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क्या सावरकर ने सभी क़ैदियों की रिहाई की माँग की थी?

1914 में पहला विश्वयुद्ध शुरू होने पर सावरकर ने एक बार फिर ब्रिटिश सरकार से रिहाई के लिए याचिका प्रस्तुत की। उन्होंने इस विश्वयुद्ध को अपनी स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने तथा रिहाई हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया। सावरकर लिखते हैं-

जबसे दुनिया को हिला देने वाला युद्ध योरप में शुरू हुआ है, हर देशभक्त भारतीय के हृदय में इससे अधिक कोई विचार उम्मीद का रोमांच और उत्साह कुछ और पैदा नहीं कर रहा जितना कि यह तथ्य कि भारत के युवाओं को इस देश तथा साम्राज्य की रक्षा के लिए एक साझा शत्रु से लड़ने हेतु हथियार उठाने का मौक़ा मिलेगा।[1]

जब हरदयाल, वीरेंद्र कुमार चट्टोपाध्याय, राजा महेंद्र प्रताप सिंह जैसे अनेक क्रांतिकारी इस विश्व युद्ध को आज़ादी हासिल करने का मौक़ा मानते हुए जर्मनी के साथ मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ लड़ रहे थे तो उनके प्रेरणास्रोत रह चुके सावरकर भारत और ब्रिटिश साम्राज्य के हित को एक बता रहे थे और ब्रिटिश सेना की तरफ़ से लड़ने को गौरव की बात कह रहे थे!

यही सावरकर अपने संस्मरण में हरदयाल और बाक़ी साथियों के जर्मनी से संपर्क बनाने का श्रेय लेते हैं। दोनों को मिलाकर पढ़िए तो संस्मरण और वास्तविकता के बीच के चौड़ी फाँक नज़र आती है। फिर कोई भी निष्पक्ष इतिहासकार उनके संस्मरणों को अंतिम सत्य कैसे मान सकता है?

इस खत के तीसरे हिस्से में वह एक प्रस्ताव देते हैं –

इसलिए मैं अत्यंत विनम्रता से स्वयं को वर्तमान युद्ध में ऐसी किसी भी सेवा में एक स्वयंसेवक के रूप में प्रस्तुत करता हूँ जिसके लायक़ भारत सरकार मुझे समझे। मैं जानता हूँ कि एक साम्राज्य मुझ क्षुद्र व्यक्ति की सहायता पर निर्भर नहीं करता, लेकिन फिर मैं यह भी जानता हूँ कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह जितना भी क्षुद्र हो अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए अपना सर्वोत्तम देने के लिए कर्त्तव्य-बद्ध है।

मैं यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि भारतीय लोगों में वफ़ादारी की भावना को कोई दूसरी चीज उतना गहरा और विस्तृत नहीं बनाएगी जितना कि उन सभी कैदियों की आम रिहाई जिन्हें भारत में विभिन्न राजनैतिक अपराधों के लिए गिरफ़्तार किया गया है। [2]

 

 


जब सावरकर ने किया अंबेडकर का अपमान  


 

सबसे रोचक चौथा और आखिरी हिस्सा है जिसमें सावरकर के भीतर का मेधावी वकील अपनी पूरी चालाकी के साथ सामने आया है। वह लिखते हैं –

यदि सरकार को यह शक है कि यह सब लिखने के पीछे मेरा वास्तविक उद्देश्य अपनी रिहाई हासिल करना है तो मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि मुझे एकदम रिहा न करें, मुझे छोड़कर बाक़ी सबको रिहा कर दें, स्वयंसेवक अभियान चलने दें- और मैं ऐसे प्रसन्न होऊँगा जैसे मुझे खुद को सक्रिय भूमिका निभाने की अनुमति दी गई है। केवल एक शुद्ध नीयत से सही चीज़ों को किए जाने की इच्छा से आपके कृपालु विचार हेतु मैंने यह  स्पष्ट शब्दों में खुलकर यह याचिका लिखने की हिम्मत की है।[3]

इस हिस्से को आधार बनाकर कई बार दावे किए गए हैं कि सावरकर असल में सबकी रिहाई की बात कर रहे थे। संपथ जैसे जीवनीकार भी इसे दुहराते हैं।

लेकिन इस पूरे खत को पढ़ते हुए जो चीज़ साफ निकलकर आती है, वह यह कि पिछली दो याचिकाओं पर कोई प्रतिक्रिया न पाने से व्यग्र सावरकर किसी भी तरह ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी निष्ठा का प्रदर्शन करना चाहते हैं। वह जानते हैं कि ब्रिटिश शासन रिहाई की उनकी कोशिशों से वाकिफ है और उन पर भरोसा नहीं करता इसलिए वह न केवल प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल होने का प्रस्ताव देते हैं बल्कि आखिर में अपनी निष्ठा साबित करने के लिए लिखते हैं कि अगर दूसरों को छोड़ा गया तो भी “मैं ऐसे प्रसन्न होऊँगा जैसे मुझे खुद को सक्रिय भूमिका निभाने की अनुमति दी गई है।”

एक सवाल और है – क्या दूसरे भी उनकी तरह रिहा होकर ब्रिटिश सरकार की सेवा करने को तैयार थे? अगर मानिकटोला के क्रांतिकारियों और उनके साथ के लोगों का जेल मे रहते और छूटने के बाद का व्यवहार देखा जाए तो शायद वारीन्द्र कुमार घोष, सावरकर के भाई और कुछेक लोगों के अलावा कोई नहीं, तो असल में सावरकर सबकी नहीं सिर्फ़ उनकी रिहाई की बात कर रहे थे जो छूटने के बाद अँग्रेज़ों के साथ जाने को तैयार थे।

ज़ाहिर है कि यह प्रस्ताव उनके लिए नहीं था जो किसी हाल में अँग्रेज़ों के साथ खड़े होने को तैयार नहीं थे।


 

स्रोत

[1] पेज 458, सावरकर : ईकोज़ फ्रॉम अ डिस्टेंट पास्ट, विक्रम संपत, पेंगुइन-2019

[2] वही

[3] पेज 459, सावरकर : ईकोज़ फ्रॉम अ डिस्टेंट पास्ट, विक्रम संपत, पेंगुइन-2019

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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