पण्डिता रमाबाई : सौवीं पुण्यतिथि पर विशेष
[स्त्री अधिकारों के लिए अभूतपूर्व संघर्ष करने वालीं पण्डिता रमाबाई की आज सौवीं पुण्यतिथि है। इस अवसर पर सुजाता की सद्यप्रकाशित पुस्तक ‘दुनिया में औरत’ से एक हिस्सा।]
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की सबसे साफ़ और व्यवस्थित तरीके से पहचान सर्वप्रथम पंडिता रमाबाई ने की। उनकी किताब हिंदू स्त्री का जीवन स्त्री-मुक्ति का घोषणा-पत्र है। इस किताब के ज़रिए पहली बार स्त्री-शोषण और मुक्ति की वैचारिक ज़मीन को समझने की कोशिश की गई।
जन्म और संघर्ष
एक तथाकथित उच्च कुल में जन्म लेने वाली हिंदू स्त्री ग़ुलाम पैदा नहीं होती बल्कि वह ‘कैसे औरत बनाई जाती है’ इस प्रक्रिया को तार्किक और क्रमबद्ध तरीके से रमाबाई इस किताब में बताती है। रमाबाई का जीवन एक स्त्रीवादी का जीवन है जो आजीवन पितृसत्ता से जूझती रही लेकिन अक्सर ही उन्हें ईसाई बन जाने के कारण इतिहास में उपेक्षा झेलनी पड़ी। बचपन में ही अपने परिवार के सदस्यों को एक-एक करके मरता देखने वाली रमाबाई के लिए केवल एक सकारात्मक बात थी वह यह कि उनके पिता अनंत शास्त्री डोंगरे एक संकुचित विचारों वाले सुधारवादी थे जिन्होंने समाज के ख़िलाफ़ जाकर, ब्राह्मण – समाज से बहिष्कृत होकर अपनी पत्नी और बच्चों को संस्कृत की शिक्षा दी।
बंगाल पहुँचकर रमाबाई स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में जगह-जगह भाषण देने के लिए विख्यात हो चुकी थीं। अपनी विद्वत्ता के चलते रमाबाई को बंगाल के सुधारवादियों और प्रबुद्ध नेताओं की सभा में ‘पंडिता’ और ‘सरस्वती’ की उपाधि मिली।
यहाँ उन्होंने एक शूद्र से विवाह करके घर बसाया। लेकिन डेढ़ महीने में ही पति की भी मृत्यु हो गई। एक नवजात बेटी को लेकर वह पुणे लौटी। यहाँ से वह इंग्लैंड गईं अध्यापन का प्रशिक्षण लेने और वहीं से अमरीका। अमरीका में ही उन्होंने यह किताब लिखी अंग्रेज़ी में द हाई कास्ट हिंदू वुमेन ताकि इसे बेचकर भारत लौटने का टिकट और भारत में हिंदू विधवाओं के लिए स्कूल खोलने के लिए आवश्यक सामग्री ख़रीदी जा सके।
हिंदू स्त्री का जीवन में रमाबाई ने वेदों और मनुस्मृति से वे उद्धरण प्रस्तुत किए हैं जो स्त्रियों के जीवन को नियंत्रित करने वाली उस व्यवस्था की ओर इशारा करते हैं जिसे पितृसत्ता कहते हैं।
रमाबाई इसलिए भी यह कर सकीं क्योंकि वह ब्राह्मण थीं और उनके पिता ने उन्हें संस्कृत की शिक्षा दी थी। स्त्रीवादी लेंस से वेदों, अन्य ग्रंथों और मनुस्मृति को पढ़ते हुए रमाबाई ने पाया कि सभी मतों में भले ही पर्याप्त भिन्नता हो लेकिन स्त्री के प्रति दृष्टिकोण को लेकर सभी सहमत हैं।[1]
वह लिखती हैं-
जो व्यक्ति मूल संस्कृत साहित्य को कठिन परिश्रम व निष्पक्षता से पढ़ते हैं, यह पहचानने में कभी धोखा नहीं खा सकते कि आचार-संहिता निर्माता मनु उन कई सौ लोगों में से एक है, जिसने दुनिया की नज़रों में स्त्रियों को घृणास्पद जीव बनाने में अपना सारा ज़ोर लगा दिया।[2]
संस्कृत ब्राह्मण ग्रंथों का रमाबाई का अध्ययन सूक्ष्म था। वह मैक्समूलर के अनुवादों को सामने रखकर साफ़ करती हैं कि कैसे ब्राह्मणों ने ऋगवेद के श्लोकों के साथ खेल किया।[3] वह सप्रमाण बताती हैं कि कैसे दुष्ट पुरोहितों ने सती-प्रथा को वेद-सम्मत बताने के लिए ऋगवेद के पद्यांश को ग़लत अर्थ दिया और स्त्री-विरोधी बनाया।[4] इस किताब और मक़सद में मदद करने वालीं पेंसिल्वेनिया के महिला मेडिकल कॉलेज की डीन रैचेल एल.बॉडले भूमिका में लिखती हैं-
रमाबाई ने उद्धरणों में शुद्धता बनाए रखने के लिए एक से ज़्यादा अनुवाद उपलब्ध होने पर उनकी तुलना करने में और कुछ मामलों में संस्कृत से ख़ुद अनुवाद करने में काफ़ी कड़ी मेहनत की। पूरी किताब में कही गई बातें सटीकता से हैं। जब यह किताब भारत पहुँचेगी तो इन कथनों को निसंदेह झूठे और अधार्मिक बताकर इनपर आक्रमण किया जाएगा और यह भी सम्भव है कि यूनाइटेड स्टेट्स में भी कुछ व्यक्ति इस तरह के प्रभाव को पैदा करने का प्रयास करें।[5]
मनुस्मृति पर प्रहार
मनुस्मृति के स्त्री-विरोधी श्लोकों को ख़ूब तसल्ली से रमाबाई सामने रखती हैं और बताती हैं कि सभी पुरुष कम-ज़्यादा इन्हीं बातों में यक़ीन करते हैं कि स्त्री का चरित्र विश्वासयोग्य नहीं है, घरेलू स्त्री से सभी तरह की स्वतंत्रता छीन लेनी चाहिए, स्त्री पुरुष की सम्पत्ति होगी, स्त्रियाँ काम तथा क्रोध के वशीभूत मूर्ख या विद्वान पुरुष को भी कुमार्ग पर प्रवृत्त कर सकती हैं, पति की सेवा से ही स्वर्गलोक में वह पूजित होती है। मनु के ही विचारों पर आधारित कहावतों, लोकाचार-संहिता व अन्य किस्म के साहित्य में भी स्त्री-द्वेष को लक्षित किया रमाबाई ने। वह ऊँची साहित्यिक प्रतिष्ठा रखने वाले एक हिंदू सज्जन की नैतिक विषयों पर लिखी प्रश्नोत्तरी को उद्धृत करती हैं-
प्रश्न- नरक का मुख्य द्वार क्या है?
उत्तर- स्त्री
प्रश्न- शराब की भाँति सम्मोहक कौन है?
उत्तर- स्त्री
प्रश्न- बुद्धिमानों में सर्वोत्तम कौन है?
उत्तर- वह जो कि औरतों द्वारा छला नहीं गया है
प्रश्न- पुरुष के लिए बंधन क्या है?
उत्तर- स्त्री
प्रश्न- वह कौन सा ज़हर है जो अमृत की भाँति प्रतीत होता है?
उत्तर- स्त्री[6]
स्त्री के प्रति जिस दृष्टिकोण से लिखते रहने के पुरुष आदी रहे हैं उसे यह पहली बार सख़्त चुनौती थी क्योंकि उनकी पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उनका झूठ और षडयंत्र एक स्त्री द्वारा पकड़ा गया था। इतना ही नहीं सूचनाओं का अभाव कैसे स्त्री में आत्मविश्वास की कमी पैदा करता है, रमाबाई जानती थीं। भारत में शिक्षा-सुधारों के लिए आए हंटर कमीशन के सामने उन्होंने स्त्री-शिक्षा से जुड़े कई ज़रूरी सुझाव रखे जिनमें एक यह था कि स्त्रियों को ही लड़कियों की शिक्षा के लिए प्रशिक्षित किया जाए क्योंकि पुरुषों की उपस्थिति उन्हें संकुचित और भयभीत करती है, उनकी ज़बानें बंद हो जाती हैं। ज्ञान पर पुरुष वर्चस्व को चुनौती देना आसान नहीं था।
हिंदू स्त्री का जीवन
हिंदू स्त्री का जीवन एक ऐसा दस्तावेज है जो यह बताता है कि सतीप्रथा शब्द के लिए विधवाओं का आत्मदाह जैसा पद इस्तेमाल किया । अपनी पुस्तक ‘हिंदू स्त्री का जीवन’ में वह एक जगह लिखती हैं –
पति की चिता में विधवाओं का आत्मदाह ऐसी प्रथा है, जो स्पष्टत: मनु की आचार-संहिता के संकलन के पश्चात पुरोहितों द्वारा ईजाद की गई । आपस्तम्ब,आस्वलन तथा दूसरे धर्मसूत्र, जो मनु के पहले के हैं, इस नियम का उल्लेख नहीं करते और न ही मनु की संहिता…यहाँ एक सत्ता थी, जो मनु या अन्य नियम प्रदाताओं से व्यापक थी और जिसकी अवज्ञा नहीं की जा सकती थी।[7]
साथ ही रमाबाई ने उस पितृसत्तावादी जेण्डर ट्रेनिंग की भी बारीकियों पर प्रकाश डाला जिसके तहत स्त्रियों की हर अगली पीढ़ी पिछली से कमज़ोर होती चली जाती है, मूल्यों के रूप में वह अपनी माँ से मूढ़ता और पुरुष के स्त्री से श्रेष्ठ होने, ख़ुद के ‘कुछ नहीं’ होने की हीनताग्रंथि में पलती और अपनी दासता स्वीकार करती हैं । वे इशारा करती हैं कि कुछ कुप्रथाएँ उच्च जातियों की देखा-देखी दलित भाइयों ने भी अपनाकर अपनी स्त्री पर अत्याचार करना शुरु किया ।
स्वर्ग का विचार भी इस तरह आनंद से युक्त और रंगीन बनाया गया कि स्त्री अपने पति के साथ उसे पाने के लिए अधीर हो उठी । वैधव्य उसके जीवन की दुर्गति करके उसमे जो पीड़ाएँ और कलंक भर देता है उसके प्रति सचेत स्त्री आग में कूद जाने को कम कष्टकर समझती थी तो क्या ग़लत था । ऐसे में ‘स्वैच्छिक’ और जबरन सती का फ़र्क़ करना या सती और विधवाओं की आत्महत्याओं में फ़र्क़ करना बहुत मानी नहीं रखता । इन मामलों में हस्तक्षेप से अंग्रेज़ सत्ता ख़तरे में आ सकती थी । इसलिए लॉर्ड बैंटिक ने भी सती के विरुद्ध शास्त्रों से ही प्रमाण जुटाने की रणनीति अपनाई । रमाबाई समझ पा रही थीं कि पुरोहितों ने ऋगवेद के श्लोकों का अर्थ बदल कर रख दिया अपने स्वार्थ के लिए।
यही नहीं, रमाबाई ने भारतीय पितृसत्ता के तहत पुरुषों की एकता के कई प्रमाण जुटाए और स्त्री की बदहाली का वास्तविक और दर्दनाक ब्यौरा प्रस्तुत किया। वे रख्माबाई केस उद्दृत करती हैं (जिसपर आगे विस्तार से एक लेख है) और रख्माबाई के साहस की प्रशंसा करती हैं। पितृसत्तात्मक अनुकूलन जबकि स्त्रियों को ऐसा बना देता है कि उन्हें ख़ुद भी पत नहीं चलता कि वे बंधन में हैं और अक्सर वे इन्हीं बंधनों में संतुष्ट रहना सीख जाती हैं। ऐसे में रख्माबाई का साहस उल्लेखनीय था जो वैवाहिक अधिकारों में पुरुष के अधिक फ़ायदे की स्थिति को एक खुली चुनौती की तरह था।
गोपाल गणेश अगरकर ने, जो एकमात्र रेशनल सुधारवादी थे महाराष्ट्र का, पण्डिता रमाबाई का उस समय समर्थन किया जब वे न केवल रूढ़िवादियों बल्कि तिलक जैसे सुधारवादियों की आलोचना व निंदा का भी शिकार हो रही थी। यह भी मज़ेदार है न कि तिलक का अख़बार ‘केस री’जोतिबा फुले को ईसाई मिशनरियों की कठपुतली[8] बता रहा था और पण्डिता रमाबाई के शारदा सदन को धार्मिक (ईसाई) संस्थान।[9]
एक नारीवादी एक्टिविस्ट
अपने समय में रमाबाई का अपने एक्टिविज़्म और लेखन के ज़रिए कैसा हस्तक्षेप था इसके एक उदाहरण के तौर पर एक क़िस्सा सुनाकर आगे बढ़ती हूँ। ऊँची जाति की हिंदू विधवाओं के लिए वे लगातार काम कर रही थीं। नवंबर 1890 को लियोनल एश्बर्नर, जो गवर्नर की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल का सद्स्य था, ने नेशनल रिव्यू में एक लेख में हिंदू शास्त्रों की असलियत उघाड़ते हुए हिंदू विधवाओं के लिए भाड़े पर मिलने वाली व्यभिचारिणियाँ (chartered libertines)[10] कहा जिसका विरोध गोपाल गणेश अगरकर ने किया।
सुधारक के सम्पादक के नाम के.के. तैलंग ने छ्द्मनाम ‘शंकित’ से एक पत्र लिखा और पहले तो एश्बर्नर को जवाब देने के लिए बधाई दी फिर पूछा कि क्या मनुस्मृति और गोहिलगुहाशास्त्र की असलियत को सबके सामने लाने की ज़रूरत है? और क्या विवाह की न्यूनतम आयु (Age of Consent) बिल के विरोधी विधवाओं, ब्याहताओं के लिए अपमानजनक शब्दों के बारे में यह मत स्वीकार करेंगे?
रमाबाई ने सुधारक में लिखा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदू शास्त्रों ने स्त्री के लिए अपमानजनक बातें लिखी हैं। रमाबाई ने मनुस्मृति, ऋगवेद, महाभारत, भागवत पुराण, बृहत पराशर संहिता, दक्ष स्मृति से उद्धरण दर उद्धरण देते हुए सिद्ध किया कि वे स्त्री को ख़ारिज़ करते हैं और हैरानी की बात यह है कि आधुनिक महऋषि, महामहोपाध्याय तिलक, रामशास्त्रीआ प्टे, के आर कीर्तिकर इन शास्त्रों को स्वीकृत करते हैं।
और यह पत्र रमाबाई ने शंकित के जवाब में ‘निश्शंक’नाम से लिखा। रमाबाई की यह किताब भारतीय संदर्भ में स्त्रीवादी थियरी की आरम्भिक प्रयास ठहरती है। पुणे में रहते हुए ब्रह्मणवादी पितृसत्ता को बार-बार खुली चुनौती देना रमाबाई के लिए आसान नहीं था। वे कई बार विवादों में घिरीं, अपमान और आलोचनाएँ सहीं लेकिन साहस से डटी रहीं उस रास्ते पर जिसे वे सही समझती थीं।
पुणे में रहकर जब मुक्ति मिशन को चलाना मुश्किल हो गया तो उन्होंने वहाँ से 50-60 किलोमीटर दूर केड़गाँव में ज़मीन लेकर फिर से शुरुआत की।
रमाबाई की मृत्यु के वक़्त वहाँ लगभग तीन हज़ार स्त्रियाँ थीं, लड़कियाँ थीं, दृष्टिबाधित, अनाथ, वृद्ध और समाज के सभी तबकों से आने वालीं। मुक्ति मिशन वहाँ आज भी क्रियाशील है।
[1] देखें , पेज- 40, पंडिता रमाबाई, हिंदू स्त्री का जीवन, अनु.शम्भु जोशी, संवाद, 2006
[2] देखें, वही,, पेज- 64
[3] देखें , वही, पेज- 78
[4] देखें, वही,पेज- 79
[5] देखें, वही, पेज- 17
[6]देखें, वही, पेज- 65
[7] देखें, पेज- 75-76, पण्डिता रमाबाई, हिंदू स्त्री का जीवन, संवाद प्रकाशन
[8] देखें, पेज- 149, गोपाल गणेश अगरकर, डी रेशनलिस्ट रिफॉर्मर, अरविंद गनाचारी, पोपुलर प्रकाशन, मुंबई, 2005, पेज- 149
[9] देखें, वही
[10] देखें, वही, पेज- 153
सुजाता दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। कवि, उपन्यासकार और आलोचक। ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। हाल ही में लिखी पंडिता रमाबाई की जीवनी, ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’ खूब चर्चा में है।