अकबर और राजपूत रजवाड़े
अकबर और राजपूतों के बीच युद्ध और संबंधो को लेकर बहुत कुछ कहा जाता है। एस.इनायत अली ज़ैदी ने अकबर और राजपूतों के बीच प्रशासनिक रिश्ते और नियम-कायदों के बारे में विस्तार से इरफ़ान हबीब ने अपनी किताब-अकबर और तत्कालीन भारत में, अकबर और राजपूतों रजवाड़ों का साम्राज्य में एकीकरण में विस्तार से लिखा है। पढिए इसी किताब से एक हिस्सा : सं
अकबरनामा और आइने-अकबरी, जो अकबर और उसके साम्राज्य-संबंधी आधिकारिक स्त्रोत हैं, कुलीनों और उनके आश्रितों को छोड़ दें तो उसके साम्राज्य को दो वर्गों में विभाजित करते हैं। एक तो शासन-समूहों से नीचे के समूह हैं, और दूसरे प्रजा है।
पहले वाले समूहों को ज़मीनदार, बूमीयान, मर्जबानान और अक़वाम कहा गया है तो दूसरे समूह को रैयत और मुर्दुम।[i] इन शब्दों का कोई धार्मिक अन्त:तत्व नहीं है और बादशाह होने के नाते, अकबर दोनों समूहों के हितों की देखभाल करना अपना फ़र्ज समझता था।
पहले के प्रति अपने सरोकार के चलते उसने शासक-समूहों का मुगल साम्राज्य-व्यवस्था से एकीकरण किया। एक तरफ़ स्वतंत्र शासकों को मात देकर अकबर ने स्थानीय समूहों की ताकत को नष्ट किया| दूसरी तरफ़ उसको साम्राज्य के शासन वर्ग का अंग बनाकर उनकी शक्ति को प्रतिष्ठा में वृद्धि की।
यह नीति उसके पूर्वजों की नीति से अलग थी और इसने भारतीय राज-व्यवस्था को एक भारी मोड़ दिया। अभी तक चलती चली आई नीति यह थी कि एक स्थानीय सरदार को अधीन बनाया जाता था, उससे भारी रक़म ली जाती थी[ii] , और फिर उसे उसके क्षेत्र में स्वतंत्र छोड़ दिया जाता था।
अकबर ने इन सरदारों को फौजी सरबराहों के रूप में सम्राज्य की सेवा का अवसर देकर और उनके साथ तूरानी और ईरानी सरदारों के बराबर का व्यवहार करके उनको रंगमंच के बीच खड़ा कर दिया।
पेशकश वसूलने और जरूरत पड़ने पर उसने फौजी सेवा की मांग करने की पुरानी नीति से स्थानीय शासकों के ही नहीं। बल्कि रैयत के हित भी बुरी तरह प्रभावित होते थे कि अन्तत: इनका बोझ उन्हीं को उठाना पड़ता था।
इस तरह सरदार और उसके रिआया के हित एक जैसे हो जाते थे और केन्द्र के जुए को उतार फेंकने में उनकी बराबर दिलचस्पी होती थी। लेकिन लने-देन की नीति अपनाकर अकबर ने सरदारों के हितों को केन्द्रीय सत्ता से जोड़ दिया और एक उच्चतर स्तर पर एक ठोस सम्बन्ध की बुनियाद रखी।[iii]
अकबर और राजपूत सरदारों के शासकीय सम्बन्ध
16वीं सदी तक देशी शासकों के बीच राजपूत सरदारों को एक मज़बूत मुकाम हासिल हो चुका था। सैनिकों और जंगी इस्तेमाल के जानवरों के एतबार से उनकी सैन्य-शक्ति को पहचानकर[iv] अकबर ने उसको मुगल शासन वर्ग में शामिल किया।
मुगल सेना में प्रवेश को उसने सरदारों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि निचले स्तर के वंशो के सरदारों के लिए भी इसके दरवाज़े खोल दिए। उनको भी मनसब दिए गए और मुगल सेवा में उसने बराबर का सुलूक किया जाता रहा। इसमें सिर्फ़ मनसबों के श्रेणीक्रम का ध्यान रखा जाता था।
इस तरह भरती किए गए सरदारों को जो मनसब दिए जाते थे, उसके अनुसार फौजी दस्ते तैयार करने के लिए उनको सिपाहियों की ज़रूरत पेश आती थी। नतीज़ा यह हुआ कि शुरु-शुरु में इन सिपाहियों की एक बड़ी तादाद किसान-सैनिकों की होती थी।[v]
उन्हें जो जमीन से आमदनी होती थी उसके अलावा वे मुगल मनसबदारों की फौजी सेवा करके कुछ और भी कमाने लगे। इस तरह राजपूर सरदारों और उनके सिपाहियों के इलाकों में कुछ दौलत आई जो सल्तनत की सेवा से प्राप्त आय की देन होती थी।
अकबर ने साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजपूत सरदारों को सूबेदार, फौजदार, दीवान और किलेदार जैसे ऊँचे प्रशासनिक पद देकर उनको उच्चतम श्रेणी के कुलीनों में भी शामिल किया।[vi]
केंद्र और इलाकेदारों के सम्बन्धों को अकबर ने नया मोड़ दिया शाही सेवा में राजपूत सरदारों को भरती के शुरुआती चरणो में लगता है कि अकबर ने परपरागर नीति का ही पालन किया। इस नीति में किसी सरदार पर विजय पाने के बाद उसका इलाका उसी के पास रहने दिया जाता था, शर्त सिर्फ़ यह होती थी कि वे ज़रूरत पड़ने पर फौजी सेवा प्रदान करेंगे।
राजपूर सरदारों से टकराव के बाद अलग नीति का पालन
जो शासक राजपूत सरदार अपने स्वामियों से टकराव के बाद अकबर के सेवा में आए थे, उनके साथ ज़ाहिर है कि ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की जा सकती थी। एक वैकल्पिक उपाय यह था कि प्रमुख सरदार से कुछ इलाका छीना जाएं और दूसरे राजपूत कुलीनों को जागीरों के रूप में दिया जाए।
सरदारो और उनके सम्बन्धियों, दोनों को जागीरें देने की यह नीति तब और महत्वपूर्ण हो उठी जब 1573-74 मे कुलीनों के संख्यात्मक श्रेणी क्रम तय किए गए।[vii] 1573 में मानसिंह को मालवा में खिचीवार में जागीर मिली हुई थी।[viii] 1578 के पहले कछवाह सरदारों को जब पंजाब में तैनात किया गया तो उन्हें वहाँ जागीरें दी गई।[ix]
मसलन, राजा मालदेव के वंशजों के बीच उत्तराधिकारी-सम्बन्धी विवादों का फायदा उठाकर अकबर ने कोई बीच वर्षो(1563-83) तक जोधपुर पर साम्राज्य का प्रत्यक्ष नियंत्रण बनाए रखा। [x] लेकिन निरंतर प्रतिरोध का सामना होने पर अकबर ने जोधपुर को अपने प्रिय अधिकारी उदयसिंह को दे देने का फैसला किया जो जनता के बीच मोटा राजा कहा जाता था।[xi]
नगरकोट को जो बागी राजा जयचंद के इलाले का हिस्सा था, जब 1572-73 में अकबर ने राजा बीरबल को जागीर के रूप में दे दिया तो इसका भारी विरोध हुआ।[xii] तब अकबर ने नगरकोट को वापस राजा के ही हवाले कर दिया तथा शाही दरबार और राजा के बीच एक संधि हुई।[xiii]
राजपूत सरदारों के मनसब देने के नियम क़ायदे
अकबर ने 1573-74 में अपने कुलीनों को मनसब देने का फैसला किया औग दाग़ के नियम-कायदे जारी किए।[xiv] मनसबदारों और उनके सिपाहियों के वेतन आदि के लिए साम्राज्य की जमा नए सिरे से निर्धारित करने का फैसला किया गया। जमा के आकलन के लिए अकबर ने अपने साम्राज्य के विभिन्न भागों में करोड़ी भेजे।[xv] राजपूतों रजवाड़ों को भी करोड़ी भेजे गए। फिर भी जब 1575 में बीकानेर और सांभर की जमा तय करने के लिए ये करोड़ी वहां पहुंचे तो वहाँ सरदारों ने उन्हें इसकी इज़ाजत नहीं दी।[xvi]
1592-93 में उत्तराधिकार के सवाल का फायदा उठाकर अकबर ने भट्टा क साम्राज्य के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखने की कोशिश की।[xvii] आगे चलकर 1598-99 में इसे शाहजादा दानियाल को दे दिया गया।[xviii] लेकिन भट्टा के सरदारों के कड़े विरोध के चलते अकबर ने उसे फिर वहां के शासक विक्रमजीत को वापस सौंप दिया [xix] और सरदार को क़िलेदार का दर्जा दिया गया।[xx]
हम यह भी देखते हैं कि कुलीनों के भूतपूर्व रजवाड़ो के कुल हिस्से दूसरे कुलीनों को दिए गए और कभी-कभी शाही भूमि में भी मिला लिया गए। बादशाह ने 1572 में आम्बेर परगना के एक महल सांगनीर को बतौर जागीर रामदास उदावत को सौपा।[xxi]1597 में आम्बेर परगना का एक गांव पुनवलिया उदक(मालगुजारी से मुक्त भूमिदान) के रूप में एक ब्राह्मण धर्मराज जोशी को सौंप दिया गया। [xxii]1570 की दहाई में नगरकोट के कुछ हिस्से कब्जा करके खालिस में मिला लिए गए।[xxiii] 1596 में पहाड़ी राजा बासू के रजवाड़े के एक महल पैठन को बतौर जागीर मिर्जा रुस्तम को दे दिया गया।[xxiv]
राजा सिरोही का मुआमला खास ध्यान देने के हकदार है। राव के सुल्तान के अधीनता स्वीकार कर लेने के बाद सिरोही का पूरा रजवाड़ा और आबूगढ़ सैयद हाशिम बुखारी के प्रशासनिक प्रभार में दे दिए गए।[xxv] इस इलाके का आकंलन किया गया और जमादामी तय कर दी गई।[xxvi]
यह रजवाड़ा फिर शाही सेवा के लिए और 200 सवारों के रखरखाव के लिए गुजरात के सूबेदारों को बतौर जागीर दिया जाने लगा।[xxvii]
इसमें अहम बात यह है कि इस इलाके के रणनीतिक महत्व को समझकर और मेवाड़ के सिसौदिया राणाओं के प्रति सिरोही के सरदारों की पिछली अधीनता के मद्देनज़र, अकबर ने रजवाड़े का आधा भाग राव के हाथों से ले लिया जिससे राव की शक्ति कम हुई और एक भाग बतौर जागीर जगमल सिदौदिया को दे दिया गया। राणाप्रताप का यह भाई अकबर की सेवा में था।[xxviii]
विभिन्न कुलीनों के इलाकों के बहुत से सरदार, जिनकी हैसियत ठिकानेदारों और पट्टेदारों की थी, सीधे शाही सेवा में ले लिए गए और उनके इलाको को पिछले सरदारों से स्वतंत्र अलग मनसब माना जाने लगा। जाहिर है इस तरकीब का दोहरा प्रभाव हुआ : पहला इससे ऊंचे सरदारों के इलाके घट गए और दूसरा वंशों की एकजुटता टूटी और कमजोर हुई। अब ये उप-सरदार अपने पिछले सरदारों की बजाय सीधे बादशाह के सामने जवाबदेह बन गए।
आम्बेर के कछवाह क्षेत्र के देवसा, नरैना, लाघव, सांभर और अमरसर के इलाकों को विभिन्न सरदारों की स्थायी जागीरों का दर्जा दिया गया।[xxix] इसी तरह राव मालदेव और उनके उत्तराधिकारी चंद्रसेन के नियंत्रण वाले एक बड़े क्षेत्र को बतौर जागीर उनके सरदारों को सौंप दिया गया। मेरता, जैतरन, सोजत, सीवाना और जालौर के मुआमले यहां दर्ज करने के काबिल है।[xxx] मेवाड़ के सिदौदिया राजाओं के जिन ठिकानेदारों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली, उनको उनके ठिकाने जागीरों के रूप में दे दिए गए। राव सुरजन हाड़ा और राव दुर्गा चन्द्रावत ने जब अकबर की बादशाही कुबूल कर ली तो उनको उनके ठिकाने यानी बूंदी और रामपुरा बतौर जागीर वापस मिल गए।[xxxi]
प्रशासनिक सुधार से बेहतर हुए राजपूत रजवाड़ों से रिश्ते
प्रशासनिक संस्थाओं के निरंतर सुव्यवस्थी करण के चलते अकबर ने जात और सवार का एक अंतर कायम किया[xxxii], वही लगता है कि उनके मन में साधारण जागीर और वतन जागीर के अंतर का विचार भी पैदा हुआ।
साधारण जागीर और वतन जागीर का एक जाहिरा अंतर लगता है कि पहली बार, खास तौर पर 1604 के आसपास, बीकानेर के राजा रायसिंह के नाम अकबर के फरमान मे किया गया। इस दस्तावेज में कहा गया है कि जहां कथित महल लंबे अरसे से राठौरों की जागीरों से जुड़ा हुआ रहा है, वहीं हमने भारी कृपा के चिन्हस्वरूप दोनों परगनो (शम्साबाद और नूरपुर) को वतन जागीर के रूप में उन्हें (राव रायसिंह को) प्रदान किया। [xxxiii]
अकबर ने शायद यह एहसास भी था कि राजपूर सरदारों का लगाव उनके पैतृक इलाकों तक सीमित रहेगा तो इससे स्थानीय वफादारियां मजबूत होंगी, पर उनके पैतृक इलाकों से काफी दूर अगर कोई वतन जागीर कायम की जाती है तो इससे मजबूरी की हालत में सरदारों के अपने हित साम्राज्य के हित से एकाकार हो जाएंगे।
चूंकि इन सरदारों ने मुलग सेवा कबूल की थी और उनको मनसब दिए गए थे, इसलिए उनको उनके वेतन के बराबर राजस्व किसी जागीर के रूप में दिया जाता था। इसके चलते राजस्व का एक भाग हमेशा ही सरदारों को उनके वतनों में चला जाता था। इस तरह सरदारों को उनके वतनों में मिलनेवाले राजस्व उनके वेतन के अंश होते थे, न कि कोई अतिरिक्त विशेषाधिकार।[xxxiv] लगता है यह समय-समय प र बदलता रहता है था।[xxxv]
दूसरे शब्दों में अकबर का कौल था कि सरदारों को उनके वतनों में मिलनेवाले राजस्व उनकी फौजी सेवाओं के पारितोषिक थे; ये उनको केवल उनके पैतृक अधिकार स्वरूप नहीं मिलते थे। इस पारितोषिक की प्रकृति सभी अर्थो में एक साधारण जागीर जैसी होती थी, सिवाय एक अर्थ के, यानी यह हस्तान्तरण से सुरक्षित होता था उसे स्थिर नहीं माना जाता था, जैसाकि कुछ विद्वानों मे समझ लिया है।[xxxvi]
लगता है कि यह समय-समय पर बदलता रहता था। यह एक प्रथा सी बन गई थी कि राजस्व का एक भाग हमेशा ही वतन में हर उत्तराधिकारी सरदार को उसकी पैतृक सरदारी के चिन्हस्वरूप, दिया जाएगा।
दिए जाने वाले इन वतनों के अलावा राजस्व का एक अच्छा खासा भाग वतन से लगे इलाकों में स्थित साधारण जागीरों में भी दिया जाता था। चूंकि सरदारों के पास यह राजस्व भी एक पीढ़ी से अधिक समय तक या लबे काल तक रहता था, इसलिए वे अकसर उसे गलती से अपना वतन समझ लेते थे, जबकि मुलग प्रशासन उस आमदन को साधारण प्रकृति वाला ही मानता रहा जिसे मौके का तकाज़ा होने पर वापस लिया या हस्तान्तरित किया जा सकता था।
समझ का यह टकराव 1693 में सामने आया जब आम्बेर से लगे परगनों में स्थित जागीरें राजा बिशनसिंह को नहीं दी गई। राजा ने फौरन मुगल दरबार में एक अर्जी लगा दी। उसने न दी गई जागीरों पर वतनदारी के अधिकारों का दावा इस आधार पर किया कि राजा मानसिंह के समय से ही हेलवी, बसवा, नेवई और फागी के परगने आम्बेर के शासकों को सौंपे जाते रहे हैं। इसके बाद बादशाह ने इस जागीर की वास्तविक प्रकृति के बारे में एक जांच बिठा दिया।[xxxvii]
वतन जागीर के रूप में स्थायी हित की इस धारणा को अकबर ने सामान्य परिस्थितियों में सरदारों को बेदखल न करके और मज़बूत बनाया। पर उत्तराधिकारी के निश्चय में हस्तक्षेप करके उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि अंतिम अधिकार उसी को प्राप्त है।
वास्तव में उसके संरक्षक बैरम खां ने यह बात बहुत पहले ही स्पष्ट कर दी थी जब उसने1557 में, अकबर का अधिराजत्व स्वीकार करने में हिचकनेवाले, मऊ के बख्तमल को बेदखल करके उसके जगह उसके भाई तख्तमल को बिठा दिया था।[xxxviii] अकबर ने 1576 में राणाप्रताप के सहयोग के आरोप में बूंदी के राव सुरजन हाड़ा के सबसे बड़े बेटे दूदा को बेदखल कर दिया और सरदार का ओहदा उसके छोटे भाई भोज हाड़ा को दे दिया।[xxxix]
जब 1592 में भट्टा के सरदार बलभद्र बघेला की मौत हुई तो उसके सरदारों ने उसके बेटे विक्रमजीत को उसका उत्तराधिकार कहकर आगे बढ़ाया। जब अकबर को यह बात पता चली तो उसने उत्तराधिकार को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उसका अनुमोदन नहीं प्राप्त किया गया था।[xl] सरदारों ने लंबे समय तक प्रतिरोध किया पर अकबर बलभद्र के छोटे बेटे दुर्योधन को गद्दी पर बिठा दिया।[xli]
इस तरह जहां अकबर ने पैतृक संपत्तियों से राजपूत सरदारों के भावनात्मक लगाव को स्वीकार किया और इसलिए पुराने सरदारों को उनके वतनों से बेदखल करने से बचता रहा, वहीं उसने व्यवस्थित ढंग से साम्राज्य में उनके राजवाड़ो का एकीकरण भी किया।
राजपूत सरदारों का हित
साम्राज्य के दूसरे भागों में जागीरों और प्रशासनिक पदों की पेशकश के कारण सरदार इस स्थिति को स्वीकार भी करते रहे। इस कदम का खुद राजपूत सरदारों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। उनकी दृष्टि स्थानीय हितों से ऊपर उठकर व्यापकतर नौकरशाहाना महत्वकांक्षाओं की ओर जाने लगी। इसका एक दिलचस्प पहलू यह था कि साम्राज्य के दूरदराज क्षेत्रों में जागीरें मिलने के बाद राजपूत सरदार दूसरे राजपूत वंशों और पारिवारों से और घनिष्ट हुए। जिनके साथ पहले उनका कोई संबंध या संपर्क न था। रजस्थान तथा पूर्वी और मध्य भारत के राजपूत सरदार अब एक-दूसरे से विवाह-संबंध स्थापित करने लगे।[xlii]
राजपूत जमीरदारों ने अपनी जागीरों में अनेक स्थानीय व्यक्तियों को भी काम से लगाया जो आगे चलकर सरदारों एक साथ उनके पैतृक इलाकों में चले गए और वहीं बस गए। दूसरी और राजस्थान के अनेक राजपूत साम्राज्य के दूसरे भागों में बस गए। वहां उन्होंने नई बस्तियां और क़स्बे बसाए तथा अपने खुद के साधनों से मंदिरों और मस्जिदों का निर्माण कराया(जैसे राजमहल में मानसिंह की मस्जिद)।
इस तरह अकबर के काल में एक समन्वित राज-व्यवस्था के विकास के साथ वर्गीय हितों का एकीकरण भी हुआ। हालांकि उस समय आधुनिक अर्थ में राष्ट्र की कोई धारणा संभव ही नहीं थी, फिर भी मुगल साम्राज्य में राजपूत रजवाड़ो का एकीकरण भारत की भौगोलिक धारणा को एक राजनीतिक इकाई का रूप देने की प्रक्रिया में निश्चित ही एक अग्रगामी कदम था।
सदर्भ-स्त्रोत
[i] इरफान हबीब, द एग्रेरियन सिस्टम आंफ मुगल इंडिया, मुबंई, 1963,पेज न.136-41
[ii] इक्तदार आलम खान, द नोबिलिटी अंडर अकबर एंड द डवलपमेंट आफ हिज रिलीजस पालिसी, 1560-80, जर्नल आंफ रायल एशियाटिक सोसायटी 1968,पेज न. 26-26
[iii] तारीखे-अकबर,सं मुईजुद्दीन नदवी, रामपुर, 1962, पेन न. 47-48
[iv] आइने-अकबरी, सं.ब्लाखमान,एक, पेज न. 508-13(सूबा अजमेर देखे)
[v] एस इनायत ए जैदी, आर्गेनाइजेशन एंड कम्पोजीशन आंफ द कटिजेंटस आफ द कछवाहा नोबुल्स, स्टडीज इन हिस्टरी, वर्ष दो, अंक 1, 1980
[vi] अहसन रजा खान, चीफटेस इन द मुगल इम्पायर डूयूरिग द रीन आफ अकबर, शिमला, 1977, पेज न.115,209
[vii] ए.जे कैसर, नोट आन द डेट आंफ इस्टीटयुशन आंफ मनसब अंडर अकबर, प्रोसीडिग्स आंफ द इंडियन हिस्त्री कांग्रेस, 1961, पेज न.1961
[viii] अकबरनामा, तीन, पेन न.43; मुहता नैनसी, मुहता नैनसी री ख्यात,सं:बद्रीप्रकाश सकारिया, राजस्थान ओरिएटल रिसर्च इंस्टीटूयूट, जोधपुर,1960, एक, पृ 342
[ix] अकबरनामा, तीन, पेन न.248
[x] अकबरनामा, तीन, पेन न.197
[xi] मुहता नैनसी, मारवाड़ रा परगना री विगत,सं:फतेहसिंह, जोधपुर, 1968, एक, पेज नं 76
[xii] अकबरनामा, तीन, पेन न.270
[xiii] वही
[xiv] ए आर खान, चीफ़टेंस इन द मुगल इम्पायर,उपरोक्त, पृ.57,टिप्पनी114 से
[xv] अकबरनामा, तीन, पेन न.69
[xvi] उपरोक्त, पेन न.717,728,740
[xvii] मुंतखबुत-तबारीख, दो, पेज न.
[xviii] दलपत विलास, सं: रावत सारस्वत, सादलू रिसर्च इंस्टीयूट, बीकानेर, 1960, पेन न. 33, मुहता नैनसी की ख्यात, एक, पेज न.306 देखे। एस इनायत ए जैदी, द ओरिजन आफ द इंस्टीट्यूशन आफ वतन जागीर, उपरोक्त, पेज न.641, 648 भी देखे।
[xix] अकबरनामा, तीन,पेज न.648
[xx] उपरोक्त, पेन न.717,728,740
[xxii] उपरोक्त, पेज न.788
[xxiii] मारवाड़ रा परगना री विगत, एक.पृ.76;श्यामल दास, वीर विनोद, पुरर्मुद्रण, दिल्ली, 1986,तीन भाग तीन, पृ. 815
[xxiv] एम अतहर अली, द मुगल नोबिलिटी अंडर औरगजेब, पुनर्मुद्रित संस्करण, मुबंई, 1970,पेज न. 70; एस नरूल हसन, जर्मीदार्स अंडर द मुगल्स, लेंड कंट्रोल एंड सोसल स्ट्रक्चर इन इंडियन हिस्त्री, सं: राबर्ट एरिक फ्राइकेनबर्ग, विस्कांसिन, 1969, पेज न.21.
[xxv] अकबरनामा, तीन, पेज न. 788
[xxvi] निज़ामुद्दीन अहमद, तबकाते-अकबरी,1594,सं: बी डे, बी.इं, कलकत्ता, दो, पेज न.442; अब्दुल बाकी नहाबंदी, मआसिरे-रहीमी, 1616, सं: हिदायत हुसैन, बि इं, एक, पेन 804; मुहता नैनसी री ख्यात, एक पेज न..331
[xxvii] राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर की पुरानी रिकार्ड में यह फाइल सुरक्षित है
[xxviii] जे हचिंसन, हिस्टरी आंफ द पंजाब हिल स्टेट्स, लाहौर,1933,पेज न.73-74, पेज न. 146. गटेटियर आंफ कांगड़ा डिस्ट्रक्ट, ए आर खान, चीफटेंस इन द मुगल इम्पायर, उपरोक्त में पृ 42 पर उदधृत।
[xxix] अकबरनामा, तीन, पृ.712
[xxx] उपरोक्त, पेज न. 197
[xxxi] आईने अकबर, दो, पेज न. 251
[xxxii] अली मुहम्मद खान, मीरासे-अहमदी, सप्लिमेंट,सं: सैयद नवाब अली, बडौदा,1927-28, पेज न. 226|सिरोही के सददारो को जमीदारों का मर्तबा दिया गया था, पर उनके इलाके दूसरे जागीरदारों को सौप दिए गए थे।(इरफान हबीब, एग्रेरियन सिस्टम आंफ मुगल इंडिया, पेज न. 184-85)
[xxxiii] अकबरनामा, तीन, पेज न.413
[xxxiv] अकबरनामा, तीन, पेज न.156-57;मुहता नैनसी री ख्यात, एक, पेज न. 304-308
[xxxv] मारबाड़ रा परगना री विगत, दो पृ.495;अकबरनामा, दो, पेज न. 34.80-82
[xxxvi] मारबाड़ रा परगना री विगत, एक .76, वीर विनोद, तीन, पेज न. 488-89
[xxxvii] एस.सी. गुप्त, द एग्रेरियन सिस्टम आंफ इस्टर्न राजस्थान दिल्ली 1986, पेज न. 2
[xxxviii] सतीशचंद्र, राजस्थान इतिहास कांग्रेस, अजमेर 1975 के आठवे सत्र में अध्यक्षीय भाषण, जी डी शर्मा, राजपूत पालिटी, दिल्ली, 1977, पेज न. 26-27
[xxxix] अकबरनामा, तीन, पेज न 63
[xl] मारबाड़ रा परगना री विगत, एक .76, वीर विनोद, तीन, पेज न. 815
[xli] अकबरनामा, तीन, पेज न.641-48
[xlii] अकबरनामा, तीन, पेज न.576,630
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