एक कामकाजी, एकल अभिभावक स्त्री की दिक्कतें- रमाबाई
उन्नीसवीं सदी भारत में पुनर्जागरण की सदी मानी जाती है। खासतौर पर महाराष्ट्र और बंगाल में इस दौर में समाज सुधारों के जो आन्दोलन चले उन्होंने भारतीय मानस और समाज को गहरे प्रभावित किया। ब्रिटिश उपनिवेश के मज़बूत होने के साथ मूलतः यह एक तरह की भारतीय प्रतिक्रिया थी जिसमें अपने अतीत को क्लेम करने तथा सेलिब्रेट करने की आकांक्षा अधिक और अतीत पर पुनर्विचार कर भविष्य की राह तलाशने की कोशिश कम नजर आती है; कई बार तो ये आन्दोलन पुनर्जागरण कम और पुनरुत्थान अधिक लगते हैं।
रमाबाई इस दौर में एक असुविधाजनक स्वर के रूप में आती हैं जो महाराष्ट्र के ब्राह्मण एवं पुरुषकेन्द्रित समाज सुधारों के बीच स्त्री दृष्टि से अतीत की तीखी आलोचना प्रस्तुत करते हुए अपने समय की यथास्थितिवादी सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं से टकराती हैं। इस क्रम में स्वाभाविक था कि पुणे के उस समुदाय से उपेक्षा और अपमान ही हासिल होता जिसका नेतृत्व समाज सुधारों के प्रखर विरोधी तिलक कर रहे थे।
विधवा महिलाओं के आश्रम की स्थापना, उनके पुनर्विवाह तथा स्वावलंबन के लिए नवोन्मेषकारी पहल और यूरोप तथा अमेरिका में जाकर भारतीय महिलाओं के लिए समर्थन जुटाने का उनका प्रयास अक्सर धर्म परिवर्तन के उनके निर्णय की आलोचना की आड़ में छिपा दिया गया। उन्नीसवीं सदी भारत में रमाबाई केलिए यह सबकुछ करना कतई आसान नहीं रहा होगा, खासकर विदेश जाकर डाक्टरी की पढ़ाई करना…और महिलाओं के हक में प्रयास करना..
सुजाता ने अपनी किताब विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई में इस पर विस्तार से लिखा है। प्रस्तुत है उसी से एक अंश- सं
एक कामकाजी, एकल अभिभावक स्त्री की दिक्कतें
जैसे हर कामकाजी माँ के सामने आती है, रमाबाई के सामने भी यह समस्या बार-बार आती थी कि बाहर जाते हुए, सभा के काम से या व्याख्यान के लिए, जो उसकी आजीविका थी, बच्ची का क्या करे? ठकुबाई के आ जाने से कुछ हद तक यह चिन्ता दूर हुई थी, लेकिन लेकिन भावी की काल्पनिक चिन्ताएँ उसे व्याकुल बनाए रहती थीं।
संकल्प-विकल्प की किसी घड़ी में उसे कुछ सूझा और वह एक दिन छोटी- चिन्ता दूर हुई थी, सी मनोरमा को लेकर मिशन हाउस जा पहुँची और बोली-
मैं इसे आप लोगों को देने आई हूँ। आज से यह आपकी है, आप इसे बड़ा करें या शायद ऐसे ही मंतव्य के कुछ और शब्द। सभी सिस्टर्स ख़ुशी से फूली न समाई उस वक़्त, यह खुशी का अतिरिक्त भार था, क़ीमती छोटा ख़ज़ाना था लेकिन यह ख़ुशी कुछ पल की थी।
थोड़ी देर बाद ही रमा भागती हुई वापस आई और बच्ची को वापस ले गई। यह कहते हुए कि मेरी मित्र मनोरमा से मेरा अलग होना बर्दाश्त नहीं कर पाएगी, उसके बिना रह नहीं पाएगी, वह उसके साथ बहुत अच्छी है। सम्भवतः यह मित्र ठकुबाई ही हो। उस घर के ये ही तो तीन प्राणी थे, जिनमें दो बच्चियाँ थीं- बारह साल की, एक डेढ़ की।
मनोरमा जिसे रमाबाई मनो कहकर बुलाती थी से इस संक्षिप्त वियोग पर ठकुबाई का दिल टूटना समझना कोई मुश्किल बात नहीं। हो सकता है, कोई मित्र न हो, ख़ुद रमा का ही दिल न माना हो। मनो और ठकुबाई ही उसका परिवार थे।
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एक हिन्दू विधवा जो बार-बार लीक तोड़ती है
रमाबाई ने इंग्लैंड जाना लगभग तय कर लिया था उसने मन में। वह जानती थी कि उसके कई मित्र इस बात से सहमत नहीं हैं, लेकिन वह रमा के अकेलेपन को समझने में भी असमर्थ थे। एक हिन्दू विधवा जो बार-बार लीक तोड़ती है, अकेली अभिभावक है, कामकाजी है और जिसके बारे में अख़बार कोई न कोई ख़बर बनाने को तैयार बैठे रहते हैं, जिसके जीवन में एक हमउम्र, हमराज़, हमनफ़स न था । जो था उसे उसने कुछ समय पहले ही खोया था।
कौन सोचता होगा कि वह प्रेम के लिए भी तड़पती है! यह अकेलापन समझना उस टाइम और स्पेस में एकदम अनजाना था। स्त्री की स्वायत्तता का कोई अर्थ नहीं था, भावनाओं का तो क्या ही होता ?
लेकिन रमा के जीवन को यही सन्देश देना था—स्त्री की स्वायत्तता! अपने निर्णयों पर उसका अपना अधिकार !
इंग्लैंड जाने की एक मुसलसल छटपटाहट थी उसके मन में यह माना जाता था कि ‘हमारी’ औरतों के लिए सबसे पहले अच्छी माँ और पत्नी होना जरूरी है, जो उपयोगी हो, हिसाब-किताब ही रखना हो तो सिलाई-कढ़ाई और खाना पकाने का रखे और इस सबके लिए शिक्षा घर में होती है न कि पब्लिक स्कूलों में।”
ऐसे में एक भारतीय औरत के लिए यह एक बड़ा क़दम होता, समुद्र पार करना! एक ऐसा काम जो उसे अपने ही लोगों में अजनबी बना देगा। एक ईसाई क्लर्क से उसने बात की तो वह बोला कि यह ईश्वर की इच्छा नहीं है कि तुम जाओ बल्कि तुम्हारी अन्तरात्मा की आवाज़ है।” वह अपने देश की स्त्रियों के लिए कुछ करना चाहती थी जिससे वे बेहतर और स्तरीय जीवन जी सकें।
हंटर कमीशन के सामने जो गवाही उसने ख़ुद दी थी, वह उसे बेचैन किए थी कि डॉक्टरी पढ़कर अपने देश की औरतों को उन तमाम दर्दों से मुक्त करूँगी जो वे महिला चिकित्सक की कमी सहती हैं। वह एक बार पूना मिशन एक पुरस्कार वितरण के लिए गई थी, वहाँ एक महिला से बात की, जिसने रमा को कुछ चीजें सिखाई थीं। वह सिस्टर्स को जानती थी और कुछ यूरोपियन महिलाओं को।
उनसे पूछा कि इंग्लैंड चली जाऊँ तो मदद मिलेगी?” किसी ने कहा, तुम ईसाई होतीं तो कुछ इन्तज़ाम हो सकता था,
किसी ने कहा, पहले हमारे साथ एक प्रशिक्षु की तरह काम करो, फिर हम देखेंगे, एक महिला ने लन्दन से लिखा कि अपनी बेटी को छोड़कर अकेली यहाँ आओ।
अगर कुछ समय तक टिक पाई तो कुछ हो पाएगा नहीं तो वापस चली जाना।”
बेटी को भारत में छोड़ना तो एक समस्या थी ही, फिर छह महीने के लिए लन्दन जाना, न इधर की रहेगी न उधर की।
कुछ दिनों बाद सिस्टर सुपीरियर (सिस्टर एलिज़ाबेथ) ने कहा कि इंग्लैंड में उन सिस्टर्स को मराठी सिखानेवाली महिला की ज़रूरत है जो भारत आकर देसी लोगों के साथ काम करना चाहती हैं। खाना, रहना और अंग्रेज़ी की शिक्षा उनकी तरफ़ से होगी, आने-जाने का ख़र्च उसे अपना करना पड़ेगा।” रमा की उधेड़बुन इस वजह से भी थी (यह भय यहाँ उसके मित्रों, समर्थकों को भी होगा) कि कहीं वह ईसाई तो नहीं हो जाएगी?
मिशनरी सिस्टर्स से मदद के बारे में पूछते हुए उसने यह ध्यान रखा कि उन्हें स्पष्ट सन्देश जाए वि रमाबाई ईसाइयत नहीं अपनाएगी।” ये संशय और भी स्पष्ट होते हैं CSMV की एक सिस्टर के ख़त से, चूँकि मन-ही-मन वे सभी मना रहे थे कि यह तेज़-तर्रा शिक्षित, आकर्षक महिला ईसाई हो जाए।
सेंट मेरी से सिस्टर एलियनर का एक ख़त लन्दन सेंट एनीज कॉन्वेंट (CSMV) की एक अनाम सिस्टर के नाम मिलता है, जिसे इस सन्दर्भ में देख सकते हैं-
वह (रमाबाई) 23 साल की एक विधवा है, बहुत चतुर। अपने लोगों उसका बहुत प्रभाव है, दुर्दशा में पड़ी अपनी बहनों का उत्थान उसकी परम इच्छा है, वह एक सुधारक है… अगर वह धर्म-परिवर्तन कर ले तो आप उसका प्रभाव समझ सकते हैं, और हम सब उसके लिए जितना कुछ अच्छा कर सकते हैं, वह सब करने के लिए व्यग्र हैं… अगर आप उसका वहाँ स्वागत करें, और जो उसे बुला रहा है प्रभु, उस ख़ुद को सौंपने की राह ले जाएँ, तो आप भारत के लिए उससे अधिक कर रहे होंगे, जितना हमने सोचा है।
यह 1882 का ही ख़त है सम्भवतः । रमाबाई की किताब ‘स्त्री धर्म नीति’ दूसरा संस्करण स्टेट शिक्षा विभाग द्वारा ख़रीदा गया तो उसकी राशि इंग्लैंड का टिकट ख़रीदने के काम आई।
जब डॉक्टरी पढ़ने के लिए समुद्र पार करने निकली दो बहनें
उधर कलकत्ता में रमाबाई की ही रिश्ते की बहन आनन्दीबाई जोशी डॉक्टरी पढने के लिए अमेरिका जाने की तैयारी कर चुकी थी। अपेक्षा के विपरीत आनन्दीबाई को कलकत्ता के समाज की ही नहीं, उन मराठी परिवारों की भी नाराज़गी झेलनी पड़ी जिनसे अभी तक मेल-जोल रहा था और जिन्होंने बीमारी में आनन्दी की सहायता की थी। गोपाल जोशी आनन्दी के सहारे ही समाज-सुधार के क्षेत्र में अपनी उम्मीदों को पूरा कर लेना चाहता था।
पहले तय हुआ था कि पति-पत्नी दोनों अमेरिका जाएँगे, लेकिन अपने परिवार को आर्थिक रूप से सँभालने की ज़िम्मेदारी थी गोपालराव पर और इस बात का क्या मुक़ाबला हो सकता था कि आनन्दी अकेली जाती और एक नज़ीर बनती कि एक ब्राह्मण स्त्री अकेली समुद्र पार करके गई ।”
आनन्दी विदुषी तो थी ही, प्रखर भी थी। उसकी अंग्रेज़ी की तारीफ़ ख़ुद मिस आना थोबर्न करती हैं, जिनके सहारे अमेरिका की यह योजना सफल हो पाई थी।” समुद्र पार करने की तैयारी का पता लगते ही समाज में एक रोष फैल गया।
लोग उनके घर के बाहर इकट्ठे होकर विरोध करने लगे। आनन्दी ने ठाना कि वह एक ही बार इन सबका जवाब देगी और वह भी सार्वजनिक। 24 फ़रवरी, 1883 को श्रीरामपुर (या सेरामपुर) में एक कॉलेज हॉल में विशाल जनसभा के बीच आनन्दी का भाषण ‘मैं अमेरिका क्यों जा रही हूँ?’ रखा गया। इस भाषण में उसने अपने अमेरिका जाने को लेकर उठनेवाले सवालों का एक-एक करके जवाब दिया।
यह हैरान होनेवाली बात नहीं है कि आनन्दीबाई ने भी लगभग वही कारण बताए जो ‘हंटर कमीशन’ के समक्ष रमाबाई ने अपनी गवाही में दिये थे। उसने कहा कि भारतीय महिलाएँ पुरुष डॉक्टरों के सामने अपनी बात कहने में हिचकती हैं और इस वजह से उन्हें इलाज नहीं मिल पाता। उसने बताया कि भारत में सिर्फ एक मेडिकल कॉलेज है महिलाओं के लिए मद्रास में और इसके अलावा सिर्फ दाई बनने के कोर्स हैं जो कि नाकाफ़ी है। इस स्त्री-शिक्षा का पूरा विचार दोषपूर्ण है।
भारत में महिला डॉक्टरों का अभाव एक हक़ीक़त है और मैं स्वेच्छा से इस सेवा कार्य में ख़ुद को समर्पित करना चाहती हूँ। लेकिन सबसे मजेदार था कि आनन्दी ने उसी तरह शिक्षा में पुरुष ईर्ष्या और पितृसत्ता को रेखांकित किया, जैसे कि रमाबाई ने हंटर कमीशन को दिये अपने जवाबों में निर्भय होकर लक्षित किया था। आनन्दी कहती हैं-
साथ ही, इनमें जानेवाली ग़ैर-ईसाई और ग़ैर-ब्रह्मो महिलाओं का उत्पीड़न भी काफ़ी होता है। और वह (पुरुष) प्रशिक्षक जो पढ़ाते हैं, रूढ़िवादी और कुछ हद तक ईर्ष्यालु होते हैं।… यह पुरुष लिंग की विशेषता है। हमें इस असुविधा को सहना होगा जब तक कि हमारे पास इन पुरुषों को इस भार से मुक्त करने के लिए शिक्षित महिलाओं का एक वर्ग तैयार नहीं हो जाता।
रमाबाई ने हंटर कमीशन के सामने स्कूलों में आनेवाले पुरुष निरीक्षकों की ईर्ष्या और स्त्रियों के प्रति उनके विद्वेष की बात की थी। यह समझना क़तई मश्किल नहीं कि शिक्षण, प्रशिक्षण, समाज सुधार, स्वास्थ्य, चिकित्सा, राजनीति सब पुरुषों के इलाक़े थे और ये स्त्रियाँ जो कर रही थीं, वह इसी एकच्छत्र राज में सेंधमारी की तरह था। स्वाभाविक है कि इन स्त्रियों ने पुरुष ईर्ष्या (या आज जो हमारे पास एक बेहतर शब्द है – मिसोजिनी, स्त्री-द्वेष) को महसूस किया था।
अप्रैल 1883 के महीने में ही ये दोनों स्त्रियाँ डॉक्टरी की पढ़ाई करने समुद्र पार की यात्रा पर अलग-अलग दिन अलग-अलग बन्दरगाह से अलग- अलग गंतव्य के लिए निकल पड़ीं। 7 अप्रैल को आनन्दी बाई जोशी कलकत्ता से अमेरिका और 20 अप्रैल, 1883 को रमाबाई इंग्लैंड के लिए मुम्बई से रवाना हुई।
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संदर्भ
सुजाता, विकल विद्रोहिणी पांडिता रमाबाई, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,2023
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