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सरोजिनी नायडू और महात्मा गांधी: हंसी-मज़ाक से गंभीर रिश्ते तक




कुछ मित्रताएँ बड़ी रोचक परिस्थितियों में जन्म लेती हैं। हात्मा गांधी और सरोजिनी नायडू की दोस्ती इसका एक अनूठा उदाहरण है। गोपाल कृष्ण गोखले के आमंत्रण पर गांधीजी इंग्लैंड आए थे। सरोजिनी नायडू, जो उस समय वहीं थीं, गांधीजी से मिलने को आतुर थीं।  लेकिन किसी कारणवश जहाज पर लेने नहीं पहुँच सकीं। उन्होंने सीधे उनके घर जाने का निश्चय किया।

अगले दिन दोपहर को वह कैसिंग्टन के एक अनजान से इलाके में उनका घर तलाशती रहीं। जब वह एक पुराने, सादे से मकान की ऊँची सीढ़ियाँ चढ़कर पहुँचीं, तो सामने एक खुला दरवाजा दिखाई दिया। भीतर, एक मुँडे सिर वाला छोटा-सा आदमी ज़मीन पर काला कम्बल बिछाए बैठा था। उसके हाथ में जेल का लकड़ी का कटोरा था, जिसमें टमाटर और जैतून के तेल से बना खाना था।

 

सरोजिनी नायडू ने चारों ओर देखा  तो भुनी हुई मूँगफली और सूखे केले के आटे के बिस्कुटों से भरे पिचके हुए टिन पड़े थे। दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे एक प्रसिद्ध नेता को इतने असामान्य और हास्यास्पद रूप में देखकर वह खुद को रोक नहीं पाईं और ज़ोर से हँस पड़ीं।

गांधीजी भी मुस्कुराए और बोले, “तुम श्रीमती नायडू होगी… अंदर आओ, मेरे साथ भोजन करो।”

“नहीं, धन्यवाद। यह कितना गंदा लग रहा है!”

 

यही सरोजिनी नायडू की गांधीजी से पहली भेंट थी। गांधीजी  से पहली मुलाकात का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा, “इसी तरह, उसी क्षण हमारी मित्रता का आरंभ हुआ। जो सच्चे सहयोगी के रूप में विकसित हुई, फिर लंबे, ईमानदार गुरु-शिष्य में फलीभूत हुई, जो तीस वर्षों तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में साथ काम करने के बावजूद पल भर के लिए भी विचलित नहीं हुई।”

गांधीजी की जीवनशैली अपनाने से सरोजिनी ने कर दिया था इंकार

यह सरोजिनी नायडू ही थीं जो गांधीजी  के सामने भोजन बाँटने के प्रति अपनी अनिच्छा खुलकर व्यक्त कर सकीं। उनके संबंधों में यह ईमानदारी हमेशा बनी रही। भारत लौटने से पहले वह कई बार गांधीजी से मिलीं।

वह इस बात से अत्यंत प्रसन्न थीं कि देश-विदेश के लोग गांधीजी के घर इकट्ठा होते हैं। यह उन्हें गांधीजी की महानता का प्रमाण लगता था। किन्तु वह स्वयं उनकी महानता से इतनी अभिभूत नहीं थीं कि अपनी पहचान खो बैठतीं।

 

सरोजिनी नायडू ने गांधीजी  की जीवनशैली अपनाने से इनकार कर दिया था। वह खद्दर पहनने को लेकर उत्साही नहीं थीं, हालाँकि संघर्ष की चरम स्थिति में उन्होंने कुछ समय के लिए खद्दर पहना था। न ही वह गांधीजी  की तरह शाकाहारी थीं—वास्तव में, वह उनके भोजन को “घास-पात” मानती थीं। उनके साथ हँसी-मज़ाक कर लेतीं और उनके कई नाम भी रखे थे, जैसे “मिकी माउस”, “छोटा साँवला आदमी” आदि। गांधीजी के दरबार में उन्हें अक्सर विदूषक कहा जाता था।

सत्याग्रह के दौरान, जब वातावरण अत्यंत गंभीर हो जाता था, तो वे अपनी हँसी से उसमें नई ऊर्जा भर देती थीं। मज़ाक करने के बावजूद, वह गांधीजी के मूल दार्शनिक विचारों से पूरी तरह प्रभावित थीं। विदेशों में वह गांधीजी  के सिद्धांतों की व्याख्या करती थीं।

 

 



सरोजिनी ने  गांधीजी की तुलना जीसस से क्यों की?

1916 में चम्पारन आंदोलन भारत में गांधीजी का पहला आंदोलन था। इसमें सरोजिनी नायडू पहली बार गांधीजी के सैनिक रूप में सामने आईं। तीन साल बाद, 17 मार्च 1919 को मद्रास में रॉलेट बिल के विरोध में हुई सभा में उन्होंने गांधीजी के बारे में कहा—

“जब दूर अहमदाबाद में, एक छोटी-सी छप्पर पड़ी झोंपड़ी में रहने वाले एक संत ने स्वयं गरीबी को अपनाया और यह निश्चय किया कि शोषित भारत का हथियार मशीनगन या तलवार नहीं, बल्कि शाश्वत, अक्षय शस्त्र—आत्मा का विद्रोह होगा, तब हमने अपना जीवन और खुशी उन्हीं को समर्पित कर दी।”

उन्होंने सत्याग्रह के विषय में कहा कि “सत्याग्रह की अग्नि उस मंदिर में जली, जहाँ महात्मा गांधी सबसे बड़े पुजारी हैं।”

दो वर्ष बाद, सरोजिनी नायडू  ने गांधीजी  द्वारा दिए गए संदेश को धार्मिक प्रतीकों से जोड़ते हुए अहमदाबाद की एक छात्र सभा में भाषण दिया। इसका शीर्षक था “दि टेम्पल ऑफ फ्रीडम“। इसमें उन्होंने गांधीजी की तुलना कृष्ण की बाँसुरी से की, जो लोगों के दिल और आत्मा को गहराई से प्रभावित करती है।

कुछ महीने बाद, जब गांधीजी  पर राजद्रोह का मुकदमा चला, तो सरोजिनी नायडू उनके साथ थीं। 18 मार्च को हुए मुकदमे का विवरण देते हुए उन्होंने कहा—

“कानून की दृष्टि में वह अपराधी थे… पर जब महात्मा गांधी कचहरी में दाखिल हुए, तो पूरी अदालत सम्मान में स्वयं खड़ी हो गई—एक दुर्बल, शांत, लेकिन अजेय व्यक्तित्व, जिन्होंने केवल मोटे कपड़े की छोटी-सी लंगोटी पहनी थी। उनके मुख पर शैशव की पवित्र खुशी भरी हँसी थी… तब वह अजीब मुकदमा शुरू हुआ…”

 

इस दृश्य को देखकर उनके विचार शताब्दियों पूर्व, एक भिन्न देश और युग की ओर चले गए, जहाँ ऐसा ही एक और नाटक खेला गया था।

“एक और दैवी कोमल शिक्षक, जिसने साहस और जागृति से भरे विचार फैलाए थे, उसे सलीब पर मृत्युदंड दिया गया था। उस क्षण, मैंने अनुभव किया कि भारतीय स्वतंत्रता के इस अदम्य देवदूत—जो मानवता के प्रति करुणा और सौहार्द्र से भरे हुए थे—उनका इतिहास जीसस से साम्य रखता है।”

 

सरोजिनी, गांधी को गुरु मानती थीं, लेकिन कुछ चीजें उनके बस में नहीं थीं

 

महात्मा गांधी और सरोजिनी नायडू
महात्मा गांधी और सरोजिनी नायडू

 

जब सरोजिनी नायडू भारत से बाहर जाती थीं, तब भी पत्रों के माध्यम से गांधीजी  से संपर्क बनाए रखती थीं और विभिन्न देशों के अनुभवों से उन्हें अवगत कराती थीं। अमेरिका में, वह अपने गुरु के बारे में उसी उत्साह से बोलती थीं, जैसे स्वामी विवेकानंद अपने गुरु श्री रामकृष्ण के बारे में बोलते थे।

अमेरिका में उनकी वार्ता का शीर्षक था— “घुमक्कड़ गायिका के शब्दों में कातनेवाला योगी”।

ट्रेन यात्रा के दौरान, उन्होंने गांधीजी  को एक पत्र में लिखा—”आप चलती ट्रेन में कलम और चरखा, दोनों चला लेते हैं, लेकिन मुझसे तो केवल कलम भी नहीं चलाई जाती।”

उनके भारत लौटने पर गांधीजी ने लिखा—”घुमक्कड़ गायिका पश्चिम में लोगों को जीतकर लौट आई हैं। भगवान करे, जैसा जादू वे अमेरिका में डालकर आई हैं, वैसा ही हम पर भी डाल सकें।”

1930 में नमक आंदोलन के समय भी सरोजिनी नायडू  गांधीजी के साथ रहीं। उनकी गिरफ्तारी पर उन्होंने कहा—

“यह सरकार द्वारा दिया गया सबसे बड़ा उपहार है। उनका दुखी और कोमल शरीर पत्थर की दीवारों के पीछे है… लेकिन उनका संदेश राष्ट्र के लिए जीवित विरासत है और यह संसार भर के विचार और कर्म को प्रभावित करता रहेगा।”

दिसंबर 1931 में, दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस के दौरान वह गांधीजी  के साथ लंदन गईं। दोनों अक्सर साथ होते थे, लेकिन उनकी वेशभूषा एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत होती थी—

एक सुंदर रेशमी साड़ी में, तो दूसरे मोटे किसान के कपड़ों में। वह गांधीजी को गुरु मानती थीं, लेकिन कुछ चीजें उनके बस में नहीं थीं।

एक बार गांधीजी ने उनसे चरखा कातने को कहा। सरोजिनी नायडू ने ऐसा मुँह बनाया जैसे दर्द हो रहा हो और बोलीं—”अँगूठा दुख रहा है!”

गांधीजी ज़ोर से हँसे और उन्हें क्षमा कर दिया। उन्होंने मज़ाक में कहा—”तुम बंगाल के उन बुनकरों की चाल अपना रही हो, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को अमान्य करने के लिए अँगूठा कटवा देते थे!”

 

गांधीजी , सरोजिनी नायडू  के मानवीय गुणों के प्रशंसक थे

भारत लौटने पर सरोजिनी नायडू गांधीजी के साथ पूरे देश की यात्रा पर निकलीं। जब गांधीजी ने व्रत रखा, जिससे उनकी जान पर बन आई थी, उस समय सरोजिनी नायडू लगातार उनके साथ रहीं। वह उन्हें पत्रकारों और मिलने वालों से बचाती थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो वे उनकी अंगरक्षिका और सेविका, दोनों बन गई हों।

एक विदेशी पत्रकार ने उनकी इस भूमिका की तुलना एक शिकारी पक्षी से की, जो अपने बच्चे की रक्षा करता है। जेल के रक्षक उनके सामने मामूली लगते थे।

 

गांधीजी, सरोजिनी नायडू के मानवीय गुणों के प्रशंसक थे। वह उनकी काव्य-प्रतिभा और राजनीतिक समझदारी को भी स्वीकार करते थे और जानते थे कि कठिन परिस्थितियों में वह सही निर्णय लेने की क्षमता रखती हैं।

इसीलिए उन्होंने सरोजिनी नायडू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की इच्छा व्यक्त की। अन्य नेताओं के संदेह को दूर कर, 1925 में गांधीजी के बाद उन्हें अध्यक्ष पद दिलाया गया।गांधीजी ने उन्हें “भारत कोकिला” का नाम दिया था।

सरोजिनी नायडू उन पहले लोगों में थीं जिन्होंने गांधीजी की नैतिकता के महत्व को पूरी तरह समझा था। जब गांधीजी  सांप्रदायिक तनाव को शांत करने के लिए बिहार जा रहे थे, तब उन्होंने पत्र में लिखा—

“प्रिय तीर्थयात्री, तुम्हारे लिए जो दुख का रास्ता है, वह करोड़ों इंसानों के दुखी दिल को जीवन और शांति प्रदान करेगा।”

 

इसी तरह, जब  गांधीजी नोआखाली जा रहे थे, तब उन्होंने लिखा—

“आपका संदेश मेरे दिल से होकर गीत के माध्यम से संसार तक पहुँचता है। प्रिय यात्री, आप प्रेम और जीवन की यात्रा पर जा रहे हैं। एक सुंदर स्पेनिश कहावत है— ‘भगवान के साथ जाओ।’ मुझे आपके लिए कोई डर नहीं है, बल्कि आपके उद्देश्य पर पूरा विश्वास है।”

 

गांधी जी की हत्या और सरोजिनी नायडू की पीड़ा

 

महात्मा गांधी और सरोजिनी नायडू
महात्मा गांधी और सरोजिनी नायडू

2 अक्टूबर 1947 को, गांधीजी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में, उन्होंने लखनऊ आकाशवाणी से एक वार्ता दी। उन्होंने स्मरण किया कि 1914 में भारत ने सुना था कि एक अद्भुत, सांसारिक संपत्ति रहित, दंतविहीन मुँह वाला छोटा-सा व्यक्ति आ रहा है। वह आता है, चुपचाप वर्ष बिताता है, राज्य की नींव हिलाता है, और मृत्यु से जूझता है। किसने उसे यह अधिकार, यह जादू, और लोगों के दिलों और दिमागों को झकझोर देने वाली दिव्य-सी शक्ति दी?

यह प्रेम की शक्ति है… यह गहरा मानवीय प्रेम किसी बाधा को नहीं मानता… यह सबको सूर्य की भांति व्यापक समझ और सेवाभाव प्रदान करता है। वह गांधीजी को अपने बीच एक सजीव चमत्कार की तरह मानती थीं।

अपनी वार्ता में उन्होंने आपसी संबंधों की ओर भी संकेत किया कि कैसे उनकी मित्रता मज़ाक से शुरू हुई थी, लेकिन समय के साथ यह रिश्ता गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री और सच्चे सहयोगी के रूप में विकसित हुआ। उन्होंने कहा, “वह संत हैं और मैं गायिका; माध्यम भले ही अलग हों, पर हमारा लक्ष्य एक ही है।”

 

गांधीजी की हत्या के बावजूद, उन्होंने आत्मसंयम बनाए रखा। जब कांग्रेस के सदस्य अपने शोक पर काबू नहीं पा रहे थे, तो उन्होंने उन्हें डांटा और कहा, “क्या रोना-धोना मचा रखा है? क्या तुम चाहते थे कि वह बुढ़ापे और अपच से मरते? यही मृत्यु उनके योग्य थी।”

गांधीजी को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था—

“मेरे नेता, शांति से मत रहना, शांति से मत रहना, मेरे पिता। बल्कि हमें वह शक्ति देते रहना, जिससे हम तुम्हारे वायदों को पूरा कर सकें।”

बाहरी रूप से संयमित रहने के बावजूद, भीतर से वह टूट गई थीं। उन्हें ऐसा लगा मानो एक युग का अंत हो गया हो। इस दुखद घटना के दो दिन बाद, आकाशवाणी पर उन्होंने कहा,

हममें से कुछ उनसे इतने घनिष्ठ थे कि हमारा जीवन उनके जीवन का हिस्सा बन गया था। हममें से कुछ उनके साथ ही मर गए थे।” यह पीड़ा उनके साथ बनी रही।

अक्टूबर 1948 में दीपावली के अवसर पर उन्होंने कहा था, “इस वर्ष दीपावली के उपलक्ष्य में न गाँवों में मिट्टी के दीप जलेंगे और न ही शहरों में चाँदी के दीये, क्योंकि भारत का हृदय अभी भी शोक में डूबा हुआ है।” वह जानती थीं कि गांधीजी की महानता का रहस्य मात्र शब्दों में नहीं समेटा जा सकता, फिर भी उन्होंने अपने काव्यात्मक अंग्रेज़ी गद्य में उनका जो चित्रण किया, वैसा किसी अन्य भारतीय लेखक या वक्ता ने नहीं किया।

गांधीजी  के विषय में बोलते समय वह कभी भावुक होतीं, तो कभी अत्यंत व्यक्तिगत। इलाहाबाद में संगम पर गांधीजी की अस्थि-विसर्जन के बाद, दि लीडर को दिए गए संदेश में उन्होंने कहा था—

“वह सत्य, प्रेम और करुणा की शिक्षा देने वाले महान शिक्षकों की परंपरा के वंशज थे।”


 

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संदर्भ

उमा पाठक, सरोजिनी नायडू, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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