FeaturedFreedom MovementOthers

आज़ाद हिन्द फ़ौज के जनरल शाहनवाज़ खान : जिन्हें भूल गया वतन

चालीस करोड़ों की आवाज़ 

सहगल-ढिल्लन-शाहनवाज़

 

दिल्ली के लाल क़िले में जब आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के जाँबाज सिपाहियों पर अंग्रेज़ी हुकूमत मुक़दमा चला रही थी तो हिंदुस्तानियों का यह नारा उन वीरों के लिए सम्मान के साथ ही कौमी एकता का भी एक प्रतीक बन गया था जहाँ नेताजी की फ़ौज़ के हिन्दू, सिख और मुसलमान कमांडर एकसाथ खड़े थे कटघरे में। इन्हीं में से एक जनरल शाहनवाज़ खान की आज पुण्यतिथि है।

कौन थे शाहनवाज़ खान?

आज के पाकिस्तान के रावलपिंडी में शाहनवाज़ साहब का जन्म 24 जनवरी 1914 को फ़ौजियों के खानदान में हुआ था। इनके वालिद टिक्का खान साहब भी फ़ौज में थे और 1935 में 21 साल की उम्र में खानदानी रवायत निभाते हुए शाहनवाज़ भी ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए जहाँ इन्होंने कैप्टन की पदवी हासिल की।

दूसरे विश्वयुद्ध का दौर था। शाहनवाज़ साहब को सिंगापुर के मोर्चे पर भेजा गया जहाँ जंग जापान ने जीती और 40 हज़ार दूसरे सिपाहियों के साथ शाहनवाज़ भी गिरफ़्तार हो गए।

 

नेताजी से मुलाक़ात से बदली ज़िंदगी

तस्वीर यहाँ से साभार

इसी वक़्त नेताजी जर्मनी से जापान पहुंचे थे और आज़ाद हिन्द सेना बनाकर हिंदुस्तान को आज़ाद कराने के लिए जापान के साथ मिलकर लड़ने की कोशिश कर रहे थे। इस सेना में आमतौर पर वही फ़ौजी थे जो ब्रिटिश सेना में भर्ती हुए थे लेकिन युद्ध में गिरफ़्तार हो गए थे।

इसी सिलसिले में नेताजी से मुलाक़ात हुई शाहनवाज़ खान की। नेताजी की ईमानदारी और जुनून ने ब्रिटिश स्वामिभक्ति के माहौल में पले इस युवा की ज़िंदगी बदल दी और शाहनवाज़ आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाही हो गए। अपनी क़ाबिलियत से जल्दी ही वह दूसरी डिवीजन के कमांडर बना दिए गए और फिर 1944 में उन्हें मंडाले में फ़ौज का नेता बना दिया गया।

1945 में वह कोहिमा में अंग्रेज़ी सेना के खिलाफ लड़े और फिर बर्मा में गिरफ़्तार हो गए। अंग्रेज़ों ने कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रेम कुमार सहगल के साथ उनके ऊपर मुक़दमा चलाया तो पूरे देश में लोग उनके समर्थन में खड़े हो गए।

 

नेहरू ने बनाई ‘आई एन ए डिफेंस कमेटी’

इन जाँबाज़ सिपाहियों को मौत की सज़ा से बचाने के लिए जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस ने क़ानूनी सहायता के लिए ‘आई एन ए डिफेंस कमेटी‘ बनाई। इस कमेटी में भूलाभाई देसाई और आसफ़ अली खान जैसे बड़े नेता और वकील शामिल थे। वर्षों बाद नेहरू ने वकालत का चोगा पहना। उधर गांधी जी, सरदार पटेल और सरोजिनी नायडू सहित कांग्रेस के नेताओं ने देश भर में अभियान चलाया और जनदबाव के चलते सभी को रिहाई मिली।

रिहाई के बाद राजनीति में शामिल हुए

आज़ादी के बाद उन्हें लाल क़िले से ब्रिटिश झण्डा उतार कर तिरंगा फहराने का गौरव मिला और इस तरह उन्होंने नेताजी के ख्वाब की तामीर की।

शाहनवाज़ खान कांग्रेस में शामिल हो गए। पहली बार वह 1952 में मेरठ से सांसद चुने गए और फिर 1952 से 1971 तक लगातार चार बार वहाँ की अवाम ने उन्हें अपना सरपरस्त चुना। इस दौर में उन्होंने केंद्र सरकार में रेलवे, कृषि, श्रम तथा इस्पात मंत्रालय की जिम्मेदारियाँ भी संभाली।

1956 में जब जब नेताजी की मृत्यु की जांच के लिए कमेटी बनाई गई तो उन्हें इसका अध्यक्ष बनाया गया और उन्होंने बखूबी यह जांच पूरी करते हुए निष्कर्ष दिया कि नेताजी की मृत्यु उसी विमान हादसे में हुई थी। हालांकि उसके बाद भी विवाद चलते रहे।

संस्मरण

उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज के अपने संस्मरण भी लिखे हैं जो My Memories of I.N.A. and its Netaji के नाम से प्रकाशित हुए हैं और इसकी भूमिका जवाहरलाल नेहरू ने लिखी है।

1983 में दुनिया-ए-फ़ानी से विदा हुए जनरल साहब

लंबी उम्र जीकर 1983 में जब उन्होंने आखिरी साँस ली तो उसी लाल क़िले की छाँव में उन्हें दफनाया गया जहाँ कभी अंग्रेज़ों ने उन पर मुक़दमा चलाया था।

 

जनरल शाहनवाज मेमोरियल फाउंडेशन

2010 में उनके पोते आदिल शाहनवाज़ खान ने जनरल शाहनवाज मेमोरियल फाउंडेशन बनाया। इसमें उन्होंने जनरल साहब से जुड़े सैकड़ों दस्तावेज़ संभाल कर रखे हैं।

यह हर फाउंडेशन साल उनकी बरसी पर जामा मस्जिद के पास मजार पर आयोजन करता है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारें और लोग धीरे-धीरे देश के महान सपूत को भूलते गए हैं।

 

 

 

 

Ashok Kumar Pandey

मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री

Related Articles

Back to top button