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#FactCheck स्वामी श्रद्धानंद की हत्या पर क्या महात्मा गांधी ने हत्यारे राशिद अली का साथ दिया था?

स्वामी श्रद्धानन्द  की हत्या 23 दिसम्बर 1926 को दिल्ली में हुई थी।  उसके बाद गाँधी जी का स्वामी श्रद्धानन्द जी के बारे में दिए गए समस्त भाषणों और चिट्ठियों की एक रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहे हैं दीपक जेठवा। साथ ही देख सकते हैं आप यह वीडियो।

स्वामी श्रद्धानन्द जी हत्या का समाचार लाला लाजपतराय जी को 23 दिसम्बर को कलकत्ता में प्राप्त हुआ था और अगले दिन ही उन्होंने यह स्तब्ध सुचना गांधीजी को प्रेषित की गांधीजी उस समय अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में भाग लेने के लिए गौहाटी के रास्ते में थे गांधीजी को लालजी का तार सोरभोग नाम के एक छोटे स्टेशन पर मिला था।  गांधीजी ने इस पर लाला लाजपत राय को एक तार भेजा था और लालाजी श्री एम आर  जयकर के साथ उसी रात कलकत्ता से दिल्ली के लिए रवाना हो गए।

कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी

लालाजी को भेजा हुआ तार :-
लाजपतराय को 24 दिसम्बर 1926

स्तब्धकारी समाचार मिला। आप दिल्ली जाकर उत्तेजना और रोष रोके।तार से विवरण भेजे।

उसके बाद गांधीजी ने एक और तार स्वामी श्रद्धानन्द जी के पुत्र इंद्र विद्यावाचस्पति को लिखा :-

इंद्र विद्यावाचस्पति को

24 दिसम्बर 1926

स्तब्ध कर देने वाला समाचार मिला। पिताजी को तो वीरगति प्राप्त हुई है

( हिंदी नवजीवन में 6 /1 /1927 को प्रकाशित )

कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी

गौहाटी में गांधी द्वारा  24 दिसम्बर को दिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में दिए भाषण के कुछ अंश देख सकते हैं

“लालाजी का तार मेरे पास पहुंचते ही तुरंत मैंने मालवीय जी वगैरह को खबर भेजी और लालाजी और स्वामीजी के सुपुत्र इंद्र को तार भेजा।  इस तार में दुःख या शोक प्रकट नहीं करके मैंने कहा कि  यह सामान्य मृत्यु नहीं है।  इस मृत्यु पर मै रो नहीं सकता।  अगर यह मृत्यु असहनीय है तो भी मेरा दिल शोक करने को नहीं कहता और कहता है कि यह मृत्यु हम सबको मिले तो कितना अच्छा हो।

स्वामी श्रद्धानन्द जी की दृष्टि से इस प्रसंग को धर्म प्रसंग कहेंगे , वे बीमार थे , मुझे तो कुछ खबर न थी , किन्तु एक मित्र ने खबर दी की स्वामीजी भाग्य से ही बच जाये तो बच जाये।  पीछे से मेरे तार के उत्तर में उनके लड़के का तार मिला की वे धीरे-धीरे ठीक हो रहे है।  इस प्रकार की गंभीर बीमारी में वे बिछौने पर पड़े थे और उस बिछौने पर ही उनके प्राण लिए गए।  मरना तो सबको है, किन्तु यो मरना किस काम का ? सारे हिंदुस्तान में और पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ हिंदुस्तानी लोग होंगे , वहा वहा स्वाभाविक बीमारी से ही स्वामीजी के मरने का जो असर होता उसकी अपेक्षा इस अपूर्व मरण से अजब ही असर होगा।  मैंने भाई इंद्र को सांत्वना का एक  तार भेजा  है।  उन्हें और कुछ दूसरा कह ही नहीं सकता।  इतना ही कह सकता हूँ कि आपके पिताजी को साधारण मृत्यु नहीं प्राप्त हुई है।

किन्तु यह सब बात तो मैंने स्वामीजी की दृष्टि से , मेरी अपनी दृष्टि से की है। मै अनेक बार कह चूका हूँ कि मेरे लिए हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एक है।  मै जन्म से हिन्दू हूँ और हिन्दू धर्म में ही मुझे शांति मिलती है।  जब जब मुझे अशांति हुई , हिन्दू धर्म में ही मुझे शांति मिली है।  मैंने दूसरे धर्मो का भी निरीक्षण किया है।   और इसमें चाहे जितनी कमियां या त्रुटियां हो तो भी मेरे लिए हिन्दू धर्म उत्तम है।  मुझे ऐसा ही लगता है कि इसी से मै अपने आपको सनातनी हिन्दू मानता हूँ।  कितने सनातनियो को मेरे इस दावे से दुःख होता है कि  “विलायत से आकर यह सुधरा हुआ आदमी हिन्दू कैसा ?” किन्तु मेरा हिन्दू होने का दावा इससे कुछ कम नहीं होता और यह धर्म मुझे कहता है की मै सबके साथ मित्रता से रहूँ ।  इसी से मुझे मुसलमानो की दृष्टि भी देखनी है| 

मुसलमानो की दृष्टि से जब इस बात का विचार करता हूँ तो मुझे दूसरी ही बात मालूम पड़ती है यह हत्या मुसलमान के हाथ से हुई।  धर्मचर्चा के बहाने घर में प्रवेश करके उसने यह कृत्य किया।  नौकर ने तो कहा , ” स्वामीजी बीमार है आज नहीं मिल सकते ” दरवाजे पर शोर हुआ।  स्वामीजी ने सुनकर कहा , ” अच्छा है आ जाने दो ” और स्वामीजी के उससे बात करने को न कहने पर भी उन्होंने बाते की . बात करने की उनमे ताक़त ही नहीं थी , स्वामीजी को तो उसे समझाकर विदा कर देना था , इसीलिए बुलाकर कहा , ” भाई अच्छे हो जाने पर तुम्हे जितनी बहस करनी हो कर  लेना , किन्तु आज तो बिछौने पर पड़ा हूँ “।

इस पर उसने पानी माँगा।  धरम सिंह को स्वामीजी ने आज्ञा दी , ” इनको पानी पिलाओ ” आज्ञाकारी नौकर पानी लेने जाता है तब तक तो उसने यह रिवॉल्वर निकाल ली। एक से संतोष नहीं हुआ तो दो गोली मार दी।  स्वामीजी ने उसी समय प्राण खो दिए।  धरमसिंह  उनकी आवाज सुनकर अपने मालिक को बचाने दौड़ा किन्तु बचावे कौन ? ईश्वर को स्वामीजी के शरीर की रक्षा नहीं करनी थी।  धरमसिंह के ऊपर भी वार हुआ।  उसे चोट लगी।  वह अस्पताल में है।  मारने वाला अब्दुल रशीद हिरासत में है।

ऐसे की गई इस हत्या से मुसलमानो के लिए हिन्दुओ में कैसा भाव आएगा , इसका मुझे बहुत दुःख है और इसमें भी शंका नहीं है की हिन्दू जनता को मुसलमानो के प्रति उल्टा ख्याल आएगा।  क्यूंकि आज दोनों जातियों में मुहब्बत नहीं है , विश्वास नहीं है।  दोनों जातियाँ जानती है की एक दिन तो मिलकर भाइयो के जैसा रहना ही है , किन्तु दोनों ही कमजोर होने के कारण एक दूसरे से लड़कर मजबूर होने और तब एकत्र होने की आशा रखते है।

इससे आज अखबारों में जो गन्दगी फ़ैल रही है , जो जहर पैदा हो रहा है , उसे देखकर यह कहना कठिन है कि इस कृत्य का क्या परिणाम होगा।  इसी से मै खामोश रहना चाहता था।  मेरे दिल में जो तूफान उछाल रहा है , उसे मै शांत नहीं कर सकता , दबा नहीं सकता और तुम्हारे आगे व्यक्त नहीं कर सकता।

श्रद्धानन्द जी और मेरे बीच कैसा सम्बन्ध था , यह तो आज मै यहाँ नहीं कहूंगा मेरे सामने वे अपने दिल की बातें कहा करते थे।  कोई 6 महीने हुए जब वे आश्रम में आये थे , तब कहते थे ,” मेरे पास धमकी के पत्र आते है।  लोग धमकी देते हैं कि तुम्हारी जान ले ली जाएगी।  पर मुझे उनकी कुछ परवाह नहीं।”  वह तो बहादुर आदमी थे।  इनसे बढ़कर बहादुर आदमी मैंने संसार में नहीं देखा।

मरने का उन्हें डर नहीं था , क्यूंकि वे सच्चे आस्तिक , ईश्वरवादी आदमी थे।  इसलिए उन्होंने कहा- ” मेरी जान अगर ले ली जाये तो उसमे होना ही क्या है।  यह खून हुआ तो इसमें आश्चर्य ही क्या  है ? एक से अधिक खून भी हो जाये तो भी आश्चर्य क्यों होना चाहिए ? आज तो एक मुसलमान ने एक हिन्दू का खून किया है , किन्तु अगर कोई हिन्दू किसी मुसलमान का खून करे तो भी आश्चर्य न हो।  ईश्वर करे ऐसा एक भी प्रसंग न आये।  किन्तु जब हम अपनी जबान और कलम पर काबू न रख सकेंगे तो और दूसरा परिणाम क्या होगा ? किन्तु मै इतना कहना चाहता हूँ कि अगर कोई हिन्दू इस खूनी की नक़ल करे तो वह हिन्दू धर्म को शर्मसार कर देगा।

मैंने तो कहा है कि  अज्ञानी लोग जो लड़ते है उसके बनिबस्त एक दूसरे को दुश्मन मानने वाले नेता ही लड़ लें तो कितना अच्छा हो।  किन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए की इन अज्ञान लोगो में से एक आदमी भी नेताओ में से किसी की जान ले। 

आज हम  ईश्वर से मांगे कि इस खून से सच्चा सबक लें।  मुसलमानो और हिन्दुओ की यह परीक्षा का समय है।  हिन्दू शांति रखे और इस खून का बदला लेने की इच्छा न रखे।  इस खून से यह न मान बैठे की अब हमारे और मुसलमानो के बीच दुश्मनी शुरू हो गयी है और अब हिन्दू मुस्लिम एकता असंभव है।  अगर ऐसा वे मान लेंगे तो वे भी गुनहगार होंगे और अपने धर्म को वे कलंक लगाएंगे।  मेरी मति के अनुसार तो एक भी मुसलमान अगर ऐसा मानता हो कि रशीद ने जो कुछ किया, ठीक ही किया तो ऐसा मानकर वह अपने धर्म को दाग लगाएगा।  मुसलमानो का यह धर्म नहीं है वह दूसरा ही है। 

26 दिसम्बर को गुआहाटी के कांग्रेस अधिवेशन में एक बार पुनः उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी की मृत्यु पर शोक प्रस्ताव पारित करते हुए कहा :-

भाइयो और बहनो

आपने गौर किया होगा कि जो प्रस्ताव मैंने अभी पेश किया है उसे पहले मौलाना मोहम्मद अली पेश करने वाले थे लेकिन उन्ही के कहने पर अब यह प्रस्ताव मै पेश करने के लिए उठा हूँ।

हमने अखबारों में देखा कि स्वामीजी की हत्या से देश भर में शोक और त्रास व्याप्त हो गया है।  मैंने पहले भी कहा है की स्वामीजी की मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए।  उन्हें तो एक सूरमा की मौत मिली है , ऐसी मृत्यु की कामना तो हममे से हर एक को ही हो सकती है। लेकिन मै अपने इस कथन पर एक सुधार करना चाहता हु।  ऐसी मौत तब आती है जब हर वीर पुरुष उसका स्वागत करता है।  वह उसका एक मित्र के रूप में स्वागत करता है।  लेकिन इस कारण हमें ऐसी मृत्यु को निमंत्रित नहीं करना चाहिए या उसके लिए लालायित नहीं होना चाहिए।  हम ऐसी इच्छा न रखे की कोई व्यक्ति गलत राह पर चलकर ईश्वर तथा मनुष्य के प्रति अपराध करे और हमें शहीद होने का गौरव प्राप्त हो।  किसी के पथभ्रष्ट होने की कामना करना गलत है।  हम सभी को बहादुर होना चाहिए ताकि शहीद की मौत मिले तो हम ख़ुशी से मर सके , लेकिन शहीद होने की कामना हमें नहीं करना चाहिए।

स्वामीजी सूरमाओ के सूरमा और वीरों के भी वीर थे।  उन्होंने निरंतर वीरतापूर्ण कार्यकलापों में लगे रहकर देश को अचंभित कर दिया था।  उन्होंने देश की वेदी पर अपने को बलिदान कर देने का जो संकल्प लिया था उसका मै साक्षी हूँ ।

लेकिन क्या स्वामीजी ने जो देश की सेवाएं की , उनके बारे में विस्तार से कुछ कहने की जरुरत है ? सभी लोग जानते है की स्वामीजी असहायों के सहायक थे , निर्बलों और दलितों के मित्र थे , और अस्पृश्यों के लिए उन्होंने जो काम किया , वह तो अनुपम है , मुझे भली प्रकार याद है कि  एक बार उन्होंने मुझसे कहा था की जब तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का प्रत्येक हिन्दू सदस्य अपने घर में एक अछूत को सहायक नहीं रखता तब तक अछूतो के उत्थान के लिए कांग्रेस जो काम कर रही है वह पूरा नहीं हो सकता।  यह बात अव्यावहारिक प्रतीत हो सकती है , लेकिन इससे अछूतो के प्रति इनके असीम प्रेम का परिचय मिलता है।

यहाँ मै उनकी अन्य बहुत सारी सेवाओं की चर्चा नहीं करूँगा।  स्वामीजी जैसे महान वीर राष्ट्रभक्त तथा ईश्वर के सेवक और भक्त की हत्या के प्रसंग को भी देशहित में प्रयुक्त किया जा सकता है।  लेकिन हम लोग चूँकि अपूर्ण पुरुष है , इसीलिए उनकी दुखद मृत्यु पर शोक करना स्वाभाविक है।  और जब इन  परिस्थितियों का विचार आता है जिनमे उनकी मृत्यु हुई तो हमारे मन में घृणा और आक्रोश उत्पन्न होना स्वाभाविक है।  हत्यारे ने स्वामीजी से इस्लाम पर  चर्चा करने के लिए भेंट करनी चाही।  स्वामीजी के स्वामिभक्त नौकर ने उसे अंदर जाने से मना कर दिया क्यूंकि उसे डॉ अंसारी का आदेश था कि जब तक स्वामीजी गंभीर रूप से बीमार है तब तक वह किसी को स्वामीजी से भेंट न करने दे।  लेकिन ईश्वर का आदेश कुछ और ही था।  स्वामीजी के कानो में जब हत्यारे का अनुरोध पड़ा तो उन्होंने धरमसिंह से उसे आने देने को कहा। भाई अब्दुल रशीद को अंदर आने दिया गया | मै उसे जानबूझकर भाई कह रहा हूँ  , और यदि हम सच्चे हिन्दू है तोआप समझ जायेंगे कि मै उसे भाई क्यों कहता हूँ।

स्वामीजी ने अपने नौकर से अब्दुल रशीद को अंदर आने को कहा , क्यूंकि ईश्वर स्वामीजी की महानता और हिन्दू धर्म की गरिमा दिखाना चाहता था।  स्वामीजी बहुत अस्वस्थ थे और धार्मिक प्रश्नो पर चर्चा करने की स्थिति में नहीं थे , इसीलिए उन्होंने उस अजनबी से फिर कभी आने को कहा।  लेकिन वह गया नहीं।  उसने कहा मै प्यासा हूँऔर पानी माँगा।  स्वामीजी ने धरमसिंह से पानी लाने को कहा , और धरमसिंह की अनुपस्थिति में अब्दुल रशीद ने स्वामीजी के सीने में पिस्तौल चला दी।

यह ऐसी घटना है जो भारत में नहीं घटनी चाहिए थी – उस भारत में जहाँ हिन्दू और मुसलमान , दोनों अपने धर्म पर गर्व करते है।  गीता को मै जिस श्रद्धा के साथ देखता हूँ , उसी श्रद्धा के साथ मैंने कुरान का भी अध्ययन किया है , और मै कहता हूँ कि कुरान में इस प्रकार की हत्या का आदेश या अनुमति नहीं दी गयी है।  इस हत्या के संभव होने का कारण यही है की दोनों जातियां एक दूसरे को घृणा और शत्रुता के भाव से देखती है।  बहुत से मुसलमानो को विश्वास है कि  लालाजी और मालवीय जी मुसलमानो के उतने ही घोर शत्रु है जितने की उनकी राय में स्वामीजी थे।  दूसरी ओर  , बहुत से हिन्दू है जो सर अब्दुर्रहीम तथा अन्य कुछ मुसलमान सज्जनो को हिन्दू धर्म का शत्रु मानते है।  मेरी राय में दोनों ही बिलकुल गलत है।

स्वामीजी इस्लाम के शत्रु नहीं थे, और न ही लालाजी और मालवीयजी ही हैं।  लालाजी और मालवीयजी को अपने विचार स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त करने का अधिकार है , और उनके विचारों से हम भले ही असहमत हो , लेकिन उनके विरुद्ध घृणा की भावना भड़काना उचित नहीं है।  फिर भी हम आज क्या देखते है ? मुसलमानो के 90 प्रतिशत अख़बार ऐसे हैं जो इन देशभक्तो के खिलाफ कटुतापूर्ण भाषा का इस्तेमाल करते हैं।  मै पूरी विनम्रता से पूछना चाहता हूँ कि  आखिर उन्होंने क्या गलती की है ? उनके काम करने के ढंग से हम असहमत हो सकते है लेकिन मुझे निश्चय है की मालवीयजी को जो भारतभूषण कहा जाता है, वह उनकी महान सेवाओं के कारण ही कहा जाता है।  लालाजी की सेवाओं का इतिहास भी महान है।

स्वामीजी अपने रक्त से लिखा गया एक मूल्यवान पथ हमें दे गए है।  क्या आपको आर्य समाज की उदारता का पता है ? एक बार उन्होंने मुझसे पूछा था।  क्या आप जानते है कि  महर्षि दयानन्द ने अपने को विष देने वाले मनुष्य को किस प्रकार क्षमा किया था ? मै यह बात जानता था।  जब मै जानता था कि महर्षि के सामने युधिष्ठिर का  उदाहरण और गीता तथा उपनिषदों की शिक्षा थी तब मै इससे अनभिज्ञ कैसे हो सकता था ? लेकिन श्रद्धानन्द जी ने महर्षि के प्रति अगाध अश्रुपूरित शब्दों में उनकी क्षमाशीलता का विवरण विस्तार से सुनाया |

मै आपको बताता हूँ  कि इस शिष्य में अपने महान गुरु की तुलना में क्षमाशीलता का यह गुण कम नहीं था।  शुद्धि के फलितार्थों के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने एक बार मुझसे कहा था की उनके शुद्धि आंदोलन में मुसलमान के प्रति कोई दुर्भाव नहीं है।  शुद्धि का अर्थ आत्मशुद्धि तथा महान हिन्दू जाति की शुद्धि है।  गीता का यह वचन कि  ” सभी प्राणियों में अपना ही स्वरुप देखो ”  उनका आदर्श था लेकिन उन्होंने इस बात पर ज़ोर  दिया कि  मुसलमान मेरे लेखे जितने घनिष्ठ है , हिन्दू उससे कम नहीं है और हिन्दुओ की सेवा करना मेरा कर्त्तव्य है।

भले ही सारा मुसलमान समाज मेरे विरुद्ध हो जाये लेकिन मै डंके की चोट पर कहूंगा की मालवीयजी मेरे घनिष्ठ मित्र हैं और बड़े भाई हैं।  इसी सांस में मै यह भी कहता हूँ कि कोई भी मुसलमान नेता हिन्दू धर्म का शत्रु नहीं है।  सर अब्दुर्रहीम हिन्दुओ के शत्रु नहीं है और न मियां हुसैन ही उनके शत्रु है।  मिलने पर उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया था कि  वे एक पुराने कांग्रेसी है | वे हिन्दुओ को मुसलमानो से कम प्यार नहीं करते , लेकिन एक मुसलमान होने के नाते वे मुसलमानो की सेवा करना चाहते है।  हम उनके विचारो से असहमत हो सकते हैं , मुसलमानो के लिए रखी उनकी मांग को हम नापसंद कर सकते है , लेकिन केवल इसी कारण हम उन्हें गाली नहीं दे सकते।  या उन्हें हिन्दुओ का शत्रु नहीं बता सकते।  हम सत्याग्रहियों की तरह उनका विरोध भले करे ठीक वैसे ही जैसे मै अनेक प्रश्नो पर मालवीयजी का विरोध करता हूँ इसीलिए मै जितने ज़ोर  से कह सकता हूँ उतना ज़ोर देकर कहता हूँ कि  अब्दुर्रहीम या श्री जिन्ना या अलीबंधु हिन्दुओ के शत्रु नहीं है।

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आप उन अखबारों का बहिष्कार करने में मदद दे जो घृणा भड़काते है और गलतफहमियां फैलाते है। मुझे पूरा यकीन है कि आज 90 प्रतिशत अख़बार बंद हो जायें तो भारत को कोई नुक़सान नहीं होगा। बहुत से मुसलमान अख़बार हिन्दुओ के खिलाफ घृणा फ़ैलाने के आधार पर चलते है और बहुत से हिन्दू अख़बार मुसलमानो के खिलाफ घृणा के बल पर चलते है

हमें स्वामी श्रद्धानन्द जी की मृत्यु से मिला सबक भुला नहीं देना है।  आप सब खड़े होकर अभी यह प्रस्ताव स्वीकार करेंगे , लेकिन इस समय भी शायद दिल्ली में हिन्दू मुस्लिम दंगे जारी है।  फिर भी मै आपसे यह कहना चाहता हूँ कि स्वामी श्रद्धानन्द जी जो पथ हमारे लिए छोड़ गए है उस पर हम अमल करे आप कहेंगे की यह एक पागल आदमी है जो बड़े बड़े वादे करने का आदी है।  लेकिन मै आपको कहना चाहता हूँ कि मै पागल नहीं हूँ ,मै अब भी अपने कार्यक्रम में उतनी ही ईमानदारी से विश्वास करता हूँ जितना कि 1920 में करता था। लेकिन जिन लोगो ने 1920 में प्रतिज्ञाएं लीं थीं उन्होंने प्रतिज्ञा तोड़ दी और उस समय स्वराज्य प्राप्ति को असंभव बना दिया।   

हम सब उस पिता की संतान है जिसे हिन्दू , मुसलमान तथा ईसाई  अलग-अलग नाम से जानते हैं।  शंकर ने ईश्वर में अपनी आस्था एकमेवाद्वितीय कहकर व्यक्त की रामानुजन ने उसी को द्वैतवाद में व्यक्त किया और मुहम्मद ने ला इल्लाह इल्लिल्लाह कहकर व्यक्त किया , किन्तु उससे फ़र्क़ क्या पड़ता है ? इन तीनो का तात्पर्य एक ही चीज़ से था।  अगर हम अपने दिलो को स्वच्छ बना लें तो देखेंगे कि  स्वामीजी ने मरकर भी हमारी उतनी ही सेवा की जैसी जीवित रहते हुए की।  आइये हम उनके खून से अपने हृदयों  को धो डाले और अगर ज़रूरत हो तो अपने अधिकारों के लिए शांति और सत्याग्रह के तरीक़ों से लड़े ।  हर मुसलमान भी यह समझ ले कि स्वामी श्रद्धानन्द जी मुसलमानो के शत्रु नहीं थे, उनका जीवन सर्वथा शुद्ध निष्कलंक था और वे हम सभी के लिए शांति का पथ अपने खून से लिखकर छोड़ गए है।

यह शोक करने का या आंसू बहाने का अवसर नहीं है।  यह एक अवसर है जब हमारे हृदय  में वीरता का अमिट पथ लिखा जानाचाहिए।  वीरता केवल क्षत्रियो का ही गुण नहीं है।  यह उनका विशेष गौरव जरूर हो सकती है।  लेकिन हमारी स्वराज्य की लड़ाई में ब्राम्हणो ,वैश्यों , और शुद्रो में भी वीरता उतनी ही ज़रूरी है जितनी कि  क्षत्रियो में।  इसीलिए हमें शोक के आंसू नहीं  बहाने चाहिए।  आइये हम भी उसी आग और विश्वास को अपने अंदर पैदा करे जो स्वामीजी में थी और उस आग से अपने दिलो को साफ़ करके उसे फौलाद की तरह मजबूत बनाये

इसके बाद पुनः 30/12/1926  के यंग इंडिया के अंक में उन्होंने एक लेख  “शहीद श्रद्धानन्दजी’  कहकर प्रकाशित किया

इसमें वह लिखते हैं

“जिसकी आशंका थी वही हुआ।  कोई 6 महीने हुए स्वामी श्रद्धानन्द जी साबरमती आश्रम में आकर दो तीन दिन ठहरे हुए थे।  बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा था कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आते है जिनमें  उन्हें मार डालने की धमकी दी जाती है।  ऐसा कौन सा सुधारक है, लोग जिनकी जान के प्यासे नहीं हुए है ? इसीलिए उनके लिए ऐसे पत्र पाने में अचम्भे की कोई बात नहीं थी और उनका मारा जाना कोई अनहोनी नहीं है।

स्वामीजी सुधारक थे।  वे कर्मवीर थे , वचनवीर नहीं।  जिस बात में उनका विश्वास था , वे उसका पालन करते थे।  उन विश्वासों के लिए उन्हें कष्ट झेलने पड़े।  वे वीरता के अवतार थे।  खतरे के सामने वे कभी कांपे नहीं।  वे योद्धा थे और योद्धा रोग शय्या पर नहीं मरना चाहता।  वह तो युद्ध भूमि में मरना चाहता है।

कोई एक महीना हुआ, स्वामी श्रद्धानन्द जी बहुत बीमार हुए।  डॉ अंसारी उनकी चिकित्सा करते थे।  जितने प्रेम से हो सकता था, अंसारी जी उनकी सेवा करते थे।  इस महीने के शुरू में मेरे पूछने पर उनके पुत्र इंद्र ने तार भेजा था कि  स्वामीजी अब अच्छे है और मेरे प्रेम तथा शुभकामनाओ के आकांक्षी है।  मैं तो उनके बिना मांगे ही उन्हें अपना प्रेम देता रहता था और भगवन से उनके लिए  प्रार्थना करता था।

भगवन को उन्हें शहीद की मौत देनी थी।  इसीलिए रोग शय्या पर रहते हुए ही वे उस हत्यारे के हाथ मारे गए जो इस्लाम पर धार्मिक चर्चा के नाम पर उनसे मिलना चाहता था।  उसे स्वामीजी की आज्ञा से अंदर आने दिया गया।  उसने प्यास मिटाने को पानी मांगने के बहाने स्वामीजी के ईमानदार नौकर को पानी लेने को बाहर भेज दिया , और फिर नौकर के चले जाने पर बिस्तर पर पड़े हुए रोगी की छाती में दो प्राणघातक चोटें की।  स्वामीजी के अंतिम शब्दों की हमें खबर नहीं।  फिर भी अगर मैं उन्हें थोड़ा भी पहचानता था तो मुझे इसमें बिलकुल संदेह नहीं है की उन्होंने परमात्मा से उस हत्यारे के लिए , जो यह नहीं जानता था कि वह कोई पाप कर रहा है , क्षमायाचना की होगी।  इसीलिए गीता की भाषा में वह योद्धा धन्य है जिसे ऐसी मृत्यु प्राप्त होती है।

मृत्यु तो हमेशा धन्य होती है, मगर उस योद्धा के लिए तो और भी अधिक जो अपने धर्म यानी सत्य के लिए मरता है।  मृत्यु कोई शैतान नहीं है।  वह तो हमें छुटकारा देती है।  वह हमें बराबर ही नई आशाये , नए अवसर प्रदान करती है।  वह नींद के सामान मीठी है , जो हमें फिर ताज़ा कर देती है।  किन्तु तो भी किसी मित्र के मरने पर शोक करने का रिवाज़ है।  लेकिन जब कोई शहीद मरता है तो यह रिवाज़ बेमानी हो जाते हैं। अतएव इस मृत्यु पर मैं शोक नहीं कर सकता।  स्वामीजी और उनके परिवार के लोग ईर्ष्या के पात्र है।  क्यूंकि श्रद्धानन्द जी मर जाने पर भी जी रहे है।  वह हमारे बीच अपने विशाल शरीर को लेकर घुमा करते थे , आज उससे भी अधिक सच्चे अर्थ में वह जी रहे है।  जिस कुल में उनका जन्म हुआ था ,, जिस जाति के वह थे , वे सभी उनकी ऐसी महिमामय मृत्यु के लिए बधाई के पात्र है वह वीर  पुरुष थे।  उन्होंने वीरगति पायी।

मगर इस घटना का एक दूसरा पहलू भी है।  मैं अपने आपको मुसलमानों का मित्र समझता हूँ।  वे मेरे सगे भाई है।  उनकी भूलें मेरी भूलें है।  उनके सुख से मैं सुखी और दुख से दुखी होता हूँ ।  किसी मुसलमान के पाप से मुझे उतना ही दुःख होता है जितना किसी हिन्दू के पाप से होता है।  एक नामधारी मुसलमान ने यह घोर निंदनीय कृत्य किया है ।  मुसलमानों के मित्र की हैसियत से मुझे इसका बहुत अधिक खेद है।  शहीद की मृत्यु होने वाली ख़ुशी कम इसीलिए हो गयी कि उसका कारण हमारा एक भटका हुआ भाई ही है।  इसीलिए शहादत की कामना कभी नहीं करनी चाहिए | वह तो आनंद की वस्तु तभी बनती है जब बिना बुलाये मृत्यु आये।  हम अपने छोटे से छोटे भाई की भूल पर भी न हँसे। 

मगर सच तो यह है कि जब तक कोई भूल भयंकर रूप धारण नहीं कर लेती उसे भूल माना ही नहीं जाता और जब तक उसकी यथेष्ट निंदा नहीं हो जाती तब तक उसका परिमार्जन नहीं होता।   इस दुखद कांड का राष्ट्रीय महत्त्व है ।  यह हमारा ध्यान उस बुराई की ओर खींचता है जो राष्ट्र के जीवन को ही नष्ट करता जा रहा है।  हिन्दू और मुसलमान दोनों को ही अपना कर्तव्य चुन लेना चाहिए हम दोनों ही इस समय पर कसौटी पर खड़े है।

क्रोध दिखलाकर हिन्दू अपने धर्म को कलंकित ही करेंगे और उस एकता को दूर कर देंगे जिसे एक दिन अवश्य आना है।  आत्मसंयम के द्वारा वे स्वयं को अपने उपनिषदों और धर्मराज युधिष्ठिर के योग्य सिद्ध कर सकते है।  एक व्यक्ति के पाप को हम सारी जाति का पाप न मान बैठे।  हम अपने मन में बदला लेने की भावना न रखें।  इसे हम एक हिन्दू के प्रति एक मुसलमान का पाप मानने के बदले एक वीर पुरुष के प्रति एक भूले भटके भाई की भूल मानें।

मुसलमानों को अग्नि परीक्षा से होकर निकलना पड़ेगा।  इसमें कोई शक़  नहीं कि छुरी और पिस्तौल चलाने में उनके हाथ ज़रूरत से ज्यादा साफ़ है।  तलवार वैसे इस्लाम का धर्म चिन्ह नहीं है मगर इस्लाम की पैदाइश ऐसी स्थिति में हुई जहाँ तलवार की तूती बोलती थी और अब भी बोलती है।  ईसा के सन्देश का भी कुछ असर नहीं पड़ा क्यूंकि उसे ग्रहण करने लायक वातावरण ही उपलब्ध नहीं हुआ।  पैग़म्बर के उपदेशो के साथ भी यही बात है।  

मुसलमानों को बात-बात पर तलवारें निकलने की आदत पड़ गयी है।  इस्लाम का अर्थ है शांति , अगर उसे अपने अर्थ के अनुसार बनना है तो तलवार म्यान में रखनी होगी।  यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूप से इस कृत्य का समर्थन ही करें।  यदि ऐसा हुआ तो यह उनके लिए और संसार के लिए दुर्भाग्य की बात होगी क्यूंकि आख़िरकार हमारी समस्या एक विश्व समस्या है।  ईश्वर पर विश्वास और तलवार पर विश्वास , इन दोनों चीज़ों में कोई समानता नहीं है।  मुसलमानों को सामूहिक रूप से इस हत्या की निंदा करनी चाहिए। 

मैं अब्दुल रशीद की ओर से भी कुछ कहना चाहता हूँ।  मैं उसे नहीं जानता।  मुझे इससे मतलब नहीं की उसने हत्या क्यों की।  दोष हमारा है।  अखबारवाले चलते-फिरते रोगाणु बन गए है।  वे झूठ और निंदा फैलाते हैं।  अपनी भाषा के गंदे से गंदे शब्दों का भंडार वे खाली कर देते हैं और पाठको के संशय रहित और प्रायः ग्रहणशील मनो में विकार के बीज बो देते है।  अपनी विषाणु सहित  बुद्धि के बल पर नेताओ ने अपने कलम और अपनी जुबान पर लगाम लगाना सीखा ही नहीं है।  गुप्त और छल कपटपूर्ण प्रचार अपना भयंकर काला काम बेरोक टोक करता रहता है।  इसीलिए यह तो हम शिक्षित और अर्धशिक्षित लोग ही है जो अब्दुल रशीद की मनोवृत्ति के लिए दोषी है।  

दो विरोधी दलों में किसका कितना दोष है , इसका निश्चय करना बेकार है।  जहाँ दोनों ही दोषी हो  वहाँ धर्मराज की तुला से दोषों का , न्याय अन्याय का ठीक-ठीक बंटवारा कौन कर सकता है ?  आत्मरक्षा के लिए झूठ बोलना या अतिश्योक्ति करना उचित नहीं है।

वैसे ऐसी आशा रखना तो बहुत बड़ी बात होगी , किन्तु स्वामीजी बहुत बड़े थे और इससे यह आशा बंधती है कि उनका लहू हमारा पाप धो देगा , और हमारे दिलो के मैल को साफ़ करके , मनुष्य जाति के दो बड़े समुदायों को एक कर देगा।

स्वामीजी को जैसा मैं जानता था , उसकी चर्चा मैं यंग इंडिया के अगले अंक में करूँगा।

इसके बाद 31/12/1926  को कलकत्ता की सार्वजनिक सभा में महात्मा गाँधी ने जनता को श्रद्धानन्द स्मारक के लिए धन जुटाने के लिए कहा।  इस सभा में दिए गए महात्मा गाँधी के भाषण के कुछ अंश नीचे दिए हैं जो 1/1/1927  को अमृतबाजार पत्रिका में छपे थे।

 

उपस्थित लोगो के सामने हिंदी में बोलते हुए महात्मा जी ने कहा कि  स्वामी श्रद्धानन्द जी जैसी मृत्यु मिलना कोई सरल नहीं है।  किसी साधारण मनुष्य को ऐसी मृत्यु नहीं मिलती। वीर पुरुष साधारण पुरुषो जैसी मृत्यु नहीं पाते ।  हिन्दू धर्म की खातिर अपने प्राण उत्सर्ग करने के कारण स्वामीजी अमर रहेंगे।  हम सब यहाँ स्वर्गीय स्वामीजी की स्मृति का तर्पण करने के लिए एकत्र हुए है।  एक स्मारक कोष खोला गया है।  मुझे आशा है कि हर आदमी इसमें अपनी सामर्थ्य के अनुसार चंदा देगा।  स्मारक कोष के लिए दस लाख रुपये जमा करने का विचार किया गया है इसमें से आधा रूपया अस्पृश्यता निवारण के कार्य में और शेष आधा रुपया शुद्धि और संगठन के ऊपर खर्च होगा।  स्वामीजी ने हिन्दू धर्म के लिए बहुत कुछ किया है।  वे प्रमुख धार्मिक कार्यकर्ताओ में से थे।  महात्माजी ने कहा अस्पृश्यता निवारण के प्रश्न पर मेरा स्वामीजी से कोई मतभेद नहीं था।  सच्ची बात तो यह है कि स्वर्गीय स्वामीजी अस्पृश्यों के लिए ही जिए।  और यदि आप उनकी स्मृति का उचित सम्मान करना चाहते है तो ऐसा आप स्वामीजीके जीवन अनुष्ठानो को अपनाकर ही कर सकते है।

शुद्धि और संगठन पर बोलते हुए महात्माजी ने कहा की स्वामीजी का अनुष्ठान उचित मार्ग पर आधारित था।  प्रत्येक धर्म को यह अधिकार है की वह लोगो को अपने केंद्र में ले और अपने को संगठित करे , लेकिन तभी तक जब तक इसका आधार पशुबल न हो।  स्वामी श्रद्धानन्द घृणा से धर्म परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे।  और मै यह भली-भांति दावा कर सकता हूँ क्यूंकि मैं स्वामीजी को भलीभांति जानता था।

 

(यह सभा बड़ाबाजार स्थित माहेश्वरी भवन में स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द को श्रद्धांजलि अर्पित करने और शुद्धि तथा संगठन के लिए धन एकत्रित करने के लिए हुई थी इस सभा में पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने भी भाषण दिया था )

इसके बाद पुनः 16/1/1927 को बापू यंग इंडिया में श्रद्धानन्दजी के बारे में लेख लिखते है।  जिसका शीर्षक वह “स्वामीजी के संस्मरण” के नाम से देते है।

 

स्वामीजी से मेरा पहला परिचय तब हुआ था जब वे महात्मा मुंशीराम के नाम से प्रसिद्ध थे।  वह परिचय भी पत्रों के जरिये हुआ था ।  उस समय वे कांगड़ी गुरुकुल के प्रधान थे।  गुरुकुल शिक्षा के क्षेत्र में उनका महान मौलिक योगदान है।  वे पश्चिम के रूढ़िवादी शिक्षा पद्धति से संतुष्ट नहीं थे।  अपने छात्रों में वे वैदिक शिक्षा का प्रचार करना चाहते थे और वे अंग्रेजी माध्यम से नहीं, हिंदी माध्यम से पढ़ाते थे।  वे चाहते थे कि अपने शिक्षा काल में विद्यार्थी ब्रम्हचर्य का पालन करे।  दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रहियों के लिए उस समय जो धन इकठ्ठा किया जा रहा था , उसमे चंदा देने के लिए उन्होंने लड़को को उत्साहित किया था।  वे चाहते थे कि लड़के खुद कुली बनकर मजदूरी करके चंदा दे क्यूंकि  दक्षिण अफ्रीका का वह युद्ध कुलियों का युद्ध ही था।  लड़को ने यह सब पूरा कर दिखाया और स्वयं कमाई हुई पूरी मजदूरी मेरे पास भेजी।  इस विषय में स्वामीजी ने मुझे जो पत्र भेजा था , वह हिंदी में था।  उन्होंने मुझे मेरे प्रिय भाई कहकर सम्बोधित किया था।  इस बात ने मुझे महात्मा मुंशीराम का प्रेमी बना दिया।  इससे पहले हम दोनों कभी नहीं मिले थे।

ऐंड्र्यूज हम लोगो के बीच के सूत्र थे। उनकि इच्छा थी कि जब कभी मै  देश लौटूँ , उनके तीनो मित्रो , – कवी ठाकुर , आचार्य रूद्र और महात्मा मुंशीराम से परिचय प्राप्त करूँ।

वह पत्र पाने के बाद हम दोनों एक ही सेना के सैनिक बन गए।  1915 में हम दोनों उनके प्रिय गुरुकुल में मिले और उसके बाद से हर मुलाक़ात में हम दोनों परस्पर निकट आ गए।  और एक दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह समझने लगे |  प्राचीन भारत , संस्कृत और हिंदी के प्रति उनका प्रेम असीम था।  बेशक , असहयोग के पैदा होने के बहुत पहले ही वे असहयोगी थे।  स्वराज्य के लिए वे अधीर थे।  अस्पृश्यता से वे नफरत करते थे और अस्पृश्यों कि स्थिति ऊँची करना चाहते थे।  अस्पृश्यों कि स्वाधीनता पर ज़रूरत बंधन उन्हें सह्य नहीं था।

जब रोलेट अधिनियम के विरुद्ध आंदोलन शुरू हुआ तो उस आंदोलन का स्वागत करनेवालों में वे सबसे पहले थे।  उन्होंने मुझे बहुत ही प्रेम से भरा एक पत्र भेजा।  किन्तु वीरमगाम और अमृतसर कांड के बाद सत्याग्रह का स्थगित किया जाना वे नहीं समझ सके।  उस समय से हमारे बीच मतभेद शुरू हुए किन्तु उनसे हमारे भाई-भाई के सम्बन्ध में कभी ज़रूरत अंतर नहीं पड़ा।  उस मतभेद से मुझ पर उनका बहुत सुलभ स्वभाव प्रकट हुआ।  परिणाम का विचार किये बिना ही वे जो सत्य समझते थे, कह देते थे।  वे अति साहसिक थे।  समय बीतने के साथ साथ मेरे सामने हम दोनों के स्वभाव का अंतर स्पष्ट होता गया किन्तु उससे तो उनकि आत्मा की शुद्धता ही सिद्ध हुई।  जैसा सोचना , वैसा ही कहना ज़रूरत दोष नहीं है।  यह तो एक गुण है।  यह तो सत्यप्रियता का सर्वप्रधान लक्षण है।  स्वामीजी मन कि बात स्पष्ट कहते थे।

बारडोली में किये गए निश्चय से उनका दिल टूट गया।  मेरी तरफ़ से वे निराश हो गए।  उनका प्रकट विरोध बहुत जबरदस्त था।  मेरे नाम उनके निजी पत्रों में और भी ज़ोरदार विरोध होता था।  किन्तु जितना ज़ोर दार उनका विरोध होता था उतना ही ज़ोर दार उनका प्रेम भी होता था।  अपने प्रेम का विश्वास केवल पत्रों में ही दिला देने से वे संतुष्ट न थे।  मौका मिलने पर उन्होंने मुझे ढूँढ़ निकाला और मुझे अपनी स्थिति समझायी और मेरी स्थिति समझने कि भी कोशिश की।  मगर मुझे मालूम होता है कि मुझे ढूंढ़ निकालने का असली कारण यह था कि वे मुझे विश्वास दिला सकें कि एक छोटे भाई के सामान मुझपर उनकि प्रीति जैसी कि तैसी बनी हुयी है – हालाँकि यह विश्वास दिलाने कि ज़रूरत जरुरत थी !

आर्य समाज और उसके संस्थापक के सम्बन्ध में मेरे कथनो से और स्वयं उनके बारे में मेरी उक्तियों से उन्हें बहुत गहरी ठेस लगी , परन्तु हमारी मित्रता में इस धक्के को सह लेने कि शक्ति थी।  वे समझ नहीं पाते थे कि महर्षि के विषय में मेरी सामान्य धारणा और अपने व्यक्तिगत शत्रुओ के प्रति ऋषि कि असीम क्षमा का एक साथ मेल कैसे बैठ सकता है ।  महर्षि में उनकि इतनी अधिक श्रद्धा थी कि उन पर या उनकि शिक्षाओं पर ज़रूरत भी टिका वे सहन नहीं कर सकते थे।

शुद्धि आंदोलन के लिए मुसलमानो के पत्रों में उनकी बड़ी कड़ी आलोचना और निंदा की गयी है।  स्वयं मै उनके दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं कर सका था।  अब भी मै उसे स्वीकार नहीं करता। किन्तु मेरी राय में उनके दृष्टिकोण से उनकि स्थिति पूरी तरह अभेद्य थी।  जब तक शुद्धि और तब्लीग नैतिकता और वैधता की  मर्यादा के भीतर रहे , तब तक दोनों ही बराबर छूट के अधिकारी है।  लेकिन यह अवसर इस अत्यंत विवादग्रस्त विषय पर विचार करने का नहीं है।  तब्लीग में और शुद्धि में, जो उसका जवाब है , आमूल परिवर्तन करना होगा।  संसार के धर्मो के उदार अध्ययन में उन्नत्ति  होने के साथ साथ शुद्धि या धर्म प्रचार का वर्तमान बेढंगा तरीका , जो तत्व से अधिक रूप पर ही ध्यान देता है , निश्चय ही बिलकुल बदल जायेगा।  यह तरीका तो एक डाल की अधीनता को छोड़ कर दूसरे डाल में जा मिलना है और एक दूसरे के धर्म को गाली देना है।  इसी से परस्पर घृणा फैलती है।

अगर हम हिन्दू और मुसलमान दोनों , शुद्धि का आंतरिक अर्थ समझ सके तो स्वामीजी की मृत्यु से भी लाभ उठाया जा सकता है।

एक महान सुधारक के जीवन के संस्मरणों को मै सत्याग्रहाश्रम में उनके कुछ ही महीनो पहले के आखिरी आगमन की बात की चर्चा किये बिना ख़त्म नहीं कर सकता।  मुसलमान मित्रो को मै विश्वास दिलाता हूँ कि वे मुसलमानो के दुश्मन नहीं थे।  वे बेशक कुछ मुसलमानो पर विश्वास नहीं करते थे।  किन्तु उन लोगो से उनको द्वेष नहीं था।  उनका ख्याल था कि हिन्दू दबा दिए गए है और उन्हें बहादुर बनकर अपनी और अपनी इज्जत कि रक्षा करने योग्य बनना चाहिए।  इस बारे में उन्होंने मुझसे कहा था कि मेरे विषय में बड़ी गलतफहमी फैली हुयी है।  मेरे विरुद्ध कही जाने वाली कई बातो में मै बिलकुल निर्दोष हूँ।  मेरे पास धमकी के कितने ही पत्र आया करते है।  मित्रगण उन्हें अकेले चलने से मना करते थे।  मगर यह परम आस्तिक पुरुष उनको यह जवाब दिया करता था।  ईश्वर की रक्षा के सिवाय मै और किसकी रक्षा का भरोसा करू ? उसकी आज्ञा के बिना एक तिनका भी नहीं हिलता। मै जानता हूँ कि जब तक इस देह के द्वारा वह मुझे सेवा लेना चाहता है , मेरा बाल भी बांका नहीं हो सकता।

आश्रम में रहते समय उन्होंने आश्रम की पाठशाला के लड़के-लड़कियों से बात की थी।  उनका कहना था कि हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी रक्षा आत्मशुद्धि से ही, भीतर से ही होगी।  चरित्र और शरीर के गठन के लिए वे ब्रम्हचर्य पर बहुत ज़ोर  देते थे।


इसके बाद 9  जनवरी 1927 को महात्मा जी ने बनारस में श्रद्धानन्द स्मृति सभा में एक संक्षिप्त भाषण दिया :-

महात्माजी ने कहा की आज बड़ा पवित्र दिन है और यह सभा भी बहुत अच्छे स्थान पर हो रही है जहा मंदिर और मस्जिद अगल-बगल में हैं।  कोई मुसलमान स्वामी श्रद्धानन्द जी को शत्रु समझता हो तो वह गलती करता है।  वे वीर पुरुष थे।  उनको वीर गति प्राप्त हुई।  वे धर्म और सत्य के अनुसार बड़े सा हस और वीरता से अपना काम करते रहे।

तो यह थी स्वामी श्रद्धानन्द जी के बारे में गांधीजी की राय और साथ ही इतने बर्षो से जो कुछ लोग सिर्फ यही कहकर गाँधी को अपशब्द कहते है कि  गाँधी ने स्वामीजी के हत्यारे को भाई कहा तो वे सब उन 5  पंक्ति में लिखे गाँधी जी के प्रति द्वेष को इस रिपोर्ट से तुलना कर लें, दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा।

स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के बाद गाँधी जी ने जब श्रद्धानन्द जी  के हत्यारे के प्रति अपना प्रेम दर्शाते हुए जब अब्दुल रशीद को भाई कहा तो अब वह लोगो को फूटे आँख नहीं सुहाता।  आज फेसबुक , ट्विटर , और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म में गांधीजी से अपना द्वेष प्रदर्शन करने के लिए आज सभी लालायित है। यूट्यूब में आपको सैकड़ो वीडियो मिलेंगे जिससे आपको गांधीजी जैसे महापुरुष से नफरत हो जाएगी | वह हर जगह गाँधी को कोसते है। सोशल मीडिया में कोई भड़काऊ पोस्ट सजा-धजाकर किसी ने शेयर कर दिया बस गाँधीजी को नापसंद करने वाले भद्दे-भद्दे कमेंट्स करने लग जाते है।  उनको न इतिहास का पता होता है और न वह सत्य जानने की कोशिश करते है वे सिर्फ उस 5 लाइन के भड़काऊ पोस्ट को या 10 मिनट की भड़काऊ वीडियो को ही सच मान लेते है और उस भड़काऊ पोस्ट या वीडियो को ही फिर सब जगह फॉरवर्ड करते रहते है।  वे  यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि हमने इन 5 पंक्ति को पढ़कर बहुत बड़ा ज्ञान प्राप्त कर लिया है।

उम्मीद है हमारे पाठक सच्चाई से परिचित होने के बाद ऐसे दुष्प्रचारों का जम कर  मुक़ाबला करेंगे।


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गांधी का सम्पूर्ण वांगमय यहाँ पढ़ा जा सकता है – Collected Works of Mahatma Gandhi

Deepak Jethwa

दीपक जबलपुर में रहते हैं। कॉमर्स के विद्यार्थी, इतिहास में रुचि।

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