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पुस्तक अंश: नेहरू के सवाल और प्रेमचंद के जवाब

 

 मुंशी प्रेमचंद ने जनवरी 1936 में हंस पत्रिका के अपना सम्पादकीय, पं. नेहरू के हिंन्दी साहित्य से निराशा पर लिखा था। यह लेख लोकभारती प्रकाशन के ‘विचार का आईना प्रेमचंद’ किताब में आशुतोष पार्थेश्चर के सम्पादन और बद्री नारायण के श्रृंखला सम्पादन में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।

तत्कालीन राजनीति और साहित्य को समझने के लिए इस महत्त्वपूर्ण लेख को हम यहाँ साभार प्रकाशित कर रहे हैं -सं

पं. नेहरू की निराशा

श्री पं. जवाहरलाल ने नवम्बर के विशाल भारत में हमारा साहित्य शीर्षक  देकर एक बड़े मजे का साहित्यक नोट लिखा है। आपने  विशाल भारत के किसी लेख में कहीं पढ़ा था कि हिन्दी-साहित्य ने इन दिनों बहुत उन्नति कर ली है और उसमें शेक्सपियर और बर्नाड शा उत्पन्न हो गए हैं।आपने उस कथन पर विश्वास भी कर लिया और मित्रों से कुछ पुस्तकें मंगवाकर पढ़ भी डालीं, मगर जैसा कि होना चाहिए था, आपको निराशा हुई।

आपको शायद यह संदेह हुआ कि आपके पास ऊँचे दर्जे की पुस्तकें नहीं भेजी गई और आपने हिन्दी-संसार से अनुरोध किया कि वह गत तीस-पैंतीस वर्षों में लिखी गई प्रत्येक विषय की पुस्तकों की एक सूची बनाकर प्रकाशित करे, ताकि हिंन्दी साहित्य के पारखियों को हिन्दी की प्रगति जाँचने का अवसर मिले।

यह सूची तो शायद विशाल भारत में छपे, या कोई दूसरे महानुभाव छपवाएं, उससे हमें यहाँ बहस नहीं, हमें तो यही आश्चर्य है कि पंडित जी ने कैसे यह विश्वास कर लिया कि हिन्दी साहित्य  ने इतनी उन्नति कर ली है।

 

केवल महिलाओं के पत्र-व्यवहार की ही भाषा बनी हुई है हिन्दी

जब नवीन हिन्दी साहित्य की उम्र  ही अभी पच्चीस-तीस वर्ष से ज्यादा नहीं है और अभी तक वह केवल महिलाओं के पत्र-व्यवहार की ही भाषा बनी हुई है, जब पढ़े-लिखे लोग हिन्दी लिखना अपने शान के खिलाफ समझते हैं, तब हमारे नेता हिन्दी साहित्य से प्राय: बेखबर-से हैं, जब हम लोग थोड़ी-सी अंग्रेजी लिखने की सामर्थ्य होती ही हिन्दी को तुच्छ और ग्रामीण भाषा समझने लगते हैं, तब यह कैसी आशा की जा सकती है कि हिंदी  के ऊँचे-दर्जे की साहित्य का निमार्ण हो।

एक तो पराधीनता यों ही हमारी प्रतिभा और विकास में चारों ओर से बाधक हो रही है, दूसरा हमारा शिक्षित समुदाय हिन्दी-साहित्य से कोई सरोकार नहीं चाहता, तो साहित्य में प्रगति और स्फूर्ति कहाँ से आए?

और जब जीवन के किसी क्षेत्र में हम योरप से मुकाबला करने का दावा नहीं कर सकते-हमारे लेनिन और त्रात्स्की और नीत्शे और हिटलर अभी अवतरित नहीं हुए- तो साहित्य में वह तेजस्विता कहाँ से आ जाएगी? योरप और अमेरिका में ऐसा शायद ही कोई शिक्षित व्यक्ति होगा, जो अपने राष्ट्र के साहित्य और संस्कृति से भली-भांति परिचित न हो।

 

त्रात्सकी ने क्रान्तिकारी साहित्य के हर एक संग की विशद आलोचना की, खोटे-खरे की परख की और कमोबेश सभी शिक्षितों के विषय में यह बात कहीं जा सकती है, मगर हिन्दी भाषी शिक्षुत समाज अपने साहित्य को तिरस्कार करने में अपना गौरव समझता है। जिस चीज का कोई पुछ्न्तर नहीं, वह अगर आपको निराश करती है तो आश्चर्य नहीं।

ऊंचा साहित्य तभी आयगा, जब प्रतिभा-समपन्न लोग तपस्या की भावना लेकर साहित्य-क्षेत्र में आएंगे, जब किसी अच्छी पुस्तक की रचना राष्ट्र के लिए गौरव की बात समझी जाएगी, जब उसकी चाय के मेजों पर चर्चा होगी, जब उसके पात्रों के गुण-दोष पर शिक्षित मित्र-मंडलियों में आलोचनाएं होंगी, जव विद्वान लोग साहित्य में रस लेंगे।

जिस साहित्य की उपेक्षा जाति हो, जिस समाज में साहित्य की रुचि नहीं के बराबर हो, वहाँ हो कुछ भी हो रहा हो वही गनीमत है। हमारे यहाँ वही साहित्य की सेवा करते हैं, जिन्हें कोई काम नहीं मिलता, या जो लोग मनोविनोद के लिए कभी-कभी कुछ लिख-पढ़ लिया करते हैं। ऐसे अरसिक समाज में उच्चकोटि का साहित्य क़यामत तक न आएगा।


संदर्भ स्त्रोत

लोकभारती प्रकाशन के विचार का आईना प्रेमचंद, सम्पादन आशुतोष पार्थेश्चर और श्रृंखला सम्पादन बद्री नारायण, 2023, दिल्ली, पेज न.-112

सम्पादकीय । हंस, जनवरी 1936 में प्रकाशित विविध प्रसंग भाग –3  में संकलित।

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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