास मैं कभी विवाह के बाद गई ही नहीं, पति-पत्नी का हमारा कोई सम्बन्ध कभी स्थापित ही नहीं हुआ। भारत में ‘कंसेंट’को लेकर शायद यह सबसे पहला क़ानूनी मामला था। अब तक किसी स्त्री ने ऐसा ‘दुस्साहस’ नहीं किया था। उसने यह भी कहा कि ऐसा करने के बदले वह कोई भी सज़ा भुगतने के लिए तैयार है।
पहली बार तो जज मिस्टर पिनी ने रख्माबाई के पक्ष में फ़ैसला दे दिया और कहा कि रख्माबाई को अपनी इच्छा के विरुद्ध उस व्यक्ति के साथ रहने को मजबूर नहीं किया जा सकता। पति अदालत में ढेरों झूठे सबूत दे रहा था और ग़लत-सलत दलीलें दे रहा था तब जज साहब मिस्टर पिनी ने कहा- जब वादी को पता चल गया है कि यह युवती उसके साथ गृहस्थी नहीं बसाना चाहती तो उसे किसी घोड़े या बैल की तरह हासिल करने की कोशिश ही नहीं करनी चाहिए थी।
आसान नहीं था रूढ़िवादी समाज से टकराना:
अपनी देह और अपनी अस्मिता के लिए रख्माबाई को लगभग 5 साल यह क़ानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी।
स्त्री शिक्षा और अधिकारों की प्रबल पैरोकार पंडिता रमाबाई ने इस बारे में लिखा-
इस निर्णय के बाद रुख्माबाई को सबक सिखाने के लिए ‘पूरे भारत के दक़ियानूसी लोग’ ऐसे खड़े हो गए मानों वे सब एक पुरुष हों और एकसाथ उन्होंने उस असहाय स्त्री और महज़ मुट्ठीभर साथियों को सबक सिखाने के लिए कमर कस ली, लेकिन बात यहाँ ख़त्म नहीं हुई। पति ने हार नहीं मानी। वह आगे भी लड़ा। रूढ़िवादी लोग उसके पति का साथ दे रहे थे, उसके केस लड़ने का पैसा भी सम्भवत: जुटा रहे थे।
रख्माबाई के पति ने इसके लिए बम्बई उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था। ऐसे में कमज़ोर पड़ने की जगह वह और कृत-संकल्प हुई और डटी रही।
उसके सामने दो ताक़तें थी- एक ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और दूसरी अदालत में बैठी औपनिवेशिक पितृसत्ता का प्रतिनिधि जज।
एक सीमा के बाद अदालत भी हिंदू रूढ़िवादियों के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती थी।
एक अखबार हिंदी प्रदीप ने यह तक लिख दिया कि अब शासकों को यह बात खुलकर स्वीकार कर लेनी चाहिए कि वे हिंदुओं का यूरोपीयकरण करने और उनके धर्म को मिटा देने पर तुल गए हैं। और फिर, दूसरी बार रख्माबाई को क़सूरवार माना गया लेकिन उसे जेल भेजा जाए या नहीं इसपर जद्दोजहद होती रही।
भगोड़ी पत्नियों का कोई तो इलाज किया जाए :
बम्बई में प्रभावशाली भारतीयों और यूरोपियों ने रख्माबाई बचाव समिति बनाई क्योंकि रख्माबाई को जेल भेजे जाने की बहस ज़ोर पकड़ रही थी।
समिति चाहती थी कि न रख्माबाई जेल जाए न ही हिंदू विवाह संस्था पर कोई आँच आए कि उसे तोड़ना एक स्त्री के लिए इतना आसान है! लेकिन इस समिति ने भी हिंदू विवाह के लिए रूढ़िवादियों के समक्ष जो दलीलें दीं उसने रख्माबाई के समर्थकों को भी शर्मिंदा किया।
उधर पत्नियों की मनमानी पर अंकुश लगाना भी ज़रूरी था क्योंकि रख्माबाई का केस नज़ीर बन सकता था। कोई भी लड़की बचपन में हुए विवाह के लिए बड़े होकर इनकार कर सकती थी। यह सिर्फ रूढ़िवादियों की नहीं, पंजाब में जज रहे और उस वक़्त असम के चीफ कमिश्नर फिजपेट्रिक की भी चिंता थी। बात न मानने वाली औरतों का क्या करें? वह इसका कोई इलाज करना चाहते थे।
स्त्रियाँ आमतौर पर सम्पत्ति की मालकिन नहीं थीं इसलिए एक ख़ूब सम्पत्ति वाली स्त्रियों पर कठोर बाध्यता आएगी जबकि सम्पत्तिहीन स्त्रियाँ इस मामले में बच जाएंगी। ऐसे में जेल की सज़ा बरकरार रखना ज़रूरी था।
बंगाल की सरकार ने भी माना कि जेल की सज़ा हिंदू भावना के विपरीत है। पंजाब की सरकार ने माना कि जेल का भय बात न मानने वाली पत्नियों को पति के पास लौटने के लिए मजबूर कर सकता है।
तो क्या हो? क्या विवाह का आधार ‘जेल जाने का भय’ हो सकता है?
कैसे सुलझा मामला:
रख्माबाई जयंतीबाई की बेटी थी जो उसके पहले पति जनार्दन पांडुरंग से पैदा हुई थी। जब रख्माबाई ढाई साल की थी पिता चल बसे और अपनी सम्पत्ति जयंतीबाई के नाम कर गए। जयंतीबाई ने एक सखाराम अर्जुन से विवाह किया जो सुतार (बढ़ई) जाति के थे और वहाँ विधवाओं के पुनर्विवाह की अनुमति थी।
सखाराम सुधारवादियों से मिलते-जुलते थे और उनके विचारों में कुछ प्रगतिशीलता यहीं से आई थी। उन्हें लगा था बड़ा होने तक दादाजी, कुछ पढ़-लिख लेगा लेकिन वह धीरे-धीरे भ्रष्ट होता गया।
इस विवाह से पहले ही अपनी सम्पत्ति जयंतीबाई ने बेटी रख्माबाई के नाम कर दी। दादाजी, यानी रख्माबाई के पति ने यह आरोप लगाया था कि रख्माबाई की माँ और नाना इस सबके पीछे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि पति के साथ रहने चली गई तो वह अपने स्वर्गवासी पिता जनार्दन पांडुरंग की सम्पत्ति पर अपने अधिकार का दावा करेगी।
इसी सब घाल-मेल के बीच इस ऐतिहासिक मुक़दमे का एक नाटकीय अंत हुआ। सभी ख़र्चों की संतोषजनक भरपाई के रूप में 2000 रुपए रख्माबाई से लेकर अदालत से बाहर समझौता किया।
औरत की मर्ज़ी का सवाल मामूली सवाल नहीं है:
एक औरत की ‘मर्ज़ी’ के सवाल से अगर ऐसी उथल-पुथल मच जाए कि लगे अब व्यवस्था धराशायी बस होने ही वाली है तो समझना चाहिए कि औरत की एजेंसी उसका ‘अभिकर्तृत्व’ ख़ारिज़ किया जाना असल में तमाम व्यवस्थाओं की नींव में है। सालों यह मुक़दमा अख़बारों में छाया रहा।
‘ए हिंदू लेडी’ के नाम से ख़ुद रख्माबाई ने दो लेख अखबारों में लिखे थे।
एक लेख में वह कहती है:
यदि इन महानुभावों की बात पर विश्वास किया जाए तो हम जैसे मैले-कुचैले पशुओं का एक झुंड भर हैं, जिन्हें ईश्वर ने सिर्फ पुरुषों की विशिष्ट सेवा करने और उनकी काम-वासना को शांत करने के लिए पैदा किया है, और पुरुषों को हमारे साथ मनमाना व्यवहार या दुर्व्यवहार करने का ईश्वरीय अधिकार प्राप्त है।…हमारे कानून-निर्माताओं की दृष्टि में पुरुष और स्त्रियाँ दो अलग मानव प्रजातियाँ हैं…
संदर्भ पुस्तक:
- रख्माबाई : स्त्री अधिकार और कानून, सुधीर चंद्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2012
- हिंदू स्त्री का जीवन, पंडिता रमाबाई, , अनु. शम्भु जोशी ,सम्वाद प्रकाशन, 2006
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।