गाँधी की सविनय अवज्ञा के प्रेरणास्त्रोत – हेनरी डेविड थॉरो
कौन थे हेनरी डेविड थॉरो?
1840 के दशक में अमेरिका ने अपने पड़ोसी मेक्सिको पर हमला कर दिया और वहाँ का एक बड़ा इलाका अपने कब्जे में कर लिया। यह वह समय था जब जमीन और संसाधनों की अंधाधुंध तलाश में कई मूल निवासियों के बसेरे उजाड़े जा रहे थे। मेक्सिको में उस समय तक दास प्रथा का अंत हो चुका था लेकिन अफ्रीका से जबरदस्ती लाए गए काले लोगों और उनके वंशजों की मेहनत से ही अमेरिका में रुई और चीनी का कारोबार फल फूल रहा था। युद्ध के दौरान अमेरिकी फौज और नागरिकों ने बेतहाशा अत्याचार किए और मेक्सिको में खत्म हो गई गुलामी प्रथा को क़ब्जे वाले इलाकों में पुनर्जीवित कर दिया।
ज़ाहिर है यह युद्ध एक मजबूत राष्ट्र द्वारा कमज़ोर पड़ोसी के ऊपर हेठी जमाने की क़वायद थी और अमेरिका में कई समझदार इन्साफ़पसंद लोग इससे नाखुश थे। उनमें से एक थे हेनरी डेविड थॉरो (अंग्रेजी में इसे Thoreau लिखा जाता है किन्तु Thorough की तरह उच्चारा जाता है)। थॉरो के नाना के नाम अमेरिका में पहले छात्र आंदोलन को लीड करने की उपलब्धि है।
1817 को जन्मे थॉरो उन्नीसवी सदी में अमेरिका ही नहीं बल्कि विश्व के बड़े विचारकों में गिने गए हैं। उनका विश्वास सोचने की स्वतंत्रता व औद्योगिक क्रांति की आपाधापी से दूर प्रकृति के निकट जीवन जीने में था। लेकिन सबसे ज्यादा जाने गए उनके कामों में 1849 में छपा उनका लेख “Resistance to Civil Government” या “On the Duty of Civil Disobedience” था। कालांतर में इस लेख को इसके लघु रूप “Civil Disobedience” के नाम से जाना गया। इस लेख में थॉरो ने बड़ी शिद्दत से तर्क दिया है कि क्यों जनता को सरकार द्वारा अपने नाम पर अत्याचार करने की इजाजत उसे कतई नहीं देनी चाहिए और एक कमजोर देश पर हमले व दास प्रथा को बढ़ावा देने जैसे कदमों का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए। यही वह लेख है जिसने मोहनदास करमचंद गाँधी को प्रभावित किया व इसमें सुझाए गए विचार व तरीके दक्षिण अफ्रीका व भारत में साम्राज्यवाद और नस्लवाद के खिलाफ़ लड़ाई में एक व्यापक औज़ार बने।
मजेदार बात यह है कि अंग्रेजी के ‘Civil’ शब्द का जो अर्थ थॉरो ने सुझाया था वह नागरिकों द्वारा सरकार पर आँख मूँद भरोसा न करने से संबंधित था वहीं गाँधी के प्रयोग के बाद इसका हिन्दी अर्थ ‘सविनय अवज्ञा’ हुआ। अतः हम कह सकते हैं कि गाँधी ने थॉरो के सिद्धांत को महज ज्यों का त्यों अंगीकार न करके उसमें खुद की समझ भी जोड़ी।
थॉरो ने लेख के जरिए न सिर्फ़ दास प्रथा पर प्रहार किया बल्कि उन लोगों की समझ पर सवाल खड़ा किया जो इस घृणित प्रथा की सच्चाई जानते-समझते भी खामोश बैठे थे। अमेरिका के दक्षिणी राज्य तो गुलामों के खून-पसीने के बर्बर शोषण द्वारा ही समृद्ध हुए थे, किन्तु उत्तरी राज्य जहाँ गुलामी को हेय समझा जाता था, खुली आँख इस ज़ुल्म का बस तमाशा देख रहे थे। उधर मेक्सिको युद्ध और वहाँ गुलामी को बढ़ावा देने पर भी चुप्पीयां सधी हुईं थीं।
थॉरो लिखते हैं: हजारों ऐसे लोग हैं जो अपने मत में गुलामी व मेक्सिको युद्ध के खिलाफ़ हैं पर उसे रोकने के लिए वे कुछ भी नही करते
थॉरो ने सीधे तौर पर जनता से सरकार को ऐसे युद्ध के लिए कर न देने की अपील की चूंकि उनका मानना था कि अन्याय को किसी भी तरह की अप्रत्यक्ष मदद भी मानवता के प्रति अपराध है।
इस संदर्भ में उनकी एक प्रसिद्ध पंक्ति ऐसी सरकारों के खिलाफ़ नागरिक विरोध के संदर्भ में कहती है:
जिस सरकार में जेल की सजा अन्याय के लिए इस्तेमाल हो, एक न्यायप्रिय व्यक्ति की जगह जेल ही होगी।
थॉरो खुद कर चुकाने से मना के करने के कारण जेल यात्रा कर आए थे। उन्होंने इसे एक दिलचस्प व सीखने लायक अनुभव माना व कहा कि वे इतना सादा जीवन जीना चाहते हैं कि किसी भी ऐसे सरकारी कदम का उनपर कोई असर न पड़े। वे मानव कल्याण के लिए ऊंचे से ऊंचा टैक्स देने को तैयार थे पर नाइंसाफी के समर्थन में एक पाई भी नहीं। इस संदर्भ में 1942 में गाँधी द्वारा दिया नारा “न देंगे एक पाई न देंगे एक भाई” प्रासंगिक है, जहाँ अंग्रेज़ बिना स्वतंत्रता का वायदा किए भारत को एक और विश्वयुद्ध की आग में झोंक आए थे।
गांधी और हेनरी डेविड थॉरो
गांधी हेनरी डेविड थॉरो के इस लेख व अन्य रचनाओं एवं विचारों से प्रभावित थे। 1907 में दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल में चल रहे सत्याग्रह के दौरान उन्होंने ‘इंडियन अपिन्यन’ में कहा था कि थॉरो अमेरिका के सबसे महावतपूर्ण विचारक रहे हैं जो सीख देने से पहले खुद पालन करने के पक्षधर रहे हैं।
वे लिखते हैं: वे अपने सिद्धांतों व कराहती मानवता के लिए जेल भी जा आए थे। अतः उनका लेख उनके सहे कष्टों द्वारा पवित्र हो गया है।
थॉरो के लेख ने गांधी के अलावा मार्टिन लूथर किंग व अन्य महान वैश्विक हस्तियों पर भी छाप छोड़ी थी। हमें ध्यान रखना चाहिए कि जो बातें आज आम लगती हैं, उन्हें 1840 के अमेरिका में कहने के लिए अदम्य साहस की जरूरत थी जो उन्होंने दिखाया।
इसी अदम्य सहस की आवश्यकता गाँधी को भी थी चूँकि उस समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जडें इतनी गहरीं थीं कि कई भारतीय भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि ब्रिटिश राज अत्याचार और अन्याय का परिचायक है। हालाँकि मुझे थॉरो की सविनय अवज्ञा का विस्तार सिर्फ गाँधी द्वारा सरकारी दमन के विरोध में ही नहीं बल्कि समाज के भीतर व्याप्त जाति प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ लडाई में भी नजर आता है। हमें याद रखना होगा कि थॉरो ने ख़ुद अपनी सरकार का विरोध किया था, और अंग्रेजों के अन्याय का विरोध करने से पूर्व गाँधी को भीं ख़ुद के समाज के भीतर झांककर कुरीतियाँ दूर करने की ज़रूरत थी। इसीलिए सविनय अवज्ञा आत्मसुधार के बिना अधूरी है। दूसरा, थॉरो का कष्ट सहते जाने का सिद्धांत भी गाँधी के लिए अरुरी था इसीलिए वे सार्वजानिक जीवन में जेल जाने से नही डरे। तीसरा, थॉरो ने एक ऐसे अन्याय का विरोध किया जिससे वे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं थे। गाँधी चाहते तो अपनी वकालत जारी रख सकते थे, और चाहते तो हिटलर को शांति के लिए चिट्ठी लिखने की बजाय ख़ुद के देश तक सीमित रह सकते थे।
गाँधी के व्यक्तित्व का यह एक महत्वपूर्ण पक्ष है कि मानवता के लिए अपने संघर्ष में उन्होंने कोई संकीर्णता नहीं दिखाई बल्कि विश्व के तमाम चिंतकों-विचारकों के कहे को अंगीकार किया, निखारा एवं अंततः उनके बाद आए कई अन्य संघर्षकर्ताओं ने गाँधी के विचारों से सीखा। सीखने-सिखाने की इसी परंपरा ने विश्व को समृद्ध किया है।
मीडिया स्टडीज़ में शोध कर रहे अक्षत सामाजिक-राजनैतिक रूप से खूब सक्रिय हैं।