अंडमान के भूले हुए वीर : #जिन्होंनेमाफ़ीनहींमांगी
[1857 के बाद जब विद्रोहियों से हिन्दुस्तानी जेलें भर गईं तो पहली बार क्रांतिकारियों को अंडमान भेजा गया। तब सेल्यूलर जेल नहीं बनी थी और इन्हें पोर्ट ब्लेयर में बैरकों में रखा जाता था।
इन्हीं में से कुछ ऐसे वीरों की कहानी #जिन्होंनेमाफ़ीनहींमांगी]
नारायण सिंह, निरंजन सिंह, भीमा नायक, मजनू शाह और लिआक़त अली
31 जुलाई 1857 को अंडमान भेजे गए पहले स्वाधीनता सेनानी दानापुर निवासी नारायण जेल पहुँचने के चौथे दिन भागने की कोशिश करते हुए पकड़े गए और अंडमान में फाँसी पर चढ़ने वाले पहले शहीद बने।
निरंजन सिंह जब पकड़े गए तो चौथे दिन खुद फाँसी लगा ली।
लिआक़त अली जैसे तमाम लोग जब 1857 के विद्रोह के दौरान गिरफ़्तार होकर अंडमान गए तो उनकी लाश भी लौटकर नहीं या पाई।
भील योद्धा भीमा नायक हों या फिर मजनू शाह, जिस 1857 पर किताब लिखी है सावरकर ने, उसके इन वीरों से सारे कष्ट सहे लेकिन न माफ़ी माँगी न झुके।[3]
यह सिलसिला थमा नहीं।
चाहे लॉर्ड मेयो की हत्या करने वाले शेर अली हों या फिर कूका विद्रोह के नामधारी सिख या सावरकर के नायक बासुदेव बलवंत फड़के, सबने किसी माफ़ीनामे की जगह मौत चुनी थी।
यह सीरीज चलती रहेगी।
स्रोत
द हीरोज ऑफ द सेल्यूलर जेल, एस एन अग्रवाल, रूपा –दिल्ली 2018 (तीसरा संस्करण)
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री