चद्रशेखर आज़ाद और उनकी बमतुलबुखारा : पुण्यतिथि विशेष
[आज अमर क्रांतिकारी चद्रशेखर आज़ाद की पुण्यतिथि है। आज से ठीक 91 साल पहले 27 फरवरी 1931 के दिन इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजो से लड़ते हुए उन्होंने मातृभूमि के लिए अपना प्राणोत्सर्ग किया।
असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू की। आज़ाद एक कुशल संगठनकर्ता, नेतृत्व कर्ता थे। अपनी कार्ययोजना को वे इतने गुप्त तरीक़े से अंजाम देते थे कि अंग्रेजों को खबर भी नही लग पाती थी।]
ज़िन्दा पकड़ने की हर कोशिश नाकाम
अंग्रेज उन्हें जिंदा पकड़ने की तमाम कोशिश करते रहे पर जीते जी आज़ाद को जिंदा पकड़ नही पाये। वे अक्सर भेष बदल कर अंग्रेजो को चकमा दिया करते थे।
कहा तो ये भी जाता है कि केवल आज़ाद को पहचानने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने 700 लोगों को नौकरी पर रखा था।
बमतुल बुखारा जिसका निशाना कभी नहीं चूकता था
आज़ाद अपनी पिस्तौल को “बमतुल बुखारा” नाम से बुलाते थे। उनका निशाना बहुत पक्का था। उनके साथी अक्सर उनके निशाने की प्रशंसा किया करते थे। एक बार चंद्रशेखर अपने साथियों के साथ एक जंगल से होकर गुजर रहे थे। तभी एक साथी ने कहा, “आज़ाद भाई, आपका निशाना बहुत अच्छा है, ज़रा आज आपकी निशानेबाजी देखी जाए। हम लोगों का थोड़ा मनोरंजन भी हो जाएगा और आपको अपनी निशानेबाजी को परखने का मौका भी मिल जाएगा।”
आज़ाद रुक गए और थोड़ा हँसकर बोले, “ठीक है, बताओ, कहाँ निशाना लगाऊँ?”
“आप जहाँ ठीक समझें, निशाना लगाएँ। हमें तो देखने से मतलब है।” साथी ने कहा।
आज़ाद ने इधर-उधर नजर डाली और इशारा करते हुए बोले, “वह देखो, यहाँ से लगभग 30 गज पर जो पेड़ दिखाई दे रहा है, उसका जो छोटा सा पत्ता लटक रहा है, मैं उसी पर निशाना लगा रहा हूँ।” सभी की नजरें उसी पेड़ के छोटे से पत्ते पर जाकर रुक गईं।
‘धाँय’, एक जोरदार आवाज के साथ आज़ाद ने गोली दागी; पर निशाना चूक गया। पिस्तौल से दूसरी गोली भी छूटी, परंतु पत्ता वहीं एक तरफ लटक रहा था। तीसरी, चौथी और पाँचवीं इस तरह पाँच गोलियाँ चलीं; परंतु पत्ता वहीं-का-वहीं लटक रहा था।
सभी को बेहद आश्चर्य हो रहा था, परंतु सबसे ज्यादा आश्चर्य तो स्वयं आज़ाद को हो रहा था। वे चौंककर बोले, “आश्चर्य है, आज तक मेरा निशाना कभी नहीं चूका, आज पता नहीं क्या हो गया। पत्ते पर एक भी गोली नहीं लगी, ऐसा क्यों?”
सभी पेड़ के पास गए। सामने से पत्ते की ओर देखा तो सबके मुँह से ‘वाह’ निकल गया। पत्ता पाँच जगह से छिदा हुआ था।
प्राण जाए पर बचन न जाए
आज़ाद से जुड़ा हुआ एक और रोचक संस्मरण है। ये वो दौर था जब क्रांतिकारियों के पास पैसे की बहुत कमी थी। कई डकैतियां विफल हो चुकी थी। एक बार संगठन को चार हजार रुपए की सख्त आवश्यकता थी।
आज़ाद ने बहुत प्रयास किया, परंतु धन की आवश्यकता की पूर्ति कहीं से भी नहीं हो पा रही थी। आखिर थक-हारकर वे अपने एक मित्र के पास गए जो लेन-देन का ही काम करता था। वह उनका बहुत सम्मान करता था।
आज़ाद उससे बोले, “भाई, क्या तुम्हारा यह लेन-देन हमारे भी किसी काम आ सकता है?” “मित्र ने पूछा कि वह क्या मदद कर सकता है?”
“मुझे चार हज़ार रुपए की सख्त आवश्यकता है। क्या तुम मेरी मदद कर सकते हो?” आज़ाद ने कहा।
“लेकिन इस समय तो इतने रुपए मेरे पास नहीं हैं। हाँ, कुछ दिनों बाद मैं तुम्हारी यह मदद जरूर कर दूँगा।”
“रुपए की आवश्यकता तो अभी है भाई। रुपए मुझे आज ही चाहिए। मैं तुम्हारा यह ऋण छह महीने में चुका दूंगा।
मित्र को आज़ाद पर पूरा विश्वास था। वह जानता था कि आज़ाद कभी झूठ नहीं बोलते, और उनके मुँह से निकली बात पत्थर की लकीर होती है। वह तुरंत उठा और उन्हें इंतज़ार करने के लिए कहकर चला गया। कुछ देर में ही वह चार हजार रुपए लेकर आ गया। आजाद का काम चल गया। उन्होंने मित्र को धन्यवाद दिया और लौट गए।
एक दिन सबेरे वही मित्र आज़ाद के पास आया। उसने आज़ाद से कहा मुझे वो 4 हज़ार रुपये अभी चाहिए। आज़ाद बोले लेकिंन मैंने तो 6 महीने में देने का वचन दिया था अभी तो केवल तीन महीने हुए है।
“भाई, तुम सही कह रहे हो; परंतु मेरी परेशानी यह है कि जिस व्यक्ति से मैंने पैसे लिए थे वह अपना पैसा अभी वापस माँग रहा है और इस समय मेरे पास पैसा नहीं है, वरना मैं ही चुका देता।”
“तुम उससे कहो, हम कुछ समय बाद उसका रुपया वापस कर देंगे। वादे से पहले रुपए माँगने का क्या मतलब? तुम उसे समझाओ कि हम समय से पहले ही उसका रुपया वापस कर देंगे। वह जितना भी ब्याज लगाएगा, वह भी दे देंगे।” आज़ाद ने कहा।
परंतु जब आज़ाद के मित्र ने कहा कि वह मानता ही नहीं। कहता है कि इसी समय उसे रुपयों की सख्त आवश्यकता है तो आज़ाद थोड़ी देर खामोशी से कुछ सोचते रहे और फिर बोले, “ठीक है, शाम को तुम्हें रुपए मिल जाएँगे।”
यह कहकर वह वहाँ से निकल गए। दिन के दो बज रहे होंगे। दिल्ली के प्रसिद्ध बाजार चाँदनी चौक में लोगों की भारी भीड़ थी। लोग अपने-अपने काम-धंधों में व्यस्त थे। कोतवाली से थोड़ा आगे ही सर्राफे की एक दुकान में एक नवयुवक प्रविष्ट हुआ। नवयुवक ने एक-दो चीजें देखीं, कुछ मोल-भाव किया और फिर बाहर की ओर हाथ से इशारा किया। आठ-दस नवयुवक दुकान में आ घुसे। सभी के हाथों में असलहे थे। नवयुवक ने जौहरी के माथे पर अपने पिस्तौल की नली रख दी और बोला, “सेठ, हमें देश के लिए कुछ पैसों की आवश्यकता है, इसलिए ले जा रहे हैं।” देखते-ही-देखते उन्होंने चौदह हज़ार रुपए लूट लिये।
शाम को चंद्रशेखर अपने उस मित्र को चार हज़ार रुपए देने पहुँच गए।
मित्र को चाँदनी चौक वाली घटना की जानकारी हो चुकी थी। उसने मुँह बनाते हुए कहा, “आज़ाद भाई, रुपया हासिल करने का यह तो कोई तरीका नहीं हुआ।” आज़ाद के चेहरे पर मुसकराहट बिखर गई।
वे कहने लगे, “तुम ठीक कह रहे हो, वास्तव में यह कोई तरीका नहीं है। परंतु जिस तरीक़े से आनन-फानन में चार हज़ार रुपए हासिल हो सकते थे, कृपा करके तुम मुझे वही तरीक़ा बता दो।”
“लेकिन…” मित्र ने कुछ कहना चाहा। “देखो भाई।”आज़ाद ने उसे समझाते हुए कहा, “तुमने कभी यह सोचा है कि ये पूँजीपति ग़रीब व मजलूम लोगों का खून चूसकर रुपया कमाते हैं और फिर या तो यह रुपया उनके घर पर पड़ा सड़ता है या फिर उनकी मौज-मस्ती की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे में अगर यह रुपया देश के काम आ जाए तो क्या गुनाह।”
“लेकिन तुम्हें डाका डालने में थोड़ी तो हिचक होनी चाहिए। इस तरह किसी को लूटना अच्छा नही ”
तभी आज़ाद ने कहा “माँगने पर वह सेठ मुझे पैसे दे देता क्या?और अगर माँगने पर कोई पैसा न दे तो हम क्या करें?” अगर हम डाका नहीं डालेंगें तो धन आएगा कहाँ से? यह धन गरीबों का है, सारे देश का है। यह धन देश के काम आ जाए तो क्या बुराई है? इसका उपयोग हम अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए तो कर नहीं रहे।”
वह मित्र आज़ाद की बातों से निरुत्तर हो चुका था।
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर
आज़ाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर थे लेकिन उन्हें अपने पद का कोई भी गुमान नहीं था। विचार विनिमय में सभी अपना दृष्टिकोण रखते परंतु निर्णय हो जाने पर सभी निर्णय को शिरोधार्य कर मानते थे। आज़ाद ने स्वयं भी दल के निर्णय का कड़ाई से पालन किया।
असेंबली बम कांड का पार्टी का फैसला इसका प्रमाण है। आज़ाद का विचार था कि असेंबली में बम फेंकने के पश्चात भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बाहर निकल आएं। उन्होंने दावा किया था कि वे उन्हें वहाँ से सुरक्षित ले आएंगे। इस दृष्टि से वह असेंबली भवन का निरीक्षण भी कर आए थे। परंतु बहुमत इस पक्ष में नहीं था। विशेष रूप से, भगत सिंह इस बात पर बल दे रहे थे कि वहां क्रांतिकारियों को आत्मसमर्पण करना ही चाहिए जिसे वे (प्रोपेगेंडा बाय डीड) प्रचार का सही तरीक़ा कहा करते थे। इस कार्य से जहां समस्त विश्व में दल का प्रचार हुआ, वहीं दल को संगठन की दृष्टि से भारी हानि भी हुई। आगे संभवत जो हुआ वह दल की भूलों का ही परिणाम था।
असेंबली बम कांड तक पुलिस को यह पता नहीं चल सका था कि सांडर्स हत्याकांड में किसका हाथ है। परंतु उसके बाद ही ऐसे सूत्र मिल गए जिससे दल के सदस्यों को पकड़ने में पुलिस को सहायता मिली। भगत सिंह के पास असेंबली में जो पिस्टल था उसी का उपयोग सांडर्स हत्याकांड में हुआ था। इसलिए पुलिस ने तुरंत उस पिस्टल की बोर को मिलाया और वह इस नतीज़े पर पहुँचे कि इसी बोर का पिस्टल सांडर्स हत्याकांड में काम आया था। पुलिस ने यह मानकर कि भगत सिंह सांडर्स हत्या कांड में थे, उनके साथियों की खोज प्रारम्भ कर दी।
ग़द्दारी और शहादत
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) के सेंट्रल कमेटी मेम्बर वीरभद्र तिवारी ने मुखबिरी की और अल्फ्रेड पार्क में आज़ाद के होने की सूचना पुलिस को दी। वह अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे कि तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में कई पुलिसकर्मी घायल हुए और अंग्रेजो से लड़ते हुए वह शहीद हो गए।
स्रोत- 1- शहीद आज़ाद की जीवन कथा द्वारा सुधीर विद्यार्थी
2- अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद द्वारा भारत भूषण
शासकीय नौकरी और इतिहास में गहरी रुचि।