Farmers' MovementsSocial History

विदर्भ : जब पिता और पुत्र एक साथ चढ़ गए फाँसी पर

[विदर्भ हमारे समकालीन इतिहास का एक दर्दनाक पन्ना है जिस पर किसानों की आत्महत्याओं की अनगिनत कहानियाँ लिखी हैं। युवा पत्रकार देवेश के इस कॉलम में आप इन्हीं क़िस्सों की कुछ बानगियाँ पाएंगे।]

Photograph By Devesh

एक ही रस्सी से फांसी लगाने वाले किसान बापबेटे को आप डरपोक कहेंगे?

 

किसान आत्महत्याओं की बात होती है, तो यह तथ्य के रूप में सामने आता है कि विदर्भ और विदर्भ का यवतमाल ज़िला सबसे ज़्यादा आत्महत्याओं की ज़द में रहा है.

मान्यता है कि यवतमाल के कलंब गांव में ऋषि गुत्समद ने कपास की खोज की थी. मतलब कि जिस ज़िले ने पूरी दुनिया को कपड़ा दिया, जिस ज़िले को ‘सफ़ेद सोने का शहर’ कहा जाता है, उसी ज़िले के किसानों के पास पहनने को कपड़ा नहीं है.

साल 2016 में 23 अगस्त के दिन आर्णी तालुका के शेलू गांव में काशीराम मुधोलकर(55 वर्ष) ने बेटे अनिल(20) के साथ एक पेड़ से फांसी लगाकर जान दे दी थी. 

शेलू गाँव में लगभग 500 परिवार रहते हैं. पिछले एक दशक में 65% से ज़्यादा किसान डिफ़ाल्टर हो चुके हैं और विगत 10 सालों में 20 से ज़्यादा आत्महत्याएं हो चुकी हैं.

 

काशीराम क़र्ज़ में डूबे हुए थे. अनिल के मस्तिष्क ज्वर के इलाज में और भी क़र्ज़ा चढ़ गया था. अनिल पिता को क़र्ज़ की वजह से परेशान देखकर अवसाद में रहता था. लेकिन, दोनों के बीच दोस्तों जैसे रिश्ते थे. 9 बच्चों के पिता काशीराम, चौथे नंबर की संतान अनिल से बहुत प्रेम करते थे और उससे ही मन की सारी बातें साझा करते थे.

एक समय ऐसा आया कि दोनों हंसी-मज़ाक़ में आत्महत्या की बातें करने लगे. लगभग एक महीने तक ऐसा दौर चला जब दोनों एक-दूसरे से कहते कि चलो यार, आज आत्महत्या कर लेते हैं. ऐसा कहकर दोनों हंस पड़ते थे. गांववालों के साथ-साथ, उनके घरवालों को भी लगा कि शायद ये बात सिर्फ़ हंसी-मज़ाक़ तक सीमित है.

लेकिन, ऐसा था नहीं. 23 अगस्त 2016 की दोपहर को 3 बजे दोनों ने एक ही रस्सी के सिरों को अपने-अपने गले में बांधा और आत्महत्या कर ली. (तस्वीर में पिता-पुत्र)

 

इस आत्महत्या की रिपोर्ट में अनिल को मानसिक रूप से बीमार बताया गया था. यह अलग बात है कि मस्तिष्क ज्वर होने का मतलब मानसिक रूप से बीमार होना नहीं होता है. आत्महत्याओं को मान्यता देने से बचने के लिए सरकारें ऐसे हथकंडे अपनाती रहती हैं.

 

यवतमाल ज़िला इस बात का सबूत रहा है कि किसान आत्महत्या का मुद्दा सत्ता तक जाने का रास्ता ज़रूर बनता है, पर उसे हल करने की नीयत किसी की नहीं होती.

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