रियासती एकता में पंडित नेहरू का योगदान
[शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला (1905-1981) जिन्हें शेर-ए-काश्मीर भी कहा जाता है, कश्मीर के सबसे महत्त्वपूर्ण नेताओं में थे। आज़ादी के बाद उन्होंने कश्मीर के द्वितीय मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उन्होंने नेहरू के साथ जुड़कर देश की आजादी के लिए कार्य किया और बाद में कश्मीर के भारत में विलय में भी मुख्य कारण बने।]
रियासती प्रजा को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ने वाले पहले व्यक्ति नेहरू ही थे
पंडित नेहरू की महत्ता इसमें हैं कि उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष को दिशा और धार दी और उसे विदेशी सत्ता के विरुद्ध सफल बनाया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का विकास केवल संख्या-वृद्धि द्वारा नहीं बल्कि उत्तरोत्तर परिवर्धनशील राजनीतिक और आर्थिक योजनाओं के निश्चित क्रम द्वारा भी हुआ है। इन योजनाओं को रूप देने में पंडित नेहरू ने एक विशिष्ट और प्रमुख भाग लिया है।
भारत की राजनीतिक रणभूमि में उनके आने के पहले और उपरान्त भी देश के विभिन्न भागों में लोग स्वतंत्रता की स्थानीय लड़ाईयाँ लड़ रहे थे जो देश के बृहत्तर राष्ट्रीय आन्दोलन से प्राय: सम्बद्ध थी, उदाहरणतया कुछ रियासतों में या सीमान्त प्रदेश में। उनके गत्यात्मक व्यक्तित्व के कारण ही यह सम्भव हुआ कि ये धाराएँ एक होकर एक ऐसा तूफ़ानी प्रवाह बन गई जिसमें एक महान साम्राज्य बह गया।
आरंभ में राष्ट्रीय आन्दोलन तथाकथित ब्रितानी भारत तक ही सीमित था। भारतीय भारत में रहनेवाले जन-समुदाय में इतनी जागृति नहीं हो पाई थी कि देश को स्वतंत्र करने में वह कोई प्रभावशाली भाग ले सकता।
रियासती जनता गुलामी के बोझ से दबी रहती कराहती ही रही। भारत में अंग्रेज़ों के सबसे बड़े मित्र राजा लग थे। साम्राज्यवाद के इस क़िले की सैर किए बग़ैर विदेशी शासन के विरुद्ध किसी भी संघर्ष का सफल होना असम्भव था।
भविष्य की गहराई में पैठकर इस बात का अनुभव करनेवालों में पंडित नेहरू पहले व्यक्ति थे कि राष्ट्रीय आदर्श की प्राप्ति के लिए रियासती प्रजा का संगठन करना और रियासतों के अलग-अलग आन्दोलनों को प्रधान राष्ट्रीय आन्दोलन का ही अंग बनाना नितान्त आवश्यक हैं।
कैसे हुई पंडित नेहरू से शेर-ए-काश्मीर की मुलाकात
ऐसी किसी संस्था को भारतीय कांग्रेस से तो अलग होना ही था क्योंकि रियासती प्रजा की समस्याएँ ब्रिटिश भारत की जनता की समस्याओं से बहुत बातों में भिन्न थी। रियासतों की वस्तुस्थिति भिन्न थी। पंडित जी को उनका अनुभव करने का अवसर तब मिला था।
जब गाभा रियासत के अधिकारियों ने उन्हें जबरन हिरासत में ले लिया था। वहाँ की स्थिति इस बात से और उलझ गई थी कि विदेशी सत्ता से लड़ने के लिए पहले राजाओं की निरंकुश शक्ति और स्वेच्छाचारिता को समाप्त करना था। इसलिए आवश्यकता पड़ी रियासती प्रजामंडल की जिसे राजाओं के विरुद्ध मोर्चा लेना था। रियासती प्रजामंडल के निर्माण में पंडित जी प्रधान प्रेरक रहे हैं।
सन 1925 के पूर्व हमारी रियासत कश्मीर में प्रजा अपने दुख और कष्ट की बात शासक के पास प्रार्थनापत्र भेजकर ही प्रकट कर सकती थी। किन्तु सन 1925 में, इतिहास में प्रथम बार, प्रजा ने संगठित रूप से राजनीतक आन्दोलन का सूत्रपात्र किया। सरकारी रेशम मिल के मज़दूरों ने, शिक्षा और अधिक वेतन की मांगो पर, हड़ताल कर दी।
किन्तु फिर भी, अधिकांश जनता निस्पन्द ही रही। 1931 तक असन्तोष सर्वव्यापी हो गया। कारण वही थे जिसकी परिणति भारत में असहयोग आन्दोलन में हुई थी। भूख और गरीबी की भयंकर विभीषिका किसान की सहन-सीमा पार कर गई थी और देश भर में बेकारी फैली हुई थी।
इस सबका एकमात्र समाधान था पुराने ढर्रे का नाश। सारी रियासत एक वृहत राजनीतिक भूकंप से हिल उठी खेतिहर ने अपनी मेहनत के फल पर अपने हक़ की मांग की; और रोज़गार के तथा शासन में जनता के भागी होने के अधिकार पर ज़ोर दिया गया।
पंडित नेहरू ने पठानों को कांग्रेस से सम्बद्ध करवा दिया
इस आन्दोलन की एक निर्बलता थी इसका अकेला होना। लोगों ने उसकी निन्दा यह कहकर की कि आन्दोलन का उद्देश्य और रूपरेखा साम्प्रदायिक है। यह पंडित जी की अक्षय कीर्ति की बात है कि उन्होंने हमारे आन्दोलन की रक्षा इन आक्षेपों का जवाब देकर की।
उन्होंने घोषित किया कि यह आन्दोलन स्वेच्छाचारिता और विदेशी शासन के विरुद्ध कश्मीरियों की प्रगतिशील भावना की अभिव्यक्ति है और हमारे आन्दोलन की रियासती प्रजामंडल से सम्बद्ध कराने का श्रेय भी उनको ही प्राप्त है।
इसी प्रकार पठानों के स्वातंत्र-आन्दोलन के सम्बन्ध में भी पंडित जी का कार्य स्तुल्य है। सैनिक दृष्टि से भारत के सनसे अधिक महत्त्वपूर्ण और सबसे कमज़ोर सीमान्त प्रदेश के निवासी पठानों ने सिकन्दर से लेकर अंग्रेजों तक किसी भी भारत-विजेता के सामने सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया।
अंग्रेजों ने निर्मल बल प्रयोग द्वारा, रिश्वते देकर और आपस में झगड़े उभारकर उनपर समाधान करने की कोशिश की। ख़ान भाइयों ने पठानों को संगठित किया और अत्यन्त कष्ट सहते तथा महान त्याग करते हुए सामूहिल शत्रु के विरुद्ध उनका नेतृत्व किया। अपने इस उत्कट संघर्ष में उन्हें सबसे अधिक आवश्यकता थी मित्रो की।
जो लोग भारत में मुसलमानों के परिवार के संरक्षक होने का दम्भ कर रहे थे उन्होंने पठानों को कोई भी सहायता देना अस्वीकार कर दिया। पंडित नेहरू ने उन्हें गले लगाया और खुदाई ख़िदमतगारों को राष्ट्र्रीय कांग्रेस से सम्बद्ध करवा दिया।
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अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध सबसे ऊंचा स्वर रखने वाले पंडित नेहरू
पंडित नेहरू केवल राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए ही नहीं लड़ते रहे हैं। उनके कार्यो का क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा है। वे सदैव संसार भर की अत्यचार-पीड़ित जातियों की मुक्ति के लिए भी संघर्ष करते रहे हैं। अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण के कारण वह सदैव अनुभव कराते रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता और अन्तर्राष्ट्रीय उन्नति अन्योन्याश्रित है।
संसार में दो प्रतिद्धन्द्दि शिविर हैं: प्रगति और प्रतिगति के, जनतंत्र और तानाशाही के। स्वतंत्रता और जनता की विजय प्रगति के शिविर में एकता पर निर्भर है। किस भी देश में प्रगति की पराजय दूसरे देशों में प्रगतिशील शक्तियों को कमज़ोर बनाएगी। यही कारण है कि जब नात्सियों ने बियना ने सुन्दर स्थानों को पदाक्रान्त किया, तब पंडित जी का ह्र्दय रो पड़ा था: और इसी कारण इस्लामी गृहयुद्ध के समय वह इतने व्यस्त थे। फिलिस्तीन के अग्ला का उन्होंने प्रबल समर्थन किया है।
इधर उनकी चिन्ता का एक नया विषय हिन्देशिया की आजादी पर उसी का आक्रमण। अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध सबसे ऊंचा स्वर रखने वाले पंडित नेहरू हमारे युग के ज्ञानी तो हैं ही, साथ ही उनमें अपने आदर्शो को कार्य-रूप में परिणत करने का सामर्थ्य भी है।
इस तुलना में शेली की हेठी नहीं होती, क्योंकि पंडित जी ह्रदय से कवि ही हैं। तीक्ष्ण संवेदनहीनता और उदार बुद्धि के साथ उनके व्यक्तित्व में वे सब उपकरण मौजूद हैं जिनसे कवि का निर्माण होता है। अपने देववासियों की ग़रीबी और अज्ञान की तात्कालिक समस्याओं के कारण उन्हें अपनी सारी शक्ति और प्रतिभा को राजनतिक आंधी-तूफ़ान को समर्पित करना पड़ा है। किन्त जब कभी उन्हें अपनी भावनाओं का शान्ति से स्मरण करने का अवसर मिला है तथा जेक की कोठरी के एकान्त में, तब-तब उन्होंने गद्य में गीत-सृष्टि की है। यनकी कृतियाँ गद्य-गीतिया ही तो हैं।
पंडित नेहरू ने विपदा के समय कश्मीर के लिए जो कुछ भी कर सकते थे वह सब किया
पंडित नेहरू को मैं अब दस वर्ष से अधिसे अच्छी तरह से जानता हूँ। वह मेरे सहयोद्धा ही नहीं रहे हैं, वरन मेरे मित्र, मंत्रदाता और पथप्रदर्शक भी रहे हैं। उन्होंन मुझे सदा अपना निश्छल स्नेह दिया है और जम्मू तथा कश्मीत की जनता के प्रति, संकट में जिसकी रक्षा के लिए वे सदैव आगे आते रहें है, उनका प्रेम सदा ही प्रचुर रहा है।
कश्मीर छोड़ो आन्दोलन के समय, जब हम निरंकुश स्चेच्छाचारिता के विरुद्ध अपनी लड़ाई की आखिरी खाई में थे, वह दौड़ते हुए कश्मीर आए और उस घोर विपदा के समय हमारी सफलता के लिए जो कुछ भी कर सकते थे वह सब उन्होंने किया।
पंजाब और दिल्ली के साम्प्रदायिक उपद्रवों के समय पंडित नेहरू का व्यक्तित्व अपने उच्चतम शिखर पर पहुँच गया। एक उन्मत्त संसार में, जब इनसान-इनसान नहीं रहा था, जब सभ्यता आदिम बर्बरता हो गई थी जब अपराध-अपराध नहीं रह गए थे, जब हत्या और बलात्कार देशभक्ति समझे जाते थे, तब गांधीजी के साथ पंडित नेहरू एक तूफ़ानी सागर में प्रेम, शान्ति और सहानुभूति का प्रकाश विकीरित करते चट्टान की भांति दृढ़ खड़े थे।
खैर, अन्त में उनका पक्ष सही सावित हुआ वे इस बात को सिद्ध करने में सफल हुए हैं कि साम्प्रदायिक एकता का और भारत में असाम्प्रदायिक लौकिक शासन की स्थापना का मार्ग ही उन्नतिकर सही मार्ग है।
विकट ऊहापोह में आज के विच्छिन्न विश्व में पंडित नेहरू शान्ति और प्रगति के भव्य प्रतीक के रूप में विद्यमान हैं। यद्यपि गत महायुद्ध के आघातों से संसार अभी संभल नहीं पाया है, फिर भी कुछ शक्तियाँ उसे विनाशकारी ज्वाला की इर धकेले लिये जा रही हैं।
संघर्ष की शक्तियाँ दो शिविरों में विभक्त हो रही हैं, जिसके युद्ध के परिणाम मानवता का विनाश होगा। शस्त्रीकरण की दौड़ आरम्भ हो चुकी है और हम अपने पुराने अनुभव से जानते हैं कि इस दौड़ का अन्त कहाँ जाकर होगा।
आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है शन्तिकामी शक्तियों को समझने और अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को निपटारे के लिए युद्ध के साधन का बहिष्कार और तुला को शान्ति की ओर झुका सकने में समर्थ सबसे महत्त्वपूर्ण अकेला उपकरण हैं–पंडित नेहरू…
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में