पुस्तक चर्चा : वैश्विक बहनापे की विरासत से परिचय कराती है ‘दुनिया में औरत’
पुस्तक परिचय
चर्चित स्त्रीवादी लेखिका सुजाता जी की किताब दुनिया में औरत हाल ही में राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।
इसमें भूमिका के अलावा कुल तेरह अध्याय हैं जो दुनियाभर भर में स्त्रियों के राजनीतिक संघर्षों(पर्सनल इज पॉलिटिक्स के साथ) के बीच एक सहसंबंध स्थापित करते हैं जिससे ‘वैश्विक बहनापे (यूनिवर्सल सिस्टरहूड) का आधार तैयार होता है। इसके अलावा किताब में स्त्रीवाद से जुड़ी मौलिक किताबों की एक विस्तृत संदर्भ सूची भी है।
किताब की भूमिका में लेखिका ने लिखा है कि ‘वैश्विक बहनापे को हमें ऐतिहासिक संदर्भ में देखना होगा। यह स्त्रीवाद न सिर्फ एक ऐतिहासिक नारा है बल्कि उसका हासिल भी है।’
संघर्ष अलग लेकिन उद्देश्य एक
ऐतिहासिक संदर्भ का मतलब है दुनियाभर में एक ही समय में अलग-अलग देशों की स्त्रियाँ अपने-अपने पितृसत्तात्मक संरचनाओं से संघर्ष कर रही थीं।
भारत की स्त्रियाँ सती प्रथा, शिक्षा, विधवा विवाह और शादी के उम्र को लेकर संघर्ष कर रही थीं ठीक उसी समय दूसरे देश में मताधिकार के आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी। संघर्ष के मुद्दे अलग थे। मुद्दे अलग होंगे ही क्योंकि पितृसत्ता ‘स्थानीय संस्करणों में पलती है’। परंतु,एक बात सबमें एकसमान थी ‘पितृसत्ता’ से संघर्ष और उससे बाहर निकलने के लिए वैचारिक बहस। यही एक बात ‘वैश्विक बहनापे’ की नींव थी और है।
अकारण नहीं है कि ‘स्त्रीवाद का भूत’ जिन्हें सता रहा है वो यह कहते हैं कि आज स्त्रियाँ जिस आजादी की बात करती हैं वह पश्चिम से आयातित हैं जो भारत के अनुकूल नहीं है। यह यहाँ की औरतों को भ्रष्ट कर रही है। ‘भ्रष्ट’ होने से तात्पर्य है लड़कियों का वैचारिक बहसों में भाग लेना, प्रेम संबंधों में निहित पुरुषवादी तत्वों की पहचान करना, शादी के बाद किसी भी संबंध में सहमति पर बल देना,घरेलू हिंसा के विरुद्ध बात करना,तलाक की बात करना, उच्च शिक्षा, कोख के अधिकार और जीवन के गरिमा के लिए प्रतिबद्ध होना है।
जो स्त्रियाँ इन सब मुद्दों पर बोलती हैं वे सब धर्मद्रोही और बिगड़ी हुई कही जाती हैं। उन्हें लगता है कि यह सब पश्चिम के मूल्य हैं जिसका अंधानुकरण भारतीय महिलाएँ कर रही हैं। मतलब पश्चिम की औरत और भारत की औरत एकदूसरे से सीखें नहीं,मिले नहीं और किसी प्रकार की कोई प्रेरणा न ग्रहण करे। दरअसल वे वैश्विक बहनापे के सिद्धांत से डरे हुए लोग हैं।
पितृसत्ता एक गुप्त प्रणाली है
‘स्त्रीवाद क्या है?’ लेख में लेखिका ने लिखा है ‘स्त्री अनुभवों के नाम पर स्त्रैण अनुभवों को रूढ़िबद्ध करने से भी बचना होगा।’ इस रूढ़िबद्धता में पुरूष और स्त्री दोनों शामिल रहते हैं।
कई बार अनजाने में यह सब होता है। उन्हें पता ही नहीं होता है कि वे जो कर रहे हैं वह पितृसत्ता द्वारा आरोपित मूल्य है। कुछ दिन पहले एक लेखिका ने फेसबुक पर लिखा ‘अब वे स्त्री विमर्श शब्द को देखती हैं तो उन्हें कोफ्त होती है। अबला वाली फील आती है। आज की स्त्रियाँ क्या अच्छा है क्या बुरा है सब जानती हैं।’ स्त्री विमर्श के नाम से ऑनलाइन कार्यक्रम को देखकर उन्हें अब बोरियत होती है। मेरे कमेंट के जवाब में उन्होंने कहा कि ऑनलाइन कार्यक्रम से समस्या का समाधान हो जाता है? ग्रामीण स्त्रियाँ क्या इसके बारे में जानती भी हैं? उनके समस्याओं का हल हो जाता है?
यह कितनी बचकानी बात है कि लोग विमर्श से हर समस्या का समाधान ही चाहते हैं। वो यह समझना ही नहीं चाहते कि समस्या की पहचान करना भी एक राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। विमर्श कर रहे लोग राजनेता नहीं है जो समस्या का हल निकाल दें,कानून बना दें। शायद इसलिए लेखिका ने लिखा है कि ‘पितृसत्ता एक गुप्त प्रणाली है’। कभी धर्म,कभी रीति-रिवाज,कभी परंपरा और कभी कर्तव्यों के नाम पर पितृसत्ता अपने मूल्य व्यक्ति के भीतर स्थापित करता है। पूँजीवादी व्यवस्था की तरह पितृसत्ता भी बहुत लचीला होता है। वह अपने खिलाफ खड़े किए गए प्रतीकों को भी कई बार अपने हक़ में कर लेता है। इसलिए स्त्री-पुरुष के व्यक्तिगत अनुभवों को हमेशा सामान्यीकरण करने से पहले उसे ठीक से पड़ताल करना भी जरूरी है।
लेखिका का कहना है कि ‘इस किताब का शिल्प कभी इतिहास की पुस्तक जैसा और कभी साहित्य की पुस्तक जैसा लगेगा और कभी राजनीतिक घोषणा पत्र जैसा’।
मैंने इसे पढ़ा एक इंटरडिसिप्लिनरी(अंतरानुशासनिक) सोच के साथ। यह होना ही था/है। जब आप किसी समूह से बातचीत करते हुए किसी मुद्दे पर ठोस और बेसिक बातें समझाना चाहते हैं तब आप कई तरीकों का उपयोग करते हैं। दस तरह के उदाहरण दस अलग-अलग क्षेत्रों से चुनते हैं उनके बीच तारतम्यता(लिंक) बैठाते हैं ताकि आपकी बात समग्रता में आसानी से सबको समझ आ जाए। एक तरह से प्रभावी और समावेशी उत्तर लिखने के तकनीक की तरह। यह किताब एक लेसन प्लान की तरह है। इसका उद्देश्य कम शब्दों में विभिन्न तरीकों(methods) का प्रयोग करते हुए स्त्रीवाद से बिल्कुल अनभिज्ञ पाठकों तक अपनी बात संप्रेषित करना है।
किताब गम्भीर विश्लेषण की ओर नहीं जाती, यह काम वह आलोचना के स्त्री पक्ष में कर चुकी हैं। उद्देश्य भी यह नहीं है। लेखिका को स्त्री संघर्षों के वैश्विक परिदृश्य की बात कहनी है वह भी स्टोरी टेलिंग से। इसी में सूत्रधार की तरह कुछ बातें लेखिका कहती जाती हैं। इंटरमीडिएट और स्नातक स्तर के विद्यार्थियों के लिए यह किताब स्त्री संघर्षों की सच्ची कहानी जानने और स्त्रीवाद से परिचय प्राप्त करने के लिए प्रवेश द्वार की तरह है। एकदम से युवा पीढ़ी को गम्भीर बहस में धकेल देने और अचानक से भारी-भरकम आलोचनात्मक पुस्तक थमा देने से कई बार विमर्श से रुचि ही खत्म हो जाती है उनकी। इसलिए इस तरह की किताबें खूब लिखा जाना चाहिए जिसमें ऐतिहासिक घटनाएँ कहानियों की तरह आएँ और उससे जुड़े विचार मन को झकझोरे।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सिर्फ़ उत्सव नहीं है
‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के दिन चलताऊ तरह से लोग कहते हैं कि हर दिन महिला दिवस होना चाहिए।
बिल्कुल होना चाहिए। लेकिन यह एक खास दिन कोई मौज-मस्ती और अवकाश मनाने के लिए नहीं है। इसके पीछे एक ऐतिहासिक संघर्ष की लंबी यात्रा है। मताधिकार,काम के घण्टे और समानता पाने की लंबी लड़ाई है। यह दिन स्त्रियों के वैश्विक एकजुटता को और दृढ़ करने के उपायों पर सोचने का है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में स्त्रियों के मुद्दों को पहचानकर उससे निपटने की रणनीति बनाने का है। सोचिए इस एक दिन अगर स्त्रियाँ छुट्टी लेकर सार्वजनिक सभा स्थलों पर वैचारिक बहस के लिए इकट्ठे हो जायें तो कितना असर होगा! इसके बारे में सोचते ही इस खास एक दिन के महत्व का पता अंदाजा हो जाएगा।
‘एक औरत का काम कभी खत्म क्यों नहीं होता?’ और ‘औरतें अकेली क्यों हो जाती हैं?‘ ये दोनों अध्याय स्त्रियों के रचनात्मक जीवन के संघर्ष को सामने रखते हैं ।
आज खूब जोर-शोर से यह कहा जाता है कि महिलाएँ नौकरी कर रही हैं और सशक्त हो रही है। लेकिन ठीक उसी वक़्त वे यह नहीं कहते कि औरतें नौकरी भी कर रही हैं और घर के सारे काम भी। मैं अभी मध्य विद्यालय में पढ़ा रहा हूँ। स्कूल में जो शिक्षिका आती हैं वो सुबह घर का सारा काम करके आती हैं और शाम को जाकर पुनः घर के काम में लग जाती हैं। जो महिलाएँ अविवाहित हैं और नौकरी कर रही हैं उन पर अपने ही पैसे से दहेज इकट्ठा करने का दवाब रहता है। उसके मेहनत के पैसे से वह लाइब्रेरी बना सकती है, घर या जमीन खरीद सकती है, लंबे ट्रिप पर जा सकती है। लेकिन नहीं उसका काम दहेज जुटाना है।
यह सशक्तिकरण कम शोषण ज्यादा है बल्कि दोहरा शोषण है।
मीडिया गोद में बच्चे लिए महिला अधिकारियों और मातृ अवकाश न लेने वाले महिलाओं को समर्पित कर्मचारी के रूप में प्रस्तुत करती है।
यह पुरुष सत्ता का एजेंडा है। ऐसा प्रचार करके वे उन पुरखिनों के संघर्ष को धूमिल करना चाहते हैं जिन्होंने इसके लिए संघर्ष किया और बलिदान दिया। मेरी एक विद्यार्थी हर सप्ताह फ़ोन करके रोती है कि उसे पढ़ने का समय नहीं मिल पाता है क्योंकि घरेलू काम करना पड़ता है। यह लड़की इसी वर्ष इंटरमीडिएट में 90%अंक लायी है बिहार बोर्ड की परीक्षा में। वैचारिक रूप से मजबूत है। उसकी रचनात्मकता बर्बाद हो रही है। तनाव में रहती है और बार-बार रोती है।
आखिर क्यों उसका काम घर में खत्म नहीं होता? क्योंकि वह लड़की है। इसी तरह बौद्धिक रूप से मजबूत महिलाएँ अकेली हो जाती हैं। प्रेम के नाम पर,परिवार के नाम पर और मातृत्व के नाम पर उनकी निजता और प्रतिभा बेकार होती जाती है।
सिल्विया प्लाथ इफ़ेक्ट से क्यों बौद्धिक महिलाएँ ग्रसित होकर आत्महत्या कर लेती हैं? क्या इसे हत्या नहीं कहना चाहिए? भारतीय संदर्भ में जिन महिलाओं ने अपनी बौद्धिकता से अपने समय में पितृसत्ता को चुनौती दी उन्हें भी अकेला करके सिल्विया प्लाथ इफ़ेक्ट की ओर धकेलने का हर सम्भव प्रयास किया उनमें सावित्रीबाई,रमाबाई, रख्माबाई, ताराबाई शिंदे और कई नाम हैं। उन्हें इतिहास से लंबे समय तक वंचित रखा गया।
इतिहास की किताबों में इन्हें पढ़ाया जाता तो ग्रामीण और छोटे शहर की लड़कियों के पास रोल मॉडल की कमी नहीं महसूस होती। उन्हें पता होता कि सोफिया दुलीप सिंह ने मताधिकार के लिए काम किया,सरला देवी चौधरानी और सरोजनी नायडू के योगदान से परिचित होती तो लड़कियों को अपने राजनीतिक बुद्धिमता के अभाव की कमी नहीं खलती।
आज हल्ला किया जाता है कि मैरिटल रेप, अपने पसंद की शादी और सहमति का मुद्दा परिवार तोड़ने वाला विचार है और पश्चिम आयातित है। उन्हें बताने के लिए रख्माबाई का केस है हमारे पास। यह भी बताने को है कि वह मुकदमा भी लड़ीं और बाद में डॉक्टरी पढ़कर आत्मनिर्भर भी बनी। हमसे पहले की पीढ़ी या बहुत हद तक अब की पीढ़ी यह मामला ठीक से जान ले तो उसके अंदर का आत्मविश्वास बढ़ेगा। स्त्रीवाद तब आयातित नहीं लगेगा। वह तमाम कुतर्कों के जवाब देने लायक बन सकेगी और हीनता की ग्रंथि से मुक्त होती चली जाएगी। सुजाता जी ने हिंदी में ऐसे संदर्भों और प्रसंगों को एक जगह लाकर उसी ऐतिहासिक जरूरत को पूरा किया है।
सुजाता जी ने सही कहा है कि क्वियर विमर्श स्त्री विमर्श का हासिल है। परमेश सहानी ने अपनी किताब ‘क्विएरिस्तान’ में इसको खुले मन से स्वीकारा है। स्त्रीवाद की जड़ें अब वृक्ष रूप में फैलकर कई शाखा और उपशाखा बना चुकी है। इसके विपक्ष में अब जो भी ‘ट्रैड वाइफ’ (traditional wife) के विचार खड़े किए जा रहे हैं उससे टकराने के लिए बौद्धिक उपकरण स्त्रीवाद तैयार कर रही है और इस दिशा में निरंतर गतिशील है।
लेखिका ने जरूरी बात कही है जिसपर विचार होना चाहिए कि ‘एक स्त्रीवादी जो समाजवादी नहीं है उसके पास रणनीति का अभाव होता है और जो समाजवादी स्त्रीवादी नहीं है उसके पास विस्तार का अभाव है।’ कहने का मतलब यह है कि आज जितने भी प्रगतिशील आंदोलन हैं उनमें स्त्रीवाद और उससे जुड़े चिंतन अपने राजनीतिक उद्देश्यों के साथ नत्थी रहेगा ही रहेगा। इसी प्रकार स्त्रीवाद ने अपने अनुशासन के भीतर विभिन्न वादों के सर्वश्रेष्ठ गुणों और पद्धति को अपने चिंतन के दायरे में लाने का हर सम्भव प्रयास कर रही है।
लेखक वर्तमान में बिहार सरकार में टीजीटी शिक्षक हैं। इनकी समीक्षाएं पक्षधर,समकालीन जनमत,जानकीपुल, सबलोग,फॉरवर्ड प्रेस और पोषम पा में प्रकाशित हो चुकी हैं ।