शहीद सुखदेव जिन्होंने पंजाब में क्रांतिकारी संगठन खड़ा किया
बनारसीदास चतुर्वेदी ने अपने संपादन में भगवानदास माहौर, सदाशिवराव मलकापुरकर और शिव वर्मा के सहयोग से यश की धरोहर शहीद-ग्रन्थ-माला कई खंडों में प्रकाशित की, जो आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली प्रकाशन से शाया हुई थी। आज 15 मई को शहीद सुखदेव की जन्मतिथि है, यश की धरोहर किताब का एक अंश
दल के विलेजर के नाम से जाने जाते थे सुखदेव
सुना था, दल में कोई व्यक्ति है जिसका नाम है “विलेजर”। एक दिन जब भगतसिंह की चिट्ठी लेकर ‘विलेजर’ बगैर नोटिस के डी.ए.वी.कालेज कानपुर में मेरे कमरे में आ धमका तो पता चला कि उसके बारे में मैंने अपने दिमाग में जो नक्शा बना रक्खा था वह गलत था।
मैंने सोचा था “विलेजर” शायद गाँव का रहने वाला कोई नौजवान किसान होगा-निरक्षर या कम पढ़ा-लिखा। , लेकिन जिस्मानी तौर पर तगड़ा व्यक्ति, जिसके चेहरे पर गाँव के कठिन परिश्रम ने अपने निशान बचपन में ही अंकित कर दिये होंगे। रंग भी साफ तो नहीं होगा।
लेकिन जब सरदार का पर्चा मेरे हाथों में देकर विलेजर मुस्कुराया तो मुझे उसके बारे में अपनी अधिकांश धारणायें बदलनी पड़ी। एक दिन जब भगतसिंह आया तब पता चला कि विलेजर का असली नाम सुखदेव है।
सुखदेव छोटी-छोटी बातों पर ठहाका लगाकर हंस पड़ने लगता। जब उसके हंसी में किसी का कोई योग नहीं होता तो अकेले ही हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाता। उसने इसी हंसी का प्रदर्शन मेरे दल के नाम पर भी किया जिसक नाम प्रभात था। सुखदेव के हंसी का प्रवाह जब कम हुआ तो मैंने पूछा आखिर इसमें इतना हंसने की कौन बात थी?
साले, काम करेगा क्रांतिकारियों का और नाम रक्खेगा कवियों जैसा। फिर वह एकदम से खामोश हो गया, अपनी हंसी पर अचानक से ब्रेक लगा देना भी सुखदेव का स्वभाव था। सबसे खतरनाक थी उसकी मुस्कुराहट।
समाज की कुरितियों, रूढ़ियों, राजनीतिक मतभेदों के प्रति गहरी उपेक्षा और विद्रोह का प्रतीक थी सुखदेव की मुस्कुराहट।
सुखदेव वह संगठनकर्ता थे जिन्होंने एक-एक ईट रखकर संगठन को खड़ा किया था
सुखदेव मेरे कमरे में चार-पांच दिन रहा। एक संगठनकर्ता के नारे भगतसिंह की अपेक्षा सुखदेव मुझे कहीं अधिक जंचा। दल की और दल के साथियों की बहुत-सी छोटी आवश्यकतायें थी, जिनकी तरफ भगतसिंह का ध्यान नहीं जाता था, सुखदेव उनपर घंटों सोचना और विस्तार से उसका हिसाब रखता। यह कहना गलत नहीं होगा कि भगत सिंह पार्टी का राजनीतिक नेता था तो सुखदेव उसका संगठनकर्ता था-एक एक ईट रखकर इमारत खड़ी करने वाला।
सुखदेव को दल के अन्दर विलेजर उसके गंवारों जैसे ऊलजलूल व्यवहार के कारण ही दिया गया था। स्वभाव से जिद्दी होने के कारण या उससे मिलते-जुलते पहनावे को काफ़ी दिनों तक उसके अपनी साधारण पोशाक बनाये रखने के कारण। अपने शरीर के बारे में बिल्कुल उदासीन रहने वाले सुखदेव को अपने साथियों को खिलाने और पहनाने में बड़ी खुशी होती थी।
हठी होने के साथ-साथ सुखदेव झक्की भी था। अगर एक बार उसे किसी बात की झक सवार हो गई तो किसकी मज़ाल कोई उसे अपने निर्णय से डिगा सके। एक बार आगरे में उसे अपनी सहनशक्ति की परीक्षा लेने की झक आई, एक बहाना मिल गया।
विद्यार्थी जीवन में, जब क्रांतिकारी दल से उसका सम्पर्क हुआ था, उसने अपने बायें हाथ पर ओम और अपना नाम गुदवा लिया था। फरारी की हालत में पहचाने के लिए यह बहुत बड़ी निशानी थी। आगरे में बम बनाने के लिए नाइट्रिक एसिड खरीद कर रक्खा गया था। किसी को बताये बगैर उसने बहुत-सा नाइट्रिक एसिड ओम तथा अपने नाम पर लगा दिया।
शाम तक जहाँ-जहाँ एसिड लगा था वहाँ गहरे जख्म हो गये और सारा हाथ सूज गया, ज्वर भी आ गया। लेकिन इन सबके बावजूद न तो उसने अपनी तकलीफ़ का किसी से जिक्र किया, न उफ़ की और न उसकी चुहलबाजी में कोई कमी आई।
हम लोगों को उसकी कारस्तानी का पता तब चला जब दूसरे दिन नहाने के लिए उसने अपना कुर्ता उतारा। हालत देखकर जब आजाद और भगतसिंह नाराज़ हुए तो उसने हंसते-हंसते कहा, शिनाख्त की निशानी भी मिट जाएगी और एसिड में कितनी जलन है इसका अनुभव भी हो जाएगा।
थोड़ी दिनों में एसिड का घाव भर जाने पर उसने देखा कि नाम का कुछ निशान अब भी शेष है। उसने उसे भी मिटाने का निश्चय कर लिया। एक दिन शाम को वह दुर्गा भाभी के यहाँ पहुँचा। भगवती भाई उस समय कहीं गये थे और भाभी रसोई में खाना बना रही थीं। सुखदेव भगवती भाई के कमरे में जाकर बैठ गया।
काफी देर तक उसके खामोश रहने पर भाभी को उत्सुकता हुई कि वह क्या कर रहा है। जाकर देखा तो दंग रह गई। उसने मेज पर एक मोमबत्ती जला रखी थी और बड़े इत्मीनान से उसकी लौ पर हाथ दिये बैठा था। जिस स्थान पर उसका नाम लिखा था वहाँ खाल जल चुकी थी लेकिन इस बार काम अधूरा नहीं छोड़ना चाहता था।
भाभी ने लपक कर मोमबत्ती उठा ली। जब उन्होंने उसकी इस करतूत पर उसे डांटा तो मुस्करा भर दिया, बोला कुछ नहीं।
जब सुखदेव ने किया दल की केन्द्रीय समिति का विरोध
दल की केन्द्रीय समिति की जिस बैठक में दिल्ली असेम्बली में बम फेंकने का निश्चय किया गया उसमें सुखदेव नहीं था। भगतसिंह का आग्रह था कि इस काम के लिए उसे अवश्य भेजा जाय, लेकिन बाकी सदस्यों ने उसकी यह बात नहीं मानी। उस समय साणडर्स की हत्या के सिलसिले में पंजाब की पुलिस भगतसिंह की तलाश में थी। उसके पकड़े जाने के मानी थे फांसी। समित ने भगतसिंह की बात न मानकर दूसरे दो साथियों को भेजने का निश्चय किया।
दो-तीन दिन बाद जब सुखदेव आया और उसे हमारे निश्चय का पता चला तो उसने उसका सख्त विरोध किया। उसका कहना था कि पकड़ जाने के बाद अदालत के मंच से दल के सिद्धान्त, आदर्श, उद्देश्य और बम-विस्फोट के राजनीतिक महत्त्व को भली प्रकार से भगतसिंह ही रख सकता था।
भगतसिंह के आग्रह पर केन्द्रीय समिति की बैठक फिर से बुलाई गई। सुखदेव केवल बैठा रहा, बोला एक शब्द भी नहीं। भगतसिंह की जिद के सामने समिति को अपना फैसला बदलना पड़ा। सुखदेव उसी शाम किसी से बात किए बगैर लाहौर चला गया।
सुखदेव ने पकड़े जाने पर क्यों खोल दिए थे सारे राज़?
सुखदेव के क्रांतिकारी जीवन पर सबसे बड़ा कलंक है गिरफ्तारी के बाद पुलिस के सामने उसका बयान दे देना। यहाँ भी उसकी भावनाओं को ठीक से समझने की कोशिश न करके साथियों ने उसके ऊपरी व्यवहार को ही अधिक महत्त्व दिया और कुछ भी हो एक बात दो साधिकार कहीं जा सकती है कि मौत का डर अन्त तक एक क्षण के लिए उसके पास नहीं फटका और न ही साहस में वह किसी से पीछे रहा।
उसका बयान देना गलत था, इसमें दो मत नहीं हो सकते और उससे और कुछ नहीं तो दल की प्रतिष्ठा को काफी आघात तो पहुँचा ही। लेकिन यह बयान उसने अपनी बचत के ख्याल से या दल को नुकसान पहुँचाने के ख्याल से नहीं दिया। उसने उन्हीं मकानों और स्थानों का पता बताया जिनके बारे में उसे पता था कि वे छोड़े जा चुके हैं।
सहारनपुर के जिस मकान में मैं, डा0 गया प्रसाद और जयदेव रह रहे थे उसका पता दो ही व्यक्ति जानते थे, सुखदेव और फणीन्द्र। सुखदेव चाहता तो हमारा पता देकर पुलिस को अपनी सच्चाई का इत्मीनान दिला सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।
हम सहारनपुर के मकान में उस समय तक रहते रहे जब तक फणीन्द्र नहीं पकड़ा गया। इसी प्रकार उसने किसी व्यक्ति का असली नाम और पता भी पुलिस को नहीं दिया। बयान के पीछे भावना थी-हाँ, हमने यह सब किया। अब तुम जो चाहो कर लो। उसके बयान ने स्वयं उसे ही सबसे अधिक नुक़सान पहुँचाया।
सुखदेव ने लिखा गांधीजी को पत्र
केस के दौरान में सफाई आदि के सवाल पर भी वह सबसे अधिक उदासीन रहा। वह केस की पैरवी में उसी हद तक भाग लेने का पक्षपाती था जिस हद तक अदालत के मंच को क्रांन्तिकारी आदर्शों के प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके। शत्रु की अदालत में न्याय की आशा रखना वह नादानी समझता था।
सुखदेव को क्रांतिकारियों के उद्देश्य की सफलता पर कितना अडिग विश्वास था इसका प्रमाण फांसी के कुछ ही पहले महात्मा गांधी के नाम उसका पत्र है।
क्रान्तिकारियों से आन्दोलन स्थगित कर देने की अप्रील का उत्तर देते हुए उसने लिखा-क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में सोशलिस्ट प्रजातन्त्र प्रणाली स्थापित करना है। इस ध्येय में संशोधन के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है। …मेरा ख्याल है…आपकी भी यह धारणा न होगी कि क्रान्तिकारी तर्क-हीन होते हैं और उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों में ही आनन्द आता है।
हम आपको बतला देना चाहते हैं कि यथार्थ में बात इसके बिल्कुल विपरीत है। वे प्रत्येक कदम पर विचार कर लेते हैं। उन्हें अपने क्रान्तिकारी विधान में रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते हैं, यथार्थ में बात इसके बिल्कुल विपरीत है। वे प्रत्येक कदम आगे बढ़ाने के पहले अपने चारों ओर की परिस्थितियों पर विचार कर लेते हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान हर समय बना रहता है। वे अपने क्रान्तिकारी विधान में रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते हैं, यद्यपि मौजूदा परिस्थितियों में उन्हें केवल विनाशात्मक अंश की ओर ध्यान देना पड़ता है।
…वह दिन दूर नहीं है जबकि उनके क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में और उनके भण्डे के नीचे जन-समुदाय उनके समाजवादी प्रजातन्त्र के उच्च ध्येय की ओर बढ़ता हुआ दिखाई पड़ेगा।
इस पत्र में एक अन्य स्थान पर अपनी फांसी की सजा के बारे में उसने लिखा-
लाहौर षड़यंत्र के तीन राजबन्दी जिन्हें फांसी देने का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश देश में बहुत बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली है, क्रान्तिकारी दल के सब कुछ नहीं है। वास्तव में उनकी सजाओं को बदल देने से देश का उतना कल्याण न होगा, जितना इन्हें फांसी पर चढ़ा देने से होगा।
ऐसा था सुखदेव-फूल से भी कोमल और पत्थर से भी कठोर। डर जिसके पास कभी नहीं फटका और शत्रु के साथ समझौता की बात जिसने एक क्षण के लिए भी नहीं सोचा। लोगों ने उसकी कठोरता ही देखी और उसे न समझ पाकर उसके साथ अन्याय भी किया। लेकिन उसने कभी इसकी शिकायत नहीं की। अपनी कोमल भावनाओं को, प्यार और ममता को निजी चीज़ समझकर अन्त तक वह उन्हें अपने अन्दर ही छिपाए रखा।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में