जब सावरकर की तारीफ़ कर पछताए रासबिहारी बोस: पुण्यतिथि विशेष
रासबिहारी बोस ब्रिटिश शिकंजे से बचने के लिए 1915 में जापान चले गए और फिर वहीं रह गए। विदेशी धरती से भारत की आज़ादी के लिए कोशिशें करते हुए द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और फिर सुभाषचंद्र बोस जब जर्मनी से जापान पहुँचे तो उन्हें इसकी कमान सौंप दी थी।
धार्मिक मामलों में यों तो वह बहुत लिबरल थे और सभी धर्मों की बराबरी तथा सहअस्तित्व की बात करते थे लेकिन 1939-40 में सावरकर के पुनः सक्रिय होने के बाद गांधी की तीखी आलोचना करते हुए उन्होंने सावरकर को भारतीय राष्ट्रीय नायक ही नहीं कहा बल्कि 1935 तक के अपने सांप्रदायिकता विरोधी स्टैंड को किनारे कर भारतीय मुसलमानों को हिन्दू भी घोषित किया।
हिंदुओं की एकता ज़रूरी है
रासबिहारी बोस ने सुभाषचंद्र बोस को एक पत्र में लिखा था – हिंदुओं की एकता ज़रूरी है।
लेकिन यह पत्र ब्रिटिश सेना के हाथ लग गया था और सुभाष बाबू तक पहुँचा नहीं। इस पत्र में उन्होंने लिखा था कि भारत के मुसलमान भी हिन्दू ही हैं। जैसे जापान में रहने वाला हर व्यक्ति जापानी है वैसे ही भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है।
शायद उन्होंने अब तक सावरकर की किताब ‘हिन्दुत्व’ नहीं पढ़ी थी जो बाक़ी धर्मों के लोगों को हिन्दू तो छोड़िए, भारत का नागरिक मानने को भी तैयार नहीं थी।
सावरकर की तारीफ़
1939 में ‘ग्रेट एशियानिज़्म’ के मार्च और मई अंक में रासबिहारी बोस ने एक लेख लिखा – The Indian National Leader Savarkar. इस लेख में उन्होंने सावरकर की तारीफ़ की और उन्हें भारतीय आज़ादी की मशाल लेकर चलने वाला बताया।
मई में ही तोहो कोरोन नामक पत्रिका में उन्होंने लिखा
शुद्ध भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थन में खड़ी हिन्दू महासभा अपने चेयरमैन सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश-विरोधी स्वाधीनता आंदोलन के लिए उभर रही है, जो कांग्रेस की तुलना में अधिक प्रभावशाली है।
दिसंबर, 1938 में उन्होंने एक लेख में जापानी दूतावास को हिन्दू महासभा से हाथ मिलाने और उसके सहयोग की अपील की थी।
ग़लतफ़हमी टूट गई
असल में बोस न तो जेल में सावरकर के व्यवहार या उनके माफीनामों से परिचित लगते हैं न ही रिहा होने के बाद की उनकी गतिविधियों से। उनके मन में 1909 के क्रांतिकारी सावरकर की छवि रही होगी। देशी धरती पर बैठे वह देश की आज़ादी के लिए तड़प रहे थे। उन्हें लगा होगा कि अब एक क्रांतिकारी मुख्यधारा की राजनीति में आ गया है तो जापान उसकी मदद से देश को आज़ाद करवा सकता है। अपनी इसी व्यग्रता में वह अपने पुराने लिबरल सेकुलर स्टैंड से समझौता करने को भी तैयार हो गए थे।
लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में जब सावरकर ने भारत की आज़ादी की संभावना तलाश करने की जगह ब्रिटिश सेना में भर्ती का अभियान चलाया और लगातार अंग्रेजों को अपना समर्थन दिया तो रासबिहारी बोस का भ्रम टूट गया। वह समझ गए थे कि सावरकर की रुचि भारत की आज़ादी में नहीं है।
गांधी की शरण में रासबिहारी बोस
23 जून, 1942 को बैंकाक कॉन्फ्रेंस में बोस ने एक प्रस्ताव पास कराया जिसमें दर्ज है –
भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस इकलौता राजनैतिक समूह है जो भारतीय जनता के सच्चे हितों के पक्ष में खड़ा है और अगर (आज़ाद हिन्द फ़ौज द्वारा) भारत में कोई सैन्य कार्यवाही की जाएगी तो वह दृढ़ता से कांग्रेस की नीतियों के अनुरूप ही होगी।
गांधी का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ स्वतंत्रता का स्पष्ट उद्घोष था और रासबिहारी बोस तथा सुभाषचंद्र बोस, दोनों ही इसमें देश की मुक्ति की स्पष्ट संभावनाएं देख रहे थे। रासबिहारी बोस स्पष्ट रूप से देख पा रहे थे कि बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद सावरकर पूरी तरह से अंग्रेजों के साथ हैं और उनसे देश की आज़ादी की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
स्रोत : Bose of Nakamuraya: An Indian Revolutionary in Japan by Takeshi Nakajima
मुख्य संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री