जन्मदिन विशेष : कश्मीर और बलराज साहनी
बलराज साहनी हिन्दी सिनेमा में अपनी तरह के अदाकार रहे हैं। फिल्म दो बीघा जमीन में वह मजदूर किसान जिसको बलराज साहनी ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया था, जो आज भी दर्शकों के दिलो-दिमाग में ताजा है। आज उनकी जन्मतिथि है।
उनकी दूसरी फिल्म भी मसलन, भाभी, अनपढ़, वक्त, अनुपमा, काबुलीवाला, हंसते जख्म, गरम हवा, पराया धन न जाने कितनी ही फिल्में में उनका अभिनय दर्शन के ज़ेहन में आज भी जीवंत है। फिल्म सीमा का वह गीत जिसमें बलराज साहनी लाचार किरदार को अपनी आंखों से जीवंत करते हुए गाता है-तू प्यार का सागर है, और नूतन को राह दिखाता है। प्रगतिशील आंदोलन और IPTA से गहरे जुड़े बलराज फिल्मों के इतर भी अपनी जनपक्षधर, सेकुलर विचारधारा के लिए जाने जाते थे।
कश्मीर के साथ उनका जुड़ाव अलग ही था; वहाँ उनका घर था और विभाजन के बाद बलराज का परिवार वहीं आया था। जीवन भर वह कश्मीर जाते रहे और वहाँ की आब-ओ-हवा उन्हें नई सांसें देती रही। ढेरों यार-दोस्त थे उनके और घर तो था ही।
कुछ वर्ष पहले फिल्म अभिनेता परीक्षत साहनी ने अपने पिता को याद करते हुए- मेरी पिता की यादें बलराज साहनी में कई यादगार पलों से बलराज साहनी के व्यक्तित्व का एक कैनवास पाठकों के लिए खींचा है। यह किताब बलराज साहनी को एक अभिनेता, एक आम इंसान, पति, भाई, पिता, दोस्त और देशभक्त के रूप में याद करती है।
प्रकृत्ति के रचनाकार के साथ विलय
परीक्षत साहनी अपने पिता बलराज साहनी के साथ काश्मीर यात्रा के संस्मरण याद करते हुए बताते है-
उनकी आत्मा पहाड़ियों में बसती थी। भले ही वह किसी धर्म या भगवान को नहीं मानते थे, परन्तु उन्हें इस वातावरण में शान्ति का अनुभव होता था, प्रकृति के साथ एकाकार हो जाते थे। सम्भवत:, किसी आध्यात्मिक स्तर पर उनकी आत्मा का यहां प्रकृत्ति के रचनाकार के साथ विलय हो जाता था, जिससे उन्हें पूर्णता और तृप्ति का अहसास होता था।
जब भी वह किसी पहाड़ से बहती जल-धारा के पास से गुज़रते(ये अक्सर बहुत होती थीं; हमेशा बर्फ़-सी जमी होती थीं क्योंकि वे सीधे बर्फ़ीले पहाड़ों से नीचे की ओर बहती थीं), वह चारों ओर नज़रें दौड़ाते थे कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा और निर्वस्त्र होकर उस जल-धारा में डुबकी लगा लेते थे- बिल्कुल प्राकृतिक अवस्था में।
सरदार उधम सिंह : सत्य हमेशा मेलोड्रामा से ज्यादा मार्मिक होता है।
जब कभी मैं उनके साथ पद-यात्रा पर निकलता तो वह मुझे भी अपने साथ ऐसा करने के लिए उसकाते और सलाह देते थे, क्योंकि इससे आपको स्वच्छंदता का अनुभव होता है। मुझसे उन जैसा जोश या आत्म-समर्पण का भाव नहीं था लेकिन फिर भी मैं उनके आग्रह को मानने मज़बूर हो जाता था।
निर्वस्त्रता को लेकर डैड जैसा नि:संकोच होना सीख नहीं सका
मैं कभी भी निर्वस्त्रता को लेकर उनके जैसा नि:संकोच होना सीख नहीं सका, फिर भी उनके साथ सहजता का नाटक करते हुए निर्वस्त्र होकर डुबकी लगाई, पर सहजता तो मैं शायद ही कभी महसूस की हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस बर्फीली डुबकी के बाद मेरे दांत घंटो तक किटकिटाते रहते, और डैड मज़े लेते थे।
मुम्बई में समुद्र में तैरते समय भी डैड ऐसा ही करते थे। वह अपने स्वीमिंग ट्रंक्स को उतारकर गले के चारों ओर लपेट लेते और बड़ी सहजता के साथ मज़े लेकर समुद्र में तैरते।
मुझे गुलमर्ग में डैड के साथ बिताए दिन याद आते हैं, खास तौर पर लंबी सैर और खिलन की चढ़ाई। पहाड़ियों की शांति, मंत्रमुग्ध कर देने वाली तरुश्रेणियां, सुखद चरागाह, घुमावदार जल-धाराएं, इन सभी ने हमें एक-दूसरे के साथ और प्रकृत्ति के साथ भी शान्ति और एकरूपता का अहसास कराया।
यह वास्तव में एक गहरा आध्यात्मिक अनुभव था, जिसे मैं डैड के अलावा कहीं भी या किसी के साथ भी दोहरा नहीं सकता।
परीक्षत साहनी की किताब ’मेरे पिता की यादें बलराज साहनी’ से सभार
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में