क्यों मनाएं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस?
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सारी दुनिया की औरतों के लिए है। महिला दिवस की शुरुआत बीसवीं सदी के श्रमिक आंदोलनों के बीच से हुई,दरअसल बीसवीं सदी की शुरुआत में औरतों की बीच पनपी अधिकारों की नई रौशनी में स्त्रियों ने समान काम के लिए समान वेतन, काम के घण्टे कम करने और वोट डालने के अधिकार की बात सरकारों के सामने रखी।
महिला दिवस मनाए जाने का कोई दिन तय नहीं हुआ था। फरवरी 1908 में न्यू यॉर्क की गार्मेण्ट फैक्ट्री की हज़ारों महिलाओं की उस हड़ताल को याद किया जाता है जो उन्होंने काम करने की ख़राब स्थितियों के ख़िलाफ की थी और मार्च किया। यह साल भर तक चलती रही।
पहला महिला दिवस
साल भर बाद अमरीका की सोशलिस्ट पार्टी ने 1909 से 1913 तक फरवरी में आखिरी संडे को महिला दिवस की तरह मनाया। औरतें मिलती थीं, गोष्ठियाँ करती थीं, आगे की योजना तय होती थी, पिछली योजनाओं से सबक लिए जाते थे, माँगों के प्रपत्र तैयार होते थे।
1910 में जर्मनी की कम्यूनिस्ट लीडर, एक्टिविस्ट, महिला यूनियन अध्यक्ष क्लारा ज़ेट्किन ने प्रस्ताव किया कि दुनिया के सभी देशों में कोई एक दिन महिला दिवस मनाया जाना चाहिए। इस दिन हम अपनी अपनी माँगें सरकारों के सामने रखेंगे। इस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित कई देशों की पार्टियों, यूनियनों से जुड़ी महिला प्रतिनिधियों, कामकाजी महिला क्लबों की सदस्यों ने हामी भरी। 1913 के बाद से इसे 8 मार्च को मनाया जाने लगा।
बराबरी के अधिकारों की माँग तो सौ साल पहले से उठ रही थी। लेकिन औरतों का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दमन बदस्तूर जारी था। यह किसी एक देश की समस्या नहीं थी। कहीं पर भी औरतों को वोटिंग का अधिकार नहीं था। उनकी मेहनत को सस्ता या मुफ्त का श्रम समझा जाता था। राज्य, समाज और परिवार की संरचना उनकी भूमिकाओं को रूढ बनाए हुए थी।
लेकिन अब एक ऐसी ज़रूरत खड़ी हुई कि जब एक प्रोग्राम हाथ में हो जब योजनाबद्ध तरीके से पूरी दुनिया के देशों की औरतें एक साथ मांग उठाएँ. जैसे आप ट्विटर पर कोई हैश्टैग ट्रेण्ड कराते हैं! एक साथ एक ही समय पर, हर ओर से एक ही बात कहने वाले, 5 करोड़ 7 करोड़- लोग! ताकि सरकार सुने।
रूस में महिला दिवस और महिला मताधिकार
तो 1913 में रूस ने भी इसे फरवरी के आख़िरी संडे को मनाया।1914 में पहला विश्वयुद्ध शुरु होने से पहले यूरोप के देशों की महिलाएँ भी शामिल हुई। युद्ध के ख़िलाफ और महिलाओं की एकजुटता दिखाने के लिए इंग्लैंड में 8 मार्च 1914 को एक रैली निकली जिसमें स्त्री मताधिकारों की योद्धा सिल्विया पैंकहर्स्ट को गिरफ्तार कर लिया गया।
प्रथम विश्व युद्ध ने स्त्रियों के सामने नए तरह के संकट पैदा कर दिए थे। उनसे लगातार खेतों, फैक्टरियों को सम्भालने के आह्वान किए जा रहे थे। यौन हिंसा और बर्बादी तो थी ही, खाने की कमी एक बड़ी समस्या बन चुकी थी। इतिहास के हवाले से हम जानते हैं कि स्त्रियाँ और बच्चे युद्ध के परिवेश में हमेशा दुर्गति पाते हैं।
फरवरी के आख़िरी रविवार को रूस में महिलाओं ने “ब्रेड एंड पीस” के बैनर तले विरोध और हड़ताल की (ग्रेगोरियन कैलेंडर के हिसाब से यह दिन 8 मार्च था) 17 मार्च 1917 को 40,000 महिलाओं ने मताधिकार की मांग के साथ एक विशाल मार्च किया। ‘आज़ाद रूस में आज़ाद औरतें’ इसकी माँग थी। इस मार्च की सफलता यह थी कि 19 मार्च 1917 को महिलाओं को मताधिकार देने वाला रूस यूरोप का पहला बड़ा देश बन गया। महिलाओं की इस क्रांति ने अक्तूबर की बोल्शेविक क्रांति के आगाज़ में भी भूमिका निभाई।
अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष और दशक
साल 1977 में संयुक्त राष्ट्र ने 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मान्य किया और इसे अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया।
महिलाओं की वास्तविक स्थितियाँ बेहद निराशाजनक थीं। दुनिया भर में औरतें स्वास्थ्य, शिक्षा और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में बेहद पिछड़ी हुई थीं। दुनिया की 92% सम्पत्ति पर पुरुषों का कब्ज़ा था। संयुक्त राष्ट्र ने 1975 को महिला वर्ष घोषित किया था लेकिन जल्द ही एहसास हुआ कि स्त्रियों की स्थिति पर फोकस काम करने के लिए एक साल पर्याप्त नहीं।
1975 से 1985 तक को अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक घोषित किया गया।
आइसलैंड का महिला दिवस अवकाश
आइसलैंड में 24 अक्तूबर 1975 को एक ऐतिहासिक हड़ताल हुई।
हम सब महसूस करते हैं कि वर्षों से महिला दिवस मनाया जा रहा है लेकिन कोई असर नहीं है कहीं। आइसलैंड की महिलाओं ने तय किया कि क्यों न एक दिन हम सब ऐसी हड़ताल कर दें कि दुनिया को एहसास हो कि हमारे श्रम के बिना उसका चलना असम्भव है, न घर, न दफ्तर, न बच्चों की देखभाल, सबसे छुट्टी।
करीब 25,000 औरतें जुलूस में इकट्ठा हुई। 1976 में जेंडर-समानता कानून लागू किया गया। 1980 में विडगिस फिनबोदोतिर आइसलैंड की राष्ट्रपति बनी जो लोकतांत्रिक ढंग से किसी देश की चुनी गई पहली महिला राष्ट्रपति थीं और जिन्होंने 16 साल इस पद पर काम किया। यानी एक पूरी पीढी यह देखते-समझते हुए बड़ी हुई कि देश को एक महिला चलाती है, राष्ट्रपति एक महिला होती है।
हम क्यों मनाएं महिला दिवस?
कोई कह सकता है कि हाँ तो ये देश मनाएँ महिला दिवस, हम क्यों मनाएँ ? हम इसलिए मनाएँ क्योंकि इन संघर्षों का फ़ायदा हमने भी उठाया है। फ़ायदा ही नहीं उठाया बल्कि बहुत कुछ सीखा है इन संघर्षों से। जिस वक़्त सारी दुनिया में महिलाओं के अधिकारों की जंग छिड़ी तो भारत उससे अछूता नहीं रहा।
1917 में सरोजिनी नायडू की अध्यक्षता में औरतों के मताधिकार के लिए एक डेलीगेशन मॉन्टेंग्यू चेम्स्फोर्ड समिति से मिला और माँगें रखी।
1947 से पहले ही तमाम महिला अधिकार संगठन भारत में बन गए थे और फेमिनिस्ट पत्रिकाएँ छपाती थीं। दुनिया की सब औरतें अधिकारों के मामले में एक हो रही थीं। महिला आंदोलनों से जो वैचारिक जाग्रति आई उसका फ़ायदा यह हुआ कि भारतीय महिलाओं को कुछ अधिकार संविधान लागू होने के साथ मिल गए। कुछ के लिए वे बाद में लड़ीं, आंदोलन किए। पुलिस दहेज हत्या का केस दर्ज नहीं करती थी इसे घरेलू, आंतरिक मामला बताकर! लड़कियाँ मार दी जाती थीं और कोई सुनने वाला नहीं।
महिला संगठनों ने संघर्ष किए और क़ानून बनवाया। दहेज लेना और देना दोनो अपराध है। बलात्कार क़ानून बना। सबूत देने का काम अपराधी का है पीड़िता का नहीं। और फिर संघर्षों से ही बने 2005 में घरेलू उत्पीड़न क़ानून, 2013 में POSH कार्यक्षेत्र पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए, शिक्षा का अधिकार पाने की लड़ाई, वोटिंग राइट्स की लड़ाई, गर्भपात के अधिकार की जंग, बराबर काम की बराबर तनख़्वाह का संघर्ष, दहेज, बलात्कार, घरेलू उत्पीड़न, यौन शोषण के खिलाफ़ आंदोलन और क़ानूनों का बनना हमारे संघर्षों का इतिहास है।
महिला दिवस इतिहास के उन तमाम पलों को याद करने और आगे के जीवन के लिए और ऊर्जा समेट लेने का अवसर है, उत्सव है. महिलाएँ अपने संघर्षों को हँसते हुए याद करना चाहती हैं। इसलिए महिला दिवस मनाती हैं. यह एक प्रतीक है. यह इस बात का प्रतीक है कि दुनिया की सब महिलाएँ अलग अलग होती हुई भी एक हैं. इसे मनाना नहीं छोड़ना है बल्कि इस इतिहास और धरोहर को अपनी तमाम बहनों तक ले कर जाना है जो दूर हैं, क़स्बों और गाँवों में हैं, अनजान हैं।
यह दिन पुरखिनों के उस संघर्ष की याद है जिसने हमें थोड़ी बेहतर ज़िंदगी दी।
संदर्भ:
- https://www.un.org/en/observances/womens-day/background
- रशियन सफ्रेजिस्ट एंड इंटर्नेशनल सफ्रेजिस्ट ऑर्गनाइज़ेशंस: सॉलिडैरिटी, डिसिप्लिन, विक्टरी, मारिया वर्नाड्स्काया
- https://www.internationalwomensday.com/
- https://www.bbc.com/news/magazine-34602822
- इंडियन सफ्रेजेट्स, सुमिता मुखर्जी, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।